न्याय क्या है, न्याय की परिभाषा, स्वरूप, विशेषताएँ | nyaay kise kahate hain

न्याय

'न्याय' एक ऐसा बुनियादी सिद्धान्त है जिस पर शुरू से ही विचार होता आया है। न्याय का सम्बन्ध केवल राजनीति से न होकर धर्म व दर्शनशास्त्र से भी है। भारतीय चिन्तन में 'न्याय' को 'धर्म' का पर्यायवाची माना गया है। यूनानी विचारक प्लेटो के मतानुसार न्याय की संस्थापना तब होती है जब समाज के विभिन्न वर्ग-शासक वर्ग, सैनिक वर्ग तथा श्रमजीवी- अपने निर्धारित कर्तव्यों का पालन करते हैं। वास्तव में, सामाजिक सम्बन्धों में सन्तुलन और सामंजस्य बनाये रखने के लिए ही न्याय की आवश्यकता होती है।
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राज्य का एक अत्यन्त महत्वपूर्ण लक्ष्य न्याय की स्थापना है। प्रायः दो बातों को सभी बिना विवाद के स्वीकार कर लेते हैं- एक यह कि सरकार जो भी कार्य करे या जो कानून बनाये, वे न्यायसंगत होने चाहिए और दूसरे, न्यायिक संस्थाएँ अर्थात् अदालतें सभी मुकदमों का निर्णय निष्पक्षतापूर्ण दें। इन बातों पर सहमति के बावजूद 'न्याय' की परिभाषा करना सरल कार्य नहीं है। उदारवादी, मार्क्सवादी, रूढ़िवादी और सुधारवादी, ये सभी विचारक पृथक्-पृथक् ढंग से न्याय की व्याख्या करते हैं। विचारणीय बात यह है कि बड़े से बड़ा अन्यायी शासक भी न्याय की दुहाई देता है और ऐसे सिद्धान्तों का उल्लेख करता है जो उसके आचरण से बिल्कुल मेल नहीं खाते।

न्याय की परिभाषा एवं स्वरूप

न्याय की परिभाषा ( Definition of Justice)
'न्याय' एक अत्यन्त जटिल अवधारणा है। उससे कानूनी स्थिति, राजनीति, समाजनीति और अर्थनीति, इन चारों का बोध होता है। इसके अतिरिक्त, नैतिकता व सदाचार सम्बन्धी सिद्धान्त भी उसी के अन्तर्गत आ जाते हैं। इसीलिए न्याय की परिभाषा करना सरल कार्य नहीं है। अंग्रेजी भाषा में 'न्याय' के लिए ‘Justice’ शब्द का प्रयोग किया जाता है। यह शब्द लैटिन भाषा के शब्द 'Jus' से बना है जिसका अर्थ उसी भाषा में 'बन्धन या बाँधना' (Bond or Tie) है। इसका आशय यह है कि 'जस्टिस' उस व्यवस्था का नाम है जिसके द्वारा एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति से सम्बद्ध है। 'समाज' सामाजिक बन्धनों का ही एक दूसरा नाम है।
समाज में बच्चे हैं, माता-पिता हैं, विद्यार्थी हैं, शिक्षक हैं, कर्मचारी हैं, मालिक हैं, कृषक हैं, मजदूर हैं और साधारण नागरिक हैं। इन सबके अपने-अपने अधिकार हैं और एक-दूसरे के प्रति इनके कुछ कर्तव्य भी हैं। 'न्याय' का तकाजा है कि यह सभी अपनी-अपनी सीमाओं में रहें। समाज में जितने मनुष्य रहते हैं, उनमें से प्रत्येक को उसका उचित 'अधिकार व स्थान' (Due Place) दिलाने वाली व्यवस्था को ही न्यायपूर्ण व्यवस्था माना जाता है। आधुनिक विद्वानों द्वारा न्याय की जो परिभाषाएँ दी गयी हैं, उनमें से कुछ महत्वपूर्ण परिभाषाएँ निम्नांकित हैं-
  1. रॉबर्ट टकर (Robert C. Tucker) के मतानुसार, "न्याय का अर्थ है कि जब दो पक्षों या दो सिद्धान्तों के बीच संघर्ष हो तो उसका समाधान इस तरह से किया जाये कि किसी भी पक्ष के उचित अधिकारों का हनन न हो।
  2. बैन तथा पीटर्स (Benn and Peters) के शब्दों में, “न्यायपूर्वक कार्य करने का अर्थ यह है कि जब तक भेदभाव किये जाने का कोई उचित कारण न हो, तब तक सभी व्यक्तियों से एक-सा व्यवहार किया जाये।" समाज के उन लोगों को जो अपंग अथवा अंधे हैं, कुछ विशेष छूट या रियायतें दी जाती हैं। इस तरह के भेदभाव को हम 'अन्याय' नहीं मानेंगे।
  3. मैरियम (Merriam) के शब्दों में, “न्याय उन मान्यताओं और प्रक्रियाओं का योग है जिनके माध्यम से प्रत्येक मनुष्य को वे सभी अधिकार व सुविधाएँ जुटाई जाती हैं जिन्हेंसमाज उचित मानता है।" मैरियम की परिभाषा तीन मुख्य बातों पर प्रकाश डालती है-
प्रथम, न्याय का सम्बन्ध मान्यताओं और विचारों (Understandings) से है। प्रत्येक युग और प्रत्येक समाज में न्याय-अन्याय तथा उचित-अनुचित सम्बन्धी धारणाएँ विद्यमान रही हैं। समय और परिस्थितियों के अनुसार न्याय की अवधारणा में भी परिवर्तन हुए हैं। जिस युग में दास प्रथा को उचित माना जाता था, उन दिनों दासों का क्रय-विक्रय पूर्णतया एक न्याय संगत व्यवस्था थी किन्तु आज वह न्यायसंगत नहीं है।

