गृह प्रबन्ध - गृह प्रबन्ध किसे कहते हैं?, अर्थ, परिभाषा, उद्देश्य, प्रक्रिया | grah prabandh

गृह प्रबन्ध

सुदृढ़ गृह व्यवस्था न केवल सफल पारिवारिक जीवन के लिए आवश्यक है अपितु किसी भी उन्नत समाज एवं राष्ट्र का आधार है। गृह प्रबन्ध का उद्देश्य उपलब्ध संसाधनों में प्रत्येक पारिवारिक सदस्य की आवश्यकताओं की पूर्ति कर जीवन लक्ष्य को प्राप्त करना है। जीवन की विभिन्न अवस्थाओं में समय-समय पर आवश्यक लक्ष्यों की पूर्ति हमें सुख की अनुभूति प्रदान करती है, जिससे जीवन की गुणवत्ता उत्तम हो जाती है। यद्यपि व्यवस्थापन प्रक्रिया सदैव से चली आ रही है। परन्तु आज के तेजी से बदलते समय, परिस्थितयों, सोच, मूल्य और आर्थिक एवं तकनीकी परिवर्तनों से सामंजस्य बैठाने हेतु यह आवश्यक है कि स्वयं व्यवस्थापन प्रक्रिया में आवश्यक परिवर्तन किए जाएं।
गृह प्रबन्ध, गृह विज्ञान विषय का एक अत्यधिक महत्वपूर्ण भाग है।
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आधुनिक समय में जहाँ एक ओर विज्ञान एवं तकनीकी विकास के कारण सुख - सुविधाओं एवं जीवन स्तर में वृद्वि हुई है वहीं दूसरी ओर बढ़ती जनसंख्या के कारण संसाधन सीमित होते जा रहे हैं। सीमित संसाधनों के कुशलतम उपयोग एवं प्रबन्ध द्वारा ही प्रत्येक व्यक्ति अथवा परिवार अपने लक्ष्यों की प्राप्ति कर सकता है।
आधुनिक समय में स्त्री के पास केवल घर का ही दायित्व नहीं है, अपितु घर के बाहर भी स्त्री कुशल डॉक्टर, शिक्षक, प्रशासक, प्रबन्धक एवं व्यवसायी /उद्यमी आदि भूमिकाएं निभाकर समाज के उत्थान में अपना योगदान दे रही हैं। इस प्रकार सीमित समय में दोहरे दायित्व के कारण परिस्थितियां जटिल एवं विषम हो गयी हैं। कुशल प्रबन्धन के अभाव में गृहस्थ एवं परिवारिक जीवन कभी-कभी अत्यधिक जटिल हो जाता है। इन जटिल परिस्थितियों का प्रभाव पारिवारिक सदस्यों के व्यक्तित्व एवं विकास पर पड़ता है।
एक अव्यवस्थित घर, परिवार के सदस्यों के वांछित विकास में बाधक होता है। अतः परिवार के सुखी और समृद्व जीवन के लिए गृहणी ही नहीं अपितु परिवार के प्रत्येक सदस्य को गृह व्यवस्था अथवा गृह प्रबन्ध का सैद्धान्तिक एवं व्यवहारिक ज्ञान होना परम आवश्यक है।

उद्देश्य

  • गृह प्रबन्ध अथवा गृह व्यवस्था गृह विज्ञान विषय का एक अति महत्वपूर्ण भाग है।
  • परिवारिक जीवन के सन्दर्भ में गृह व्यवस्था तथा गृह प्रबन्ध प्रक्रिया को समझ पाएंगे
  • गृह प्रबन्धन के घटकों/चरणों के बारे में जान पाएंगे तथा इसकी परिभाषाएँ, दर्शन इतिहास एवं महत्व को समझ कर वास्तविक जीवन में इसका प्रयोग कर सकेंगे; तथा
  • गृह प्रबन्धन में आने वाली बाधाओं तथा निर्णय प्रक्रिया के महत्व के बारे में जानकारी प्राप्त करेंगे।

गृह प्रबन्ध का अर्थ

गृह अथवा घर मानव जीवन की तीन मूलभूत आवश्यकताओं; भोजन, वस्त्र तथा घर में से एक है। गृह प्रबन्ध, जिसे सामान्यता गृह व्यवस्था भी कहा जाता है, को भली-भांति समझने के लिए यह आवश्यक है कि पहले गृह एवं प्रबन्ध का अर्थ अलग-अलग समझा जाए।

गृह
गृह अथवा घर मानव की एक मूलभूत आवश्यकता है। यद्यपि घर एवं मकान दोनों शब्दों का अर्थ एक ही है परन्तु दोनों के भावानात्मक अर्थ भिन्न-भिन्न हैं, विशेषकर एक गृह अर्थशास्त्री अथवा गृहणी की दृष्टि से। घर (Home) से हमारा भावनात्मक संबंध होता है। मनुष्य अपने जन्म के बाद घर नामक स्थान पर ही सुरक्षित एवं समुचित परिवेश प्राप्त करता है। यही परिवेश/ वातावरण सुदृढ़ समाज की मजबूत इकाई बनता है। घर में परिवार के सदस्य आपस में मिल जुल कर प्रेम, स्नेह, सहानुभूति ,त्याग और अपनत्व के अटूट बंधन में बंधते हैं। घर से ही हमें पारिवारिक मूल्य मिलते हैं जो हमारे भविष्य एवं व्यक्तित्व का आधार बनते हैं।
इसके विपरीत मकान (House) का अर्थ भौतिक रूप से उपलब्ध या उपस्थित एक संपत्ति से लिया जाता है जिसकी आधुनिक संदर्भ में एक मुख्य प्रासंगिकता है, निवेश (Investment)। एक भव्य मकान में समस्त सुख सुविधाएं उपलब्ध हो सकती हैं परन्तु क्या आप वहाँ प्रेम, सहयोग, सौहार्द, चिन्तामुक्त, सुखी शान्तिमय जीवन की भी कल्पना कर सकते हैं? यह हम निश्चित रूप से नहीं कह सकते। उदाहरण के लिए एक पाँच सितारा होटल में आप समस्त सुख सुविधायें पा सकते हैं परन्तु क्या वहाँ उपरोक्त मानवीय मूल्यों के लिए कोई स्थान है, यह कहना बहुत कठिन है।