द्वितीय, न्याय का सम्बन्ध 'प्रक्रियाओं' (Procedures) से भी है। प्रक्रियाओं से यहाँ आशय कानूनों व अदालतों से है। समाज की मान्यताएँ कानूनों के रूप में प्रकट होती हैं। देश का संविधान तथा फौजदारी व दीवानी कानून हमारी मान्यताओं और आवश्यकताओं को ही प्रकट करते हैं। अदालतें कानूनों की व्याख्या करती हैं। इसके अतिरिक्त, वे उचित-अनुचित तथा दोष-निर्दोषिता का निर्णय भी करती हैं। अतएव कानून, अदालतें व न्यायिक प्रक्रियाएँ 'न्याय' का एक महत्वपूर्ण अंग हैं।

तृतीय, अधिकार और सुविधाएँ सापेक्ष हैं अर्थात् उनके विषय में भिन्न-भिन्न मनुष्यों तथा भिन्न-भिन्न समाजों की भिन्न-भिन्न धारणाएँ होती हैं। सुविधा की दृष्टि से हम यहाँ समाज को राज्य मान लेते हैं। राज्य के अन्तर्गत निवास करने वाले लोगों के पृथक्-पृथक् जीवन-मूल्य अथवा सिद्धान्त होते हैं। कुछ लोग स्वतन्त्रता को अधिक महत्व देते हैं, कुछ समानता को; कुछ लोग उदारवादी विचारों के हैं और कुछ लोग मार्क्सवादी विचारों को मानते हैं। कुछ लोग स्वभाव से रूढ़िवादी हैं और कुछ क्रान्तिकारी हैं। इससे स्पष्ट है कि न्याय के सम्बन्ध में इन लोगों की पृथक्-पृथक् धारणाएँ होंगी किन्तु अधिकांश लोगों की जो धारणाएँ होती हैं, व्यावहारिक दृष्टि से वही उस समाज में 'न्याय' के स्वरूप को निर्धारित करती हैं। इसीलिए मैरियम ने यह कहा है कि “प्रत्येक मनुष्य को वे अधिकार व सुविधाएँ जुटाई जाती हैं जिन्हें समाज उचित मानता हो ।”