प्रबन्ध
सामान्य अर्थों में प्रबन्ध का आशय है "किसी भी इच्छित लक्ष्य की प्राप्ति हेतु सुनियोजित प्रकार से किया गया कार्य”। परन्तु प्रबन्ध एक व्यापक शब्द है जिसका उपयोग एवं अर्थ व्यवसायिक,औद्योगिक एवं घरेलु सन्दर्भ में भिन्न भिन्न हो सकता है। यह एक मानसिक प्रक्रिया है जो प्रायः सभी व्यक्तियों द्वारा अपने उपलब्ध संसाधनों के उपयोग से एक योजनाबद्ध प्रारूप में सम्पन्न की जाती है। परन्तु अन्तर यह है कि कुछ व्यक्ति प्रबन्ध प्रक्रिया में सफल होते हैं और कुछ नहीं। प्रबन्ध वास्तव में कला एवं विज्ञान का संगम है जिसके अन्तर्गत प्रबन्ध प्रक्रिया के विभिन्न घटकों जैसे नियोजन, संगठन, समन्वयन एवं प्रेरक तत्वों जैसे उत्प्रेरण, नियंत्रण आदि का वैज्ञानिक विश्लेषण किया जाता है। आने वाली इकाईयों में हम उपरोक्त घटकों के विषय में विस्तार पूर्वक समझेंगे।
भारत समेत विश्व के सभी अग्रणी शिक्षण संस्थानों में प्रबन्ध को एक विषय के रूप में मान्यता प्राप्त है। किसी भी समाज अथवा राष्ट्र की उन्नति पूर्णतया उपलब्ध संसाधनों के उचित प्रबन्धन पर निर्भर करती है। भारत में नीति आयोग (Planning Commission) राष्ट्र में उपलब्ध समस्त संसाधनों (जिसमें समय, ऊर्जा, धन, भौतिक वस्तुओं के अतिरिक्त ज्ञान, रूचियाँ, अभिवृतियाँ, कौशल योग्यताएं और सामुदायिक सुविधाएं सम्मिलित हैं), के उचित प्रबन्धन से राष्ट्र के विकास हेतु नीतियों के निष्पादन एवं कार्यान्वयन हेतु समर्पित है। यह प्रबन्ध द्वारा विकास एवं उन्नति का सर्वोतम उदाहरण है।

गृह प्रबन्ध की परिभाषाएँ

गृह प्रबन्ध दैनिक जीवन में उपयोग किया जाने वाला सर्वाधिक प्रचलित शब्द है। हम सभी किसी न किसी रूप में गृह प्रबन्ध अथवा गृह व्यवस्था शब्द से परिचित हैं। गृह प्रबन्ध में भावनात्मक पहलुओं का विशेष ध्यान रखा जाता है। उदाहरण के लिए पारिवारिक उद्देश्य चाहे कुछ भी हो गृहणी अपनी पहली प्राथमिकता के रूप में सदैव परिवार के सदस्यों के साथ तथा सदस्यों के मध्य भावानात्मक संबंध मजबूत करने पर अपना ध्यान केन्द्रित करे करने पर अपना ध्यान केन्द्रित करेगी। यही कारण है कि गृह प्रबन्ध को परिभाषित करना अपेक्षाकृत कठिन है।
विभिन्न विद्वानों ने गृह प्रबन्ध को विभिन्न प्रकार से परिभषित किया है। आइए इस पर चर्चा करें।

ग्रॉस एवं क्रेण्डल के अनुसार
गृह व्यवस्था एक मानसिक प्रक्रिया है जिसमें आयोजन, नियंत्रण एवं मूल्यांकन के द्वारा तथा पारिवारिक संसाधनों के उचित उपयोग से परिवारिक लक्ष्यों की प्राप्ति की जा सकती है"

निकिल एवं डार्सी के अनुसार
"गृह व्यवस्था परिवार के लक्ष्यों को प्राप्त करने के उद्देश्य से परिवार के स्रोतों या संसाधनों के प्रयोग हेतु किया गया आयोजन, नियंत्रण एवं मूल्यांकन है”।

राजामल पी. देवदास के अनुसार
"गृह व्यवस्था में पारिवारिक लक्ष्यों को प्राप्त करने हेतु पारिवारिक संसाधनों के उपयोग से संबंधित निर्णयों को सम्मिलित किया जाता है"

इरीन ओपनहीम के अनुसार
"गृह व्यवस्था संस्कृति की जड़ होती है। भिन्न-भिन्न संस्कृतियों में गृह उत्तरदायित्वों की व्यवस्था में भिन्नता होती है। स्वयं संस्कृति में भी पर्याप्त भिन्नता देखने को मिलती है”।

यद्यपि गृह प्रबन्ध को विभिन्न गृह अर्थशास्त्रियों ने विभिन्न प्रकार से परिभाषित किया है परन्तु समस्त परिभाषाओं में पारिवारिक लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए उपलब्ध संसाधनों के सुनियोजित उपयोग पर बल दिया गया है।
अगले भाग में हम गृह प्रबन्ध के उद्देश्यों पर चर्चा करेंगे।

गृह प्रबन्ध के उद्देश्य

गृह प्रबन्ध के उद्देश्य निम्नवत हैं-
  • परिवार के सभी सदस्यों की आवश्यकताओं की पर्ति।
  • सीमित आय से अधिकतम आवश्यकताओं की पूर्ति।
  • गृह कार्यों का कुशलता पूर्वक निष्पादन।
  • पारिवारिक स्तर एवं सौहार्द बनाए रखना।
गृह व्यवस्था का मुख्य उद्देश्य है परिवर्तन जो कि जीवन में उन्नति के लिए अति आवश्यक है। परिवर्तन एक सतत् चलने वाली प्रक्रिया है। गृह व्यवस्था सदैव से चली आ रही है एवं इसका प्रमुख उद्देश्य है योजनाबद्व प्रकार से इच्छित लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए परिवर्तन लाना। हमारी परम्पराएं, नैतिक मूल्य, सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक एवं वैज्ञानिक परिस्थितयां इन परिवर्तनों का आधार है। गृह व्यवस्था प्रक्रिया स्वयं में तो परिवर्तित नहीं होती परन्तु संबंधित लक्ष्यों, स्थितियों और निर्णयों में स्थिति के अनुसार परिवर्तन लाया जाता है। एक कामकाजी महिला द्वारा समय एवं श्रम बचाने हेतु हाथ से कपड़े धोने के स्थान पर वॉशिंग मशीन का प्रयोग तथा उत्पादकता बढ़ाने एवं समय बचाने हेतु विभिन्न आधुनिक यंत्रों का उपयोग इन परिवर्तनों का उदाहरण है। समाज में महिलाओं द्वारा प्राप्त उपलब्धियाँ एवं अपनी योग्यता/कौशल का प्रदर्शन कर पाना, शिक्षा व्यवस्था में परिवर्तन एवं स्त्री शिक्षा को प्रोत्साहित करने का ही परिणाम है।
किसी भी काल (समय) अथवा परिस्थितियों में गृह व्यवस्था का परम उद्देश्य सीमित पारिवारिक संसाधनों में इच्छित लक्ष्य एवं परिवार कल्याण ही है। गृह व्यवस्था के परिप्रेक्ष्य में धन, समय और शक्ति प्रमुख संसाधन हैं और इनके अधिकतम एवं सुनियोजित उपयोग हेतु आयोजन, नियंत्रण एवं मूल्यांकन प्रक्रिया सतत् रूप से कार्यरत रहती है। गृह व्यवस्था का मुख्य उद्देश्य यह भी है कि परिवार की विभिन्न अवस्थाओं में समय-समय पर लक्ष्यों की प्राप्ति की जाए क्योंकि पारिवारिक जीवन चक्र के साथ-साथ लक्ष्य भी बदलते हैं और लक्ष्यों की प्राप्ति जीवन में संतुष्टि और सुख प्रदान करती है जो कि उन्नति एवं पारिवारिक कल्याण के लिए अति आवश्यक है। आइए अब हम गृह प्रबन्ध में आने वाली बाधाओं के विषय में जानें।