न्याय का स्वरूप अथवा विशेषताएँ

मैरियम की परिभाषा न्याय के स्वरूप व प्रकृति को भली प्रकार स्पष्ट कर देती है, फिर भी इस सम्बन्ध में जो मुख्य बातें हैं, उनकी पृथक् से विवेचना निम्नानुसार की जा सकती है-
  1. मानवीय व्यवहार के सन्दर्भ में ही न्याय का प्रश्न उठता है - न्याय के सम्बन्ध में पहली महत्वपूर्ण बात यह है कि न्याय-अन्याय अथवा पक्षपात व निष्पक्षता का प्रश्न केवल मानवीय व्यवहार के सन्दर्भ में ही उठता है। डी. डी. रफेल कहते हैं कि मांसाहारी व्यक्ति बैल या भैंस को तो अपना आहार मानते हैं, घोड़ों को नहीं किन्तु इस आधार पर कोई व्यक्ति यह नहीं कहता है कि बैल या भैंस के साथ अन्याय हो रहा है। इसका आशय यह है कि न्याय-अन्याय के पीछे मूल भावना यही है कि मनुष्यों के साथ किस प्रकार का व्यवहार किया जाता है।
  2. न्याय की कसौटी है- 'निष्पक्षता' - न्याय का आशय है कि मनुष्य-मनुष्य के बीच किसी प्रकार का भेदभाव न किया जाये। दूसरे शब्दों में, किसी भी व्यक्ति के साथ केवल धर्म, वंश, जाति, लिंग व जन्म-स्थान के आधार पर कोई पक्षपात न किया जाये। इन आधारों पर कोई भी नागरिक किन्हीं अधिकारों या सुविधाओं से वंचित नहीं किया जा सकता। प्रशासकों और न्यायाधीशों को प्रायः यह परामर्श दिया जाता है कि “निष्पक्षता से कार्य करो, असंगत और अनुचित बातों पर ध्यान न दो, अपने निर्णय अथवा निश्चय को मित्रता, शत्रुता, भय, लालच और महत्वाकांक्षा से प्रभावित न होने दो।"
  3. न्याय का यह अर्थ नहीं है कि किसी भी प्रकार का भेद- भाव न हो - प्राय: यह कहा जाता है कि जन्म, जाति, रंग, लिंग, धर्म या सम्पत्ति के आधार पर लोगों से भेद-भाव न किया जाये। निःसन्देह भेद-भावों को दूर करना उचित ही माना जायेगा किन्तु इसका आशय यह नहीं है कि किसी न्यायसंगत आधार पर भेद-भाव नहीं किया जा सकता। उदाहरणार्थ, भारत में यदि जैन मत का कोई अनुयायी किसी माँसाहारी को अपना मकान जिसमें वह स्वयं रहता हो, किराये पर न उठाये तो उसके इस कार्य को अन्यायपूर्ण नहीं कहा जा सकता। सरकार उन लोगों को जो बहुत अधिक निर्धन और शोषित हैं, कुछ विशेष सुविधाएँ देती है। सरकार के इस कार्य को हम अन्यायपूर्ण नहीं मानेंगे।
  4. 'न्याय' व 'स्वतन्त्रता' का आपस में गहरा सम्बन्ध है- आर्नोल्ड ब्रैश्ट (Arnold Brecht) ने न्याय के आधारभूत तत्वों (Postulates of Justice) की विवेचना करते हुए स्वतन्त्रता को अत्यधिक महत्व दिया है। इसका आशय यह है कि विचार, भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता पर कठोर प्रतिबन्ध नहीं होने चाहिए। साथ ही यह भी आवश्यक है कि न्यायपालिका स्वाधीन हो, राजनीतिक दलों को स्वतन्त्रतापूर्वक कार्य करने का अवसर मिलता हो तथा किसी को भी स्वेच्छाचारी ढंग से बन्दी न बनाया जाये। उदारवादी विचारक 'व्यक्तिगत गौरव' (Personal Dignity) पर अधिक बल देते हैं तथा प्रत्येक उस कार्य को अन्यायपूर्ण मानते हैं जो व्यक्ति के अधिकारों व उसकी स्वतन्त्रताओं पर प्रतिबन्ध लगाये ।
  5. न्याय का समानता से भी सम्बन्ध है - समाजवादियों ने न्याय की व्याख्या करते हुए स्वतन्त्रता को उतना महत्व नहीं दिया है जितना समानता को दिया है। वे आय की समानता तथा अवसरों की समानता पर बहुत अधिक बल देते हैं। यह ठीक है कि आर्थिक दृष्टि से सभी को समान बना देना न तो सम्भव ही है और न न्यायसंगत ही। फिर भी, समानता के सिद्धान्त को अस्वीकार नहीं किया जा सकता। समाज में यदि भारी आर्थिक विषमताएँ होती हैं तो उसे हम 'अन्यायपूर्ण व्यवस्था' की कहेंगे। जहाँ तक 'कानून के सम्मुख समानता' (Equality before Law) का प्रश्न है, उसे तो न्याय का एक प्रधान अंग सभी मानते हैं।
  6. बन्धुता अथवा भाईचारा - प्रो. बार्कर ने बन्धुता को 'सहयोग' नाम दिया है। उसके मतानुसार भाई-चारे की भावना के बिना राष्ट्रीयता तथा देश-भक्ति की भावना पुष्ट नहीं हो सकती। न्याय का तकाजा है कि देशवासी अपने को भाई-भाई समझें। नागरिकों में यदि प्रान्तीयता, प्रदेशवाद, साम्प्रदायिकता तथा संकीर्ण धार्मिक भावनाएँ घर कर जायें तो देश में आन्तरिक विद्रोह व गृह-युद्ध की स्थिति उत्पन्न हो सकती है।
  7. प्रकृति की अनिवार्यताओं के प्रति सम्मान - प्रो. ब्रैश्ट के मतानुसार प्रत्येक व्यक्ति की अपनी कुछ सीमाएँ हैं जो प्रकृति द्वारा निर्धारित की जाती हैं। उदाहरणार्थ, एक वृद्ध व बीमार व्यक्ति वह कार्य नहीं कर सकता जो एक नौजवान या स्वस्थ व्यक्ति कर सकता है। इन लोगों को उन कर्तव्यों या दायित्वों का पालन करने के लिए विवश न किया जाये जो उनकी क्षमता से बाहर हैं। दूसरे शब्दों में, मानव की कमजोरियों को ध्यान में रखने की आवश्यकता है जो उन्हें प्रकृति से मिली हैं।
  8. न्याय का सम्बन्ध' सुनीति' से है - सुनीति (Equity) तथा समानता (Equality) ये दोनों एक ही वस्तु नहीं हैं। समानता का सिद्धान्त बराबर-बराबर वितरण (Equal Distribution) पर अधिक बल देता है, जबकि सुनीति का सिद्धान्त यह कहता है कि अधिकारों या सुविधाओं का वितरण करते समय लोगों की आवश्यकता (Need), उनकी विशेष योग्यता (Merit) और क्षमता (Capacity) पर अधिक ध्यान दिया जाना चाहिए। विश्वविद्यालय में प्रवेश के मामले को लीजिए। समानता के समर्थक यह कहेंगे कि प्रत्येक छात्र जिसने हायर सेकण्डरी या इण्टरमीडिएट कक्षा पास कर ली हो, विश्वविद्यालय में प्रवेश पाने का अधिकारी है। दूसरी ओर, सुनीति का सिद्धान्त यह कहता है कि केवल ऊँची प्रतिभा या विशिष्ट योग्यता के विद्यार्थियों को ही विश्वविद्यालय में प्रवेश मिलना चाहिए।
उपर्युक्त विवेचन के आधार पर यह कहा जा सकता है कि न्याय का सम्बन्ध एक ओर व्यक्तिगत अधिकारों की रक्षा से है तो दूसरी ओर, इसका सम्बन्ध सामाजिक व्यवस्था के संरक्षण से भी है। व्यक्ति के हित व समाज के हित प्रायः एक-दूसरे के विरोधी नहीं हो सकते। फिर भी, यदा-कदा इन दोनों के बीच टकराव हो जाता है। ऐसी स्थिति में सामाजिक हितों को प्राथमिकता दी जानी चाहिए, यद्यपि इसका यह आशय नहीं है कि समाज के नाम पर मनुष्य के व्यक्तित्व और उसके गौरव को निर्ममता से कुचल दिया जाये।