गृह प्रबन्ध में आने वाली बाधाएँ

शैक्षिक प्रोत्साहन, वैज्ञानिक उन्नति और औद्योगीकरण के कारण समाज में अत्यधिक परिवर्तन आ गया है। नारी प्रत्येक परिवार की धुरी है और आज समाज में नारी शिक्षा के कारण नारी के सामाजिक एवं पारिवारिक महत्व में बहुत अन्तर आ गया है। आज नारी के पास परिवार के साथसाथ अन्य कई महत्वपर्ण दायित्व भी हैं जिनका निर्वहन करना उतना ही आवश्यक है जितना पारिवारिक दायित्व का पालन करना। चूँकि सामाजिक ढांचे में परिवर्तन के फलस्वरूप संयुक्त परिवार समाप्त होकर एकाकी परिवारों का रूप ले रहे हैं जिससे पारिवारिक उत्तरदायित्वों के स्वरूप संबंधो एवं भावनात्मक दृष्टिकोण में परिवर्तन आ गया है। इनके कारण भी गृह व्यवस्थापक (गृहणी) के सामने प्रतिदिन नयी-नयी चुनौतियाँ खड़ी हो जाती हैं। ये चुनौतियाँ गृह व्यवस्था में सबसे बडी बाधाएँ उत्पन्न करती हैं। इन बाधाओं को दूर करने के लिए गृह व्यवस्थापक को कई निर्णय लेने पड़ते हैं।
आइए जानें कि गृह व्यवस्था प्रक्रिया में कौन-कौन सी प्रमुख बाधाएँ आती हैं।
  • प्रबन्ध प्रक्रिया का ज्ञान न होना।
  • संबधित निर्णयों के लिए आवश्यक जानकारी न जुटा पाना।
  • प्रबन्ध और लक्ष्यों का सीधा संबंध न होना।
  • लक्ष्यों की प्राथमिकता स्पष्ट न होना।
  • उपलब्ध संसाधनों का सर्वोत्तम उपयोग न कर पाना।
  • प्रयत्नों का अभाव।
  • योजना अनुसार लक्ष्य निर्धारण न कर पाना।
  • दायित्वों के आवंटन का अभाव।

गृह प्रबन्ध से संबंधित भ्रांतियां

असफल गृह व्यवस्था का एक प्रमुख कारण भ्रांतियां भी हैं। समय रहते इन भ्राँतियों को दूर करना आवश्यक है। आइए समझें कि एक गृह प्रबन्धक के दृष्टिकोण से ये भ्रांतिया क्या हैं और इन्हें कैसे दूर किया जा सकता है।
  • गृह व्यवस्था का उद्देश्य केवल योजना बनाकर कार्य समाप्त करना ही नहीं है। गृह प्रबन्ध का तात्पर्य कार्य के प्रत्येक पक्ष पर विचार के पश्चात् क्रियान्वयन और बाद में उसका मूल्यांकन करना भी है। अतः हम कह सकते हैं कि प्रबन्ध एक साधन (Mean) है, साध्य (End) नहीं।
  • प्रबन्ध केवल परिवार के मुखिया का ही कार्य नहीं है। कहने का अर्थ है गृह व्यवस्था में प्रत्येक पारिवारिक सदस्यों का सकारात्मक योगदान अति आवश्यक है। परिवारिक सौहार्द बनाकर प्रत्येक सदस्य, व्यवस्था प्रक्रिया में अपना योगदान दे सकता है।
  • सुप्रबन्ध एक जन्मजात गुण है। एक अच्छा व्यवस्थापक जन्म से उत्पन्न होता है परन्तु वास्तविकता यह है कि प्रबन्ध (चाहे किसी भी क्षेत्र में हो) ज्ञान, अभ्यास एवं अनुभव से बढ़ता है। यदि किसी व्यक्ति में लगन है तो वह अन्य कार्यों की भांति व्यवस्था प्रक्रिया को समझकर तथा सीखकर व्यवहारिक जीवन में उसका बद्विमता पूर्वक अनुप्रयोग कर सकेगा।
  • प्रबन्ध का उद्देश्य केवल लक्ष्य प्राप्ति ही नहीं है। यदि व्यवस्था का उद्देश्य किसी भी प्रकार से लक्ष्यों की प्राप्ति मात्र ही रह जाए तो समाज पर इसका नैतिक, शारीरिक, मानसिक और चारित्रिक रूप से दुष्प्रभाव पड़ेगा। गृह व्यवस्था में किसी भी परिस्थिति में प्रबन्धक लक्ष्य प्राप्ति हेतु अपने नैतिक मूल्यों और परम्पराओं से समझौता करने के लिए अनेक बार सोचेगा और किसी अन्य विकल्प का सहारा लेकर अपने लक्ष्यों की प्राप्ति करेगा। प्रबन्ध प्रक्रिया में निर्णय, समस्या के समस्त पहलुओं और उनका परिवार पर पड़ने वाले प्रभाव का अध्ययन और विश्लेषण के उपरान्त ही लिया जाता है।