न्याय का कानूनी, राजनीतिक, सामाजिक व आर्थिक पक्ष

न्याय का सिद्धान्त बहुत जटिल और पेचीदा है। वह न केवल कानून और न्यायिक प्रक्रियाओं का ही नाम है बल्कि राजनीतिक व्यवस्था की ओर भी संकेत करता है। न्याय का सामाजिक व आर्थिक पक्ष भी है। नीचे हमने उसके विविध रूपों का विवेचन किया है।

1. न्याय का कानूनी पक्ष
जहाँ तक न्याय के कानूनी पक्ष का प्रश्न है, उसके ऊपर अनेक दृष्टिकोणों से विचार किया जा सकता है। देश के फौजदारी व दीवानी कानून, सार्वजनिक व निजी विधियाँ, न्यायिक संस्थाएँ व प्रक्रियाएँ, ये सभी न्याय के कानूनी पक्ष का ही बोध कराते हैं। आगे हम संक्षेप में इन सभी का विवेचन करेंगे।

(i) न्यायोचित कानून (Just Laws) - समाज में शांति और व्यवस्था बनाये रखने तथा नागरिकों को सच्चरित्र बनाने के लिए प्रत्येक समाज ने फौजदारी और दीवानी कानूनों का एक ढाँचा खड़ा किया है। देश और काल की परिस्थितियों के अनुसार कानूनों के स्वरूप में विभिन्नताएँ होना बहुत स्वाभाविक है किन्तु फिर भी, कुछ मुद्दे ऐसे हैं जिन्हें प्रत्येक समाज ने न्यायसंगत समझा है और जिनके सम्बन्ध में विभिन्न प्रकार के कानून बनाये गये हैं।
सबसे पहले अपराधों (Crimes ) को लीजिए। सामाजिक शान्ति का भंग किया जाना, प्रहार (Assault), हत्या (Assassination), किसी की मानहानि करना (Libel or Slander), किसी को अनुचित रूप से बन्दी बनाकर रखना (False Imprisonment), अपहरण (Abduction) और व्यभिचार (Adultery), ये सभी बातें प्रत्येक समाज में अन्यायपूर्ण मानी जाती हैं।
जहाँ तक दीवानी मामलों (Civil Matters) का प्रश्न है, मालिक और नौकर (Master and Servant), स्वामी और एजेण्ट (Principal and Agent), फर्म और साझीदार (Firm and partner) तथा अभिभावक और आश्रित (Guardian and Ward) के पारस्परिक सम्बन्धों की दृष्टि से बहुत-से कानून बनाये गये हैं, ताकि प्रत्येक पक्ष के अधिकारों को सुरक्षित रखा जा सके। पूँजीवादी देशों में वस्तुओं के ट्रेड मार्क, निजी सम्पत्ति तथा संविदा व करार के सम्बन्ध में विवादों की अधिक गुंजायश रहती है। इसीलिए साम्यवादी देशों की अपेक्षा इन देशों में दीवानी का क्षेत्र अधिक व्यापक है। बहरहाल, देश में न्याय व अन्याय के विषय में जो मान्यताएँ प्रचलित हैं, उनके आधार पर कानूनों का एक बहुत बड़ा ताना-बाना देखने को मिलता है।
इस सम्बन्ध में हम 'सार्वजनिक' और 'निजी' विधियों (Public and Private Laws) की भी चर्चा कर सकते हैं। निजी विधियों का क्षेत्र निरन्तर संकुचित होता जा रहा है क्योंकि पृथक्-पृथक् सम्प्रदायों के लिए पृथक्-पृथक् कानून संहिताएँ अधिक अच्छी नहीं मानी जातीं। फिर भी ऐसे अने विषय हैं, जैसे-विवाह, तलाक, गोद लेने की रीति, उत्तराधिकार और सम्पत्ति का बँटवारा जिनके सम्बन्ध में हिन्दू, मुसलमान, ईसाई, यहूदी और पारसी अपनी-अपनी प्रथाओं को ही अधिक न्याययुक्त मानते हैं। इसी कारण सार्वजनिक विधियों के साथ-साथ निजी विधियाँ भी विद्यमान हैं।

(ii) कानून का न्यायोचित ढंग से लागू किया जाना - ऊपर हमने 'न्यायोचित कानूनों' का विवेचन किया है किन्तु कानून के उचित होने से ही कार्य नहीं चलता। साथ ही यह भी आवश्यक है कि अधिकारी वर्ग और अदालतें निष्पक्षता से उन्हें लागू करें। न्यायिक संस्थाओं और प्रक्रियाओं के सम्बन्ध में कई बातों की विवेचना की जा सकती है।
प्रथम, कानून के सम्मुख समानता (Equality before Law) यानी कानून सबकी समान रूप से रक्षा करें।
द्वितीय, न्यायाधीशों की निष्पक्षता (Impartiality of Judges) अर्थात् न्यायाधीश बिना यह देखे कि कोई व्यक्ति धनी है या निर्धन तथा उच्च पद पर आसीन है अथवा नहीं, सभी को निष्पक्षतापूर्वक न्याय प्रदान करें।
तृतीय, अकारण या मनमाने तरीके से बन्दी न बनाये जाने का अधिकार (Freedom from Arbitrary Arrest)।
चतुर्थ, न्यायपालिका की स्वतन्त्रता (Independence of Judiciary) यानी अदालतें मुकदमों का निर्णय स्वतन्त्रतापवूक कर सकें। उन्हें कार्यपालिका के नियन्त्रण से मुक्त रखा जाये।
पंचम, कोई व्यक्ति तब तक दण्डित न किया जाये जब तक कि उसे न्यायालय द्वारा दोषी करार नहीं दिया जाता। इसके अतिरिक्त, नागरिकों के ऊपर खुली अदालत में मुकद्दमा चलाया जाये तथा जमानत के रूप में किसी से भी बहुत भारी रकम न माँगी जाये।