गृह प्रबन्ध प्रक्रिया

गृह प्रबन्ध एक सतत् एवं परिवर्तनशील प्रक्रिया है जिसमें लक्ष्यों की प्राप्ति हेतु निर्णय लेकर कार्यों को योजनाबद्ध तरीके से किया जाता है। गृह प्रबन्ध पारिवारिक जीवन का प्रशासनात्मक पक्ष है। इसमें परिवार के मूल्यों को समाहित करते हुए प्रत्येक पारिवारिक सदस्य का नैतिक, पारिवारिक एवं व्यक्तित्व का विकास करना सम्मिलित है जिससे पारिवारिक सदस्यों को जीवन की विपरीत परिस्थितियों में समस्या का निराकरण कर आगे बढ़ने की प्रेरणा मिलती है। गह प्रबन्ध प्रक्रिया व्यक्ति को परिवार में उपलब्ध शारीरिक, बौद्धिक, सामाजिक, भौतिक, आर्थिक संसाधनों का सफल उपयोग करना सिखाती है। पारिवारिक जीवन में समयानुसार लक्ष्यों को प्राप्त कर सुख, शांति एवं सौहार्द का वातावरण बना रहे इसके लिए गृहणी का एक कुशल प्रबन्धक भी होना अति आवश्यक है।
जैसा कि आपने पूर्व में भी पढ़ा कि गृह व्यवस्था प्रक्रिया कोई नयी प्रक्रिया नहीं है। धरती पर मानव जीवन के आगमन पर संभवतः इसका उद्भव हो चुका होगा। हम सभी प्रबन्ध और इसके अर्थ से परिचित हैं। प्रतिदिन हम जाने अनजाने अपने इच्छित लक्ष्यों की पूर्ति के लिए इसका प्रयोग करते हैं। अभ्यास, ज्ञान, अनुभव एवं प्रयत्न के द्वारा भी कुछ व्यक्ति प्रबन्ध प्रक्रिया में सफल नहीं हो पाते परन्तु यदि वे चाहें तो विभिन्न सुख सुविधाओं के इस आधुनिक समय में प्रबन्ध प्रक्रिया सीखकर जीवन में सफल हो सकते हैं। विभिन्न गृह अर्थशास्त्रियों ने प्रबन्ध प्रक्रिया को विभिन्न प्रकार से परिभाषित किया है। अगले भाग में हम इन परिभाषाओं के बारे में जानेंगे।

गृह प्रबन्ध प्रक्रिया की परिभाषाएँ
गृह प्रबन्ध प्रक्रिया को विभिन्न विद्वानों द्वारा परिभाषित किया गया है।

निकिल एवं डार्सी के अनुसार
“पारिवारिक लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए पारिवारिक संसाधनों का उपयोग किया जाता है जिसमें नियोजन, नियंत्रण एवं मूल्यांकन तीन प्रमुख घटक हैं, यह प्रक्रिया प्रबन्ध प्रक्रिया कहलाती है।

निकिल एवं डार्सी की एक अन्य परिभाषा के अनुसार
“उद्देश्य निर्देशित व्यवस्थापन की प्रक्रिया का निर्माण, प्रगति की परस्पर आश्रित व्यवस्थापन की क्रियाओं की एक श्रृंखला है जिसमें से प्रत्येक में निर्णय लेने की आवश्यकता सम्मिलित है”।

यहां पर प्रक्रिया से तात्पर्य है कि क्रियाओं की ऐसी श्रृंखला जिसके प्रत्येक चरण पर निर्णय लेने की आवश्यकता होती है। “Management in Family Living” नामक पुस्तक में निकिल एवं डार्सी ने लिखा है कि व्यवस्थापन की धारणा यही है कि वह एक योजनाबद्ध प्रक्रिया है जो कि हमें इच्छित लक्ष्यों को प्राप्त करने हेतु निर्देशित करती है। इसके अन्तर्गत मूल्यों को महत्व दिया जाता है और फिर निर्णय लिया जाता है।

ग्रॉस एवं क्रेण्डल के अनुसार
गृह व्यवस्थापन प्रक्रिया गृह व्यवस्था के लिए एक क्रियाशील यन्त्र कहा जा सकता है।

इरीन ओपनहीम के अनुसार
“व्यवस्थापन प्रक्रिया वह तरीका है जिसमें निर्णयों को क्रिया में परिवर्तित किया जाता है”।

एक अन्य परिभाषा के अनुसार
गृह व्यवस्था एक व्यवहारिक विज्ञान है जिसे अन्य व्यवहारिक विज्ञान के समान नापा नहीं जा सकता। किन्तु यदि कोई व्यक्ति अपने लक्ष्यों द्वारा किसी सीमा तक सन्तुष्टि प्राप्त कर लेता है तो वह अच्छा व्यवस्थापक माना जा सकता है और उसका घर व्यवस्थित माना जा सकता है।

गृह प्रबन्ध प्रक्रिया के अध्ययन के उपरान्त हम प्रबन्ध की प्रकृति (Nature) और क्रिया (Action) को भली भांति समझकर यथास्थिति में संशोधन करने में सक्षम हो सकेंगे और व्यवहारिक जीवन में इच्छित लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए समय पर स्थिति को नियंत्रित कर सकेंगे।

अभी आपने विभिन्न विद्वानों द्वारा दी गई गृह प्रबन्ध प्रक्रिया की परिभाषाओं के बारे में जाना। आपने देखा कि प्रबन्ध प्रक्रिया कई चरणों में सम्पन्न की जाती है। ये प्रमुख चरण क्या हैं? आइए इनके विषय में विस्तार पूर्वक समझें।

गृह प्रबन्ध के घटक /चरण

विभिन्न विद्वानों ने गृह प्रबन्ध प्रक्रिया के विभिन्न चरण बताए हैं।
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न्यूमैन के अनुसार:- प्रबन्ध प्रक्रिया के पाँच मुख्य चरण हैं।
  • आयोजन
  • संगठन
  • साधनों का एकीकरण
  • निर्देशन
  • नियन्त्रण

लिचफिल्ड के अनुसार:- प्रबन्ध प्रक्रिया क्रियाओं का चक्र है और इसके निम्न पाँच चरण हैं।
  • विचारों को ग्रहण करना तथा अवलोकन करना।
  • अवलोकन का निरीक्षण।
  • निर्णय प्रक्रिया।
  • क्रिया।
  • क्रिया हेतु उत्तरदायित्व स्वीकार करना।

कोटिजन के अनुसार:- कोटिजन के अनुसार प्रबन्ध प्रक्रिया के चार चरण निम्नवत हैं
  • उद्देश्यों की प्राप्ति हेतु आयोजन।
  • संपादन हेतु संगठन।
  • योजना का क्रियान्वयन।
  • मूल्यांकन।

आपने देखा कि विभिन्न विद्वानों द्वारा सुझाये गए प्रबन्ध के चरणों का अपना महत्व है परन्तु अध्ययन की सुविधा एवं व्यवहारिकता की दृष्टि से गृह प्रबन्ध प्रक्रिया को मुख्यतया तीन चरणों में विभाजित किया गया है।
  • आयोजन/नियोजन योजना बनाना (Planning)
  • नियंत्रण (Controlling)
  • मूल्यांकन (Evaluation)
आइए इन घटकों के विषय में विस्तार पूर्वक समझें।

नियोजन /आयोजन/योजना बनाना
यह प्रबन्ध प्रक्रिया रूपी सीढ़ी का प्रथम चरण है। यह प्रबन्ध प्रक्रिया का एक महत्वपूर्ण घटक है। नियोजन के अभाव में प्रबन्ध आधारहीन है। नियोजन अथवा योजना बनाना वास्तव में क्या है?
आइए इसे समझें।
नियोजन का शाब्दिक अर्थ है, “वांछित उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए पूर्व में ही कार्यक्रम की रूपरेखा तैयार करना"।
नियोजन को प्रबन्ध प्रक्रिया में सर्वाधिक महत्व दिए जाने का कारण यह है कि इसे कार्य के आरम्भ होने से पूर्व ही अवलोकित कर लिया जाता है जिससे कार्य एवं लक्ष्य सरल प्रतीत होते हैं। योजना बना लेने से कठिन से कठिन कार्य भी बोझिल प्रतीत नहीं होता है क्योंकि संबंधित कार्य की योजना बना लेने से प्रबन्ध प्रक्रिया में आने वाली समस्याओं का पूर्व निराकरण भी साथ-साथ कर दिया जाता है। किसी कार्य को संपादित करने में कौन -कौन सी सम्भावित समस्याएं या प्रश्न उठ खड़े होंगे, इसका उत्तर भी नियोजन के द्वारा ही खोजा जाता है।
कार्य किसी भी क्षेत्र में हो, चाहे व्यवसायिक अथवा घरेलू, बिना नियोजन सभी कार्य अस्त व्यस्त होते हैं। योजना बना लेने (या नियोजन करने) का एक यह अन्य लाभ यह भी है कि इसमें वास्तविक स्थिति का पूर्वानुमान लगा लिया जाता है जिससे समय, धन, शक्ति एवं प्रयत्नों का अपव्यय नहीं होता है।
 
नियोजन की परिभाषा:- (निकिल एवं डार्सी के अनुसार)
नियोजन प्रबन्ध प्रक्रिया का पहला चरण है। इसके अन्तर्गत निर्णयों की एक विस्तृत श्रेणी होती है जो कि पारिवारिक क्रियाओं, साधनों और मांगों के सन्दर्भ में लिए जाते हैं।

नियोजन की विशेषताएँ
नियोजन की निम्न विशेषताएँ हैं
  • नियोजन एक निरन्तर चलने वाली मानसिक प्रक्रिया है।
  • यह एक लोचमय (flexible) एवं परिवर्तनशील प्रक्रिया है।
  • नियोजन सदैव कार्य करने से पूर्व किया जाता है।
  • नियोजन एक वैज्ञानिक पद्वति है जो एक क्रमबद्ध रूप से संपन्न की जाती है।
  • नियोजन का आधार लक्ष्यों एवं उद्देश्यों की पूर्ति करना है।
  • नियोजन प्रक्रिया में विभिन्न विकल्पों में से सर्वोतम विकल्प का चयन किया जाता है।
  • नियोजन की सफलता के लिए उसका व्यवहारिक होना अत्यंत आवश्यक है।
  • नियोजन पर्वानमानों पर आधारित एक प्रक्रिया है जिसमें कार्य को सनियोजित तरीके से पूर्ण करने हेतु संसाधनों को संगठित किया जाता है।
आपने देखा कि नियोजन एक मानसिक प्रक्रिया है। इसमें निर्णयों और संसाधनों को संगठित अथवा एकीकृत कर निर्णय लेना एवं लक्ष्यों की प्राथमिकता तय करना सम्मिलित है जो कि नियोजन प्रक्रिया द्वारा ही संभव है। पारिवारिक संसाधनों एवं उनकी विशेषताओं का अध्ययन हम आने वाले अध्यायों में करेंगे। चूंकि संसाधन सीमित होते हैं और उनकी मांग पारिवारिक चक्र के साथ बदलती रहती है, इसलिए यह आवश्यक है कि साधनों को बदलती मांगों के अनुसार व्यवस्थित किया जाए।

नियोजन की आवश्यकता एवं महत्व
नियोजन वास्तव में एक पुल का कार्य करता है जो व्यक्ति के वर्तमान में उपलब्ध संसाधनों के आधार पर उसके भविष्य की अवश्यकताओं की पूर्ति को निर्धारित करता है।
आपने दैनिक जीवन में अनुभव किया होगा कि प्रत्येक व्यक्ति छोटे या बड़े लक्ष्यों को निर्धारित करता है। इन लक्ष्यों को कैसे प्राप्त किया जाए, यही नियोजन का कार्य है। आज प्रत्येक क्षेत्र में योजनाएं बनाई जाती हैं, बिना योजना के कार्य आधारहीन और हास्यास्पद प्रतीत होता है। आज के युग में कोई भी राष्ट्र योजना के अभाव में लक्ष्य प्राप्त नहीं कर सकता है। योजना बनाने में समय और प्रयत्न अवश्य लगते हैं परन्तु यही योजना आपको सरल, स्पष्ट एवं सुसंगत प्रकार से लक्ष्यों तक पहुँचाने में सहायक होती है। योजना के अभाव में भी लक्ष्यों को प्राप्त किया जा सकता है परन्तु इस प्रकार से प्राप्त लक्ष्यों में गुणवत्ता और संसाधनों का अपव्यय न हो, यह निश्चित रूप से कहा नहीं जा सकता है। जब आप किसी कार्य के लिए योजना बनाते हैं तो आप उस कार्य की प्रगति को देखकर उसका विश्लेषण कर सकते हैं तथा आवश्यकता पड़ने पर उसमें आवश्यक परिवर्तन भी कर सकते हैं। योजना आपको मानसिक रूप से भी मजबूत बनाती है। योजना संबंधी अनुभवों से आप जीवन में आने वाली चुनौतियों का डटकर सामना कर सकते हैं।

नियोजन के प्रकार
नियोजन मुख्यतः दो प्रकार के होते हैं; दीर्घकालीन एवं अल्पकालीन। दीर्घकालीन नियोजन लम्बे समय के लिए बनाए जाते हैं। दीर्घकालीन नियोजन को पूर्ण करने के लिए अल्पकालीन नियोजन भी किए जाते हैं। भारत में सरकार द्वारा चलाई जा रही पंचवर्षीय योजनाएँ दीर्घाकालीन नियोजन का उदाहरण हैं। अल्पकालीन नियोजन कम समय के लिए किए जाते हैं तथा यह अधिक स्पष्ट होते हैं।
नियोजन के मुख्य चरण निम्नलिखित हैं-
  • भविष्यवाणी करना।
  • समस्या को परिभाषित करना।
  • विकल्पों को खोजना।
  • सर्वोत्तम विकल्प का चुनाव।
  • उत्तरदायित्व लेना।
  • कार्यक्रम की रूपरेखा बनाना।
  • समय अनूसूची।
  • बजट बनाना।
  • क्रियाविधि विकसित करना।
  • नीति का विकास करना।

नियोजन की सीमाएं
भविष्य में होने वाली घटनाएं अनिश्चित होती हैं। ऐसे में नियोजन या पूर्वानुमान लगा कर योजना बनाना कई व्यक्तियों को हास्यास्पद लगता है। परन्तु अनिश्चितता के परिप्रेक्ष्य में कार्य को क्रमबद्व तरीके से न कर भाग्य पर छोड़ देना मूर्खता पूर्ण होता है। अब तक आपने योजना बनाने से होने वाले लाभों के विषय में पढ़ा। आइए अब नियोजन की सीमाओं के विषय में जानें ताकि प्रबन्ध प्रक्रिया को सरलीकृत किया जा सके।
नियोजन की सीमाओं को निम्न चित्र द्वारा भली-भाँति समझा जा सकता है।
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नियोजन करते समय ध्यान रखने योग्य बातें
किसी भी कार्य की योजना बनाने से पहले कुछ महत्वपूर्ण बिंदुओं को ध्यान में रखना चाहिए। ये बिंदु निम्नवत हैं:-
  • योजना खण्डों/भागों में न हो।
  • योजना परिवार में उपलब्ध संसाधनों के अनकल हो।
  • योजना व्यवहारिक हो।
  • योजना बनाकर पूर्व अर्जित अनुभवों का लाभ उठाया जा सके।
अब हम गह प्रबन्ध प्रक्रिया के अगले चरण, नियंत्रण के बारे में जानेंगे।

नियंत्रण
व्यवस्थापन प्रक्रिया के क्रियान्वयन में द्वितीय महत्वपूर्ण चरण “नियंत्रण” कहलाता है। नियंत्रण वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा कार्यों को योजना के अनुरूप निष्पादित किया जाता है। विभिन्न परिवेशों में नियंत्रण का अर्थ भिन्न हो सकता है। परन्तु गृह प्रबन्ध में नियंत्रण का तात्पर्य है कि कार्य योजना के
अनुरूप हो रहा है अथवा नहीं? यदि नहीं तो कहाँ पर परिवर्तन एवं सुधार की आवश्यकता है? योजना में परिवर्तन कर कार्य को सही समय पर पूर्ण करना ही नियंत्रण कहलाता है।

नियंत्रण की परिभाषाएँ
विभिन्न विद्वानों द्वारा नियंत्रण की परिभाषाएँ दी गई हैं।

कुण्टज एवं आडोनल के अनुसार
“नियंत्रण का व्यवस्थापन में कार्य होता है कि सहायकों के कार्यों को माप द्वारा ठीक करके सम्पादन किया जाए ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि उद्देश्य प्राप्त करने के लिए बनाई गयी योजना के अनुसार कार्य हो रहा है। 

निकिल एवं डार्सी के अनुसार
“नियंत्रण एक ऐसे यन्त्र के समान है जो कि योजना को इच्छित परिणाम तक पहुंचने हेतु दिशा प्रदान करती है।

नियंत्रण की विशेषताएँ
नियंत्रण प्रक्रिया की कुछ विशिष्ट विशेषताएँ होती हैं। आइए इन्हें जानें।
  • नियंत्रण एक प्रबन्धकीय प्रक्रिया है।
  • नियंत्रण एक सतत् रूप से चलने वाली प्रक्रिया है।
  • नियंत्रण तथ्यों पर आधरित है।
  • नियंत्रण एक संपूर्ण पद्धति है।
  • नियंत्रण सकारात्मक एवं नकारात्मक दोनों प्रकार का होता है।
  • नियंत्रण प्रबन्ध प्रक्रिया के सभी स्तरों पर लागू होता है।
  • नियंत्रण का क्षेत्र व्यापक होता है।

नियंत्रण की अवस्थाएँ
ग्रास एवं क्रेण्डल के अनुसार नियंत्रण की तीन अवस्थाएँ निम्नवत हैं-

बल देना /क्रियान्वयन को शक्ति प्रदान करना।
इस अवस्था से किसी भी कार्य को शुरु करने की बाद उसे सम्पन्न कराने पर बल दिया जाता है। यह अवस्था लक्ष्यों को तीव्र गति से प्राप्त करने तथा क्रियान्वयन की गति तेज करने हेतु उत्तरदायी है।

निरीक्षण
योजना के क्रियान्वयन के नियन्त्रण की दूसरी अवस्था योजना की प्रगति का निरीक्षण है। किसी भी कार्य के निरीक्षण द्वारा हम यह जान पाते हैं कि कार्य सुचारु रूप से तथा योजना के अनुसार हो रहा है या नहीं। वांछित लक्ष्यों की प्राप्ति हेतु कार्य का निरीक्षण आवश्यक है।

समायोजन
नियंत्रण की तीसरी अवस्था का अर्थ है आवश्यकता पड़ने पर योजना को समायोजित करना अर्थात नए निर्णय लेना। समायोजन से कार्य की पूर्व निर्धारित योजना में आकस्मिक बदलावों के कारण लक्ष्य प्राप्ति पर पड़ने वाले प्रभावों को कम किया जा सकता है।

सफल /सकारात्मक नियंत्रण के कारक
कार्य की योजना के कार्यान्वयन का सफल नियंत्रण कई कारकों पर निर्भर करता है। आइए इनके बारे में जानें।
  • निरीक्षण में तत्परता होना आवश्यक है ताकि समायोजन करने में सरलता हो।
  • गृह प्रबन्ध के परिप्रेक्ष्य में भावनात्मक पहलुओं को ध्यान में रखकर नियंत्रण यथा संभव तटस्थ भाव से किया जाना चाहिए।
  • नियंत्रण करते समय संसाधनों की वस्तु स्थिति को सदैव ध्यान में रखना चाहिए।
  • व्यक्तिगत लक्ष्यों और इच्छाओं के स्थान पर सामूहिक/पारिवारिक हितों का ध्यान रखा जाना चाहिए। 
  • सफल नियंत्रण हेतु लोचमयता भी आवश्यक है।
  • नियंत्रण को सफल बनाने हेतु आवश्यक सूचनायें भी अवश्य एकत्रित करनी चाहिए। संबधित योजना/प्रक्रिया की जानकारी इंटरनैट, मोबाइल ऐप्स, सामाचार पत्रों, पत्रिकाओं आदि से प्राप्त की जा सकती है।
आइए, अब व्यवस्थापन प्रक्रिया के क्रियान्वयन के तृतीय चरण, मूल्यांकन के बारे में चर्चा करें।

मूल्यांकन 
अब तक आपने प्रबन्ध प्रक्रिया के दो महत्वपूर्ण चरणों, आयोजन एवं नियंत्रण के विषय में पढ़ा। इकाई के अन्त में हम प्रबन्ध प्रक्रिया के अन्तिम एवं अति महत्वपूर्ण चरण मूल्यांकन पर ध्यान केन्द्रित करेंगे।
मूल्यांकन द्वारा हमें यह ज्ञात होता है कि किए गए कार्य में हम सफल हुए हैं या नहीं, यदि नहीं तो कहाँ-कहाँ पर हमें सुधार करने की आवश्यकता है।
ग्रॉस एवं क्रेण्डल के अनुसार मूल्यांकन वह तकनीक है जो किसी व्यक्ति के पास उपलब्ध संसाधनों के परिणाम द्वारा अधिकतम सन्तोष प्राप्त कराने में सहायक है। मूल्यांकन से आप भली भांति परिचित हैं। एक विद्यार्थी के रूप में आपका परीक्षा, प्रयोगात्मक परीक्षा, मौखिक परीक्षा, सेमिनार इत्यादि के द्वारा समय-समय पर मूल्यांकन किया जाता है। मूल्यांकन द्वारा प्राप्त अंकों से पढ़ाए गए
विषय के प्रति आपकी समझ तथा जानकारी का पता चलता है। परन्तु व्यवहार में मूल्यांकन के क्या उद्देश्य हैं, आइए यह जानने का प्रयास करें।

मूल्यांकन के उददेश्य
  • मूल्यांकन द्वारा यह जाना जा सकता है कि योजना बना लेने के बाद उसके क्रियान्वयन द्वारा पूर्व निर्धारित लक्ष्यों की कहां तक प्राप्ति हुई है।
  • मूल्यांकन से प्राप्त अनुभवों से भावी जीवन में किसी कार्य को आरम्भ करने का आधार मिलता है।
  • मूल्यांकन द्वारा यह पता चलता है कि प्रबन्ध प्रक्रिया के किस स्तर पर गलती हुई है और भविष्य में इससे कैसे बचा जा सकता है।
  • मूल्यांकन द्वारा आत्म विश्लेषण के अवसर प्राप्त होते हैं। यदि मूल्यांकन के परिणामों को सकारात्मक दृष्टि से देखा जाए तो यह व्यक्तित्व विकास में मार्गदर्शक की भूमिका निभाते हैं।

मूल्यांकन के प्रकार
मूल्यांकन के निम्न प्रकार हैं-

औचक मूल्यांकन
यह मूल्यांकन आकस्मिक रूप से किया जाता है। यह वस्तुतिथि को सर्वाधिक उचित रूप में मूल्यांकनकर्ता के सम्मुख प्रस्तुत करता है। औचक मूल्यांकन से कम समय में अधिक सूचनायें पता चल जाती हैं। उदाहरण के लिए कक्षा में विद्यार्थियों की औचक परीक्षा, सरकारी विभागों में संबंधित उच्चाधिकारियों का औचक निरीक्षण आदि।

विस्तृत मूल्यांकन
विस्तृत मूल्यांकन में समय की बाधा नहीं होती। इसमें मूल्यांकनकर्ता प्रत्येक स्थिति और परिणाम का गहराई से अध्ययन करता है तथा समस्या होने पर उसके निराकरण के विषय में भी सोचता है।
औचक मूल्यांकन एवं विस्तृत मूल्यांकन, औपचारिक रूप से किए जाने वाले मूल्यांकनों की श्रेणी में आते हैं। व्यवहारिक जीवन और गृह प्रबन्ध के संबंध में जिस मूल्यांकन की सबसे ज्यादा बात की जाती है, वह है आत्म मूल्यांकन। आत्म मूल्यांकन क्या है, यह किस प्रकार किया जाता है तथा इसका क्या महत्व है, आइए जानें।
स्वयं के द्वारा किए गए कार्यों के निरीक्षण को आत्म मूल्यांकन कहते हैं। स्वयं द्वारा किए गए कार्यों की तुलना स्वयं से की गई अपेक्षा के साथ करने पर आत्म मूल्यांकन किया जा सकता है। चर्चा करके, डायरी में लिखकर, स्वयं से प्रश्न पूछकर इस प्रकार के मूल्यांकन किए जाते हैं। आत्म मूल्यांकन का महत्व यह है कि इससे व्यक्ति सुधारों की ओर बढ़ता है और अपनी कार्यशैली को और अधिक प्रभावशाली बनाता है। मूल्यांकन का मौलिक आधार मूल्य, लक्ष्य एवं स्तर होते हैं जिनका विस्तार पूर्वक अध्ययन हम आगे आने वाली इकाईयों में करेंगे। 
अगले भाग में हम गृह प्रबन्ध के महत्व के बारे में जानेंगे परन्तु उससे पूर्व आइए कुछ अभ्यास प्रश्नों को हल करने का प्रयास करें।

गृह प्रबन्ध का महत्व

आप जानते हैं कि परिवार समाज का अभिन्न अंग है। परिवार के विकास से समाज का और समाज के विकास से राष्ट्र का विकास होता है। कुशल और अच्छा प्रबंधक सुदृढ़ परिवार की आधार शिला है। बिना प्रबन्ध के उत्पादन के साधन केवल साधन मात्र ही रह जाते हैं।
एक परिवार में लक्ष्य निर्धारण के उपरान्त व्यवस्थापन प्रक्रिया के चरण आयोजन, नियंत्रण एवं मूल्यांकन सदैव गतिमान रहते हैं। एक समय में एक से अधिक लक्ष्यों की प्राप्ति भी कई बार परिवारों की आवश्यकता बन जाती है जिनके लिए व्यवस्थापन प्रक्रिया सदैव चलायमान रहती है। इस प्रक्रिया को आप निम्न चित्र द्वारा अच्छी तरह समझ सकते हैं।
grah prabandh
आपने देखा कि गृह प्रबन्ध में यह चक्र निरन्तर चलता रहता है। जहां प्रबन्ध है वहां व्यवस्था, कुशलता, चातुर्य, दक्षता, अनुशासन, निर्माण कार्य एवं सौन्दर्य के दर्शन होते हैं। प्रबन्ध के अभाव में अव्यवस्था, कुशासन, अकुशलता, द्वेष, कलह, अशान्ति एवं अपव्यय ही दृष्टिगोचर होता है।

गृह प्रबन्ध में निर्णय प्रक्रिया

निर्णय प्रक्रिया तथा गृह व्यवस्था एक दूसरे से संबंधित हैं। पारिवारिक जीवन में निरन्तर चुनौतियाँ आती रहती हैं। इन समस्याओं के समाधान के लिए आवश्यक है कि यथा समय उचित निर्णय लेकर क्रियान्वयन किया जाए। प्रबन्धन एक प्रक्रिया है जिसके तीन मुख्य चरण आयोजन, नियन्त्रण एवं मूल्यांकन हैं। इन प्रत्येक चरणों में निर्णय लेने पड़ते हैं। भूतकाल में लिया गया निर्णय वर्तमान एवं भविष्य का आधार बनता है। गृह व्यवस्था में ही नहीं अपितु दैनिक जीवन के मूल्यों (जिनका अध्ययन आप आने वाली इकाईयों में करेंगे) के निर्माण में भी निर्णय महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। निर्णय के अभाव में किसी भी व्यवस्था का क्रियान्वयन हो पाना असंभव है। सामान्य शब्दों में निर्णय प्रक्रिया का अर्थ सर्वोत्तम का चयन करना है। समस्त उपलब्ध विकल्पों में से समस्या के अनुकूल सर्वोत्तम विकल्प का चयन ही निर्णय है। निर्णय लेना तभी संभव हो पाता है, जब आपके पास एक से अधिक विकल्प हों। यदि विकल्प उपलब्ध न हों तो निर्णय का कोई औचित्य नहीं रह जाता है।
निर्णय प्रक्रिया को विभिन्न विद्वानों ने भिन्न-भिन्न प्रकार से परिभाषित किया है।

ब्रेटन के अनुसार
“निर्णय प्रक्रिया गृह व्यवस्था की सबसे छोटी इकाई है तथा यह भौतिक विज्ञान के अणु के समान है।

ग्रॉस एवं क्रेण्डल के अनुसार
“प्रबन्ध प्रक्रिया के विभिन्न चरण वस्तुतः निर्णयों की श्रृंखला मात्र हैं, जिसमें प्रत्येक निर्णय अन्तिम निर्णय पर आधारित होते हैं।

निकिल एवं डार्सी के अनुसार
निर्णय प्रक्रिया की धारणा में समस्याओं को परिभाषित करना, खोज करना, तुलना करना और क्रिया विधि का चयन करना सम्मिलित है। इस प्रकार निर्णय प्रक्रिया में किसी समस्या के हल के लिए अनेक संभावित विकल्पों में से किसी एक का चयन सम्मिलित है।"

निर्णय प्रक्रिया की विशेषताएँ
  • निर्णय प्रक्रिया एक सतत् चलने वाली प्रक्रिया है।
  • निर्णय प्रक्रिया एक मानसिक प्रक्रिया है।
  • निर्णय व्यक्तिगत एवं सामहिक हो सकते हैं।
  • निर्णय प्रक्रिया में समय सीमा, वचनबद्धता और दृढ़ता का विशेष महत्व है।
  • निर्णय लेना लक्ष्य प्राप्ति के कई साधनों में से एक है।
  • निर्णय किसी न किसी उददेश्य की पूर्ति हेतु लिए जाते हैं।
  • निर्णय सदैव सकारात्मक नहीं होते हैं।
  • निर्णय प्रबन्धक की योग्यता का एक मापदण्ड है।

निर्णय प्रक्रिया के प्रमख चरण
सामान्यतया निर्णय लेना एक जटिल मानसिक प्रक्रिया है। इसमें समस्या, परिस्थिति, समाधान एवं विकल्पों के प्रत्येक पहलू का विश्लेषण किया जाता है।
  • ग्रास एवं क्रेण्डल के अनुसार निर्णय प्रक्रिया के प्रमुख चरण निम्नवत हैं-
  • समस्या को चिन्हित करना।
  • समस्या का विश्लेषण करना।
  • समस्त संभावित विकल्पों को खोजना।
  • विकल्पों का विश्लेषण।
  • सर्वोत्तम विकल्प का चयन।
  • निर्णय का उत्तरदायित्व लेना।
  • निर्णयों का क्रियान्वयन।

निर्णय प्रक्रिया को प्रभावित करने वाले कारक
निर्णय की स्थिरताः एक बार अन्तिम निर्णय लेने एवं उसके क्रियान्वित हो जाने पर उसे परिवर्तित न किए जा सकने का आभास/ मनोवृति निर्णय प्रक्रिया को सर्वाधिक प्रभावित करती है।
समयः समय परिस्थितियों का सीधा प्रभाव निर्णय प्रक्रिया पर पड़ता है।
निर्णयों का अन्तर्सम्बन्ध: लिया गया कोई एक निर्णय दूसरे निर्णय को प्रभावित कर सकता है।
ज्ञानः किसी समस्या के समाधान के संबंध में निर्णयकर्ता को कितना ज्ञान है अथवा निर्णयकर्ता कितना जागरुक है, यह भी निर्णय प्रक्रिया को प्रभावित करता है।
मूल्य: निर्णय प्रक्रिया में मूल्य का अर्थ व्यक्ति की मान्यताओं, धारणाओं, विश्वास, आस्थाओं, परम्परा और संस्कृति से है। मूल्य को मानव जीवन का आधार कहा गया है। व्यक्ति के निर्णय मूल्यों द्वारा प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित होते हैं।
संसाधनः संसाधनों की उपलब्धता एवं अनुपलब्धता निर्णयों को प्रभावित करती है। संबंधित संसाधन निर्णयों को कठिन एवं सरल बना सकते हैं।
पारिवारिक परिस्थितियाँ: परिवार के सदस्यों की इच्छाएं, आकांक्षाएं भी व्यक्तिगत तथा पारिवारिक निर्णयों को प्रभावित करती हैं।

सारांश

सुदृढ़ गृह व्यवस्था न केवल पारिवारिक जीवन के लिए आवश्यक है अपितु यह किसी भी उन्नत समाज एवं राष्ट्र का आधार है। गृह व्यवस्था एक निरन्तर चलने वाली गतिशील प्रक्रिया है। उपलब्ध संसाधनों से निर्धारित लक्ष्यों को किस प्रकार प्राप्त किया जाता है यह कुशल व्यवस्थापक की निर्णय लेने की क्षमता पर निर्भर करता है। गृह प्रबन्ध का उद्देश्य सीमित संसाधनों के कुशलतम उपयोग द्वारा प्रत्येक पारिवारिक सदस्य की आवश्यकताओं की पूर्ति कर जीवन लक्ष्यों को प्राप्त करना है। प्रबन्ध प्रक्रिया के तीन मुख्य घटक आयोजन, नियंत्रण एवं मूल्यांकन हैं। किसी भी परिवार में लक्ष्य निर्धारण के उपरान्त व्यवस्थापन प्रक्रिया के ये तीनों चरण सदैव गतिमान रहते हैं। इन तीनों चरणों में गह व्यवस्थापक को निर्णय लेने होते हैं। निर्णय प्रक्रिया तथा गृह व्यवस्था एक दूसरे से संबंधित हैं। पारिवारिक जीवन में निरन्तर आने वाली समस्याओं के समाधान के लिए आवश्यक है कि यथा समय उचित निर्णय लेकर प्रबंध प्रक्रिया को सरल तथा प्रभावी बनाया जाए।

पारिभाषिक शब्दावली
  • प्रबन्ध : किसी भी इच्छित लक्ष्य की प्राप्ति हेतु सुनियोजित प्रकार से किया गया कार्य।
  • नियोजन : वांछित उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए पूर्व में ही कार्यक्रम की रूपरेखा तैयार करना।
  • नियंत्रण : वह प्रक्रिया जिसके द्वारा कार्यों को योजना के अनुरूप निष्पादित किया जाता है।
  • औचक मूल्यांकन : आकस्मिक रूप से किया गया मूल्यांकन।
  • आत्म मूल्यांकन : स्वयं द्वारा किए गए कार्यों की तुलना स्वयं से की गई अपेक्षा के साथ करने पर किया गया मूल्यांकन।

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