(iii) दण्ड का उद्देश्य (Purpose of Punishment) - न्याय व दण्ड, इन दोनों का आपस में गहरा सम्बन्ध है क्योंकि शुरू से ही समाज का यह प्रयास रहा है कि जो लोग कानूनों के विरुद्ध आचरण करें, उन्हें दण्ड दिया जाये। कुछ विचारक अपराध को असामान्य मानसिक स्थिति का परिणाम मानते हैं। उनके मतानुसार अपराध की प्रवृत्ति एक रोग है। इसलिए अपराधी को दण्डित न किया जाये, उसे सुधारने का प्रयास किय जाये। सुधारवादी सिद्धान्त (Reformative Theory) को हम इस सीमा तक तो स्वीकार कर सकते हैं कि अपराधियों को अमानुषिक अथवा अत्यन्त कड़ा दण्ड न दिया जाये किन्तु यह कहना कि अपराधी मानसिक दृष्टि से अस्वस्थ होते हैं, ठीक नहीं है। अधिकांश अपराध उन लोगों द्वारा किये जाते हैं जो औसत व्यक्ति से कहीं अधिक होशियार होते हैं। वे बहुत सोच-समझकर अपराध की योजना बनाते हैं। अतः बाल अपराधियों अथवा पहली बार साधारण-सा अपराध करने वालों के सम्बन्ध में तो यह उचित दिखाई देती है कि उन्हें मामूली दण्ड देकर छोड़ दिया जाये किन्तु अधिकांश अपराधियों के विषय में इस सिद्धान्त को स्वीकार नहीं किया जा सकता।

(iv) अधिकार और कर्तव्य (Rights and Duties) - न्याय का तकाजा है कि सभी को समान अधिकार उपलब्ध होंगे और उनके कर्तव्य भी एक जैसे होंगे। जन्म, जाति, रंग, भाषा या इसी प्रकार के अन्य किसी आधार पर किसी के भी साथ पक्षपात न किया जाये। स्त्रियों और पुरुषों को न केवल समान अधिकार दिये जायें बल्कि माताओं और उनके नवजात शिशुओं के लिए विशेष सुविधाएँ जुटाई जायें।

यह स्पष्ट है कि देश और परिस्थितियों के अनुसार कानूनों, अदालतों व न्यायिक प्रक्रियाओं का स्वरूप बदलता रहता है किन्तु फिर भी, कुछ ऐसे महत्वपूर्ण सिद्धान्त हैं जिन्हें साधारणतया सभी सभ्य राज्यों ने स्वीकार किया है। ऊपर हमने ऐसे ही कुछ सिद्धान्तों का विवेचन करने का प्रयास किया है।

2. न्याय का राजनीतिक पक्ष
मानव अधिकार घोषणा-पत्र (Universal Declaration of Human Rights) का बीसवाँ अनुच्छेद कहता है कि "प्रत्येक व्यक्ति को अपने देश की शासन व्यवस्था में हाथ बँटाने का अधिकार है।" दूसरे शब्दों में, राजनीतिक दृष्टि से कोई "अभिजात या विशेषाधिकार प्राप्त-वर्ग" नहीं होगा। सभी को समान अधिकार प्राप्त होंगे। राजनीतिक न्याय के महत्वपूर्ण पहलू निम्नांकित हैं-

(i) मताधिकार (Right to Vote) - फ्रांस के क्रान्तिकारियों की एक मुख्य माँग यह थी कि धन व कुल के भेदभाव के बिना सभी को राजनीतिक अधिकार प्रदान किये जायें। केवल धन के आधार पर ही मताधिकार का प्रयोग निश्चय ही एक अन्यायपूर्ण व्यवस्था मानी जायेगी। इसका कारण यह है कि मात्र धनी होना ही इस बात की गारण्टी नहीं है कि कोई व्यक्ति अपने मताधिकार का सही-सही उपयोग कर सकेगा। आधुनिक युग में 'वयस्क मताधिकार ' (Adult Franchise) के सिद्धान्त को ही न्यायपूर्ण माना जाता है। इस सिद्धान्त के अनुसार प्रत्येक बालिग व्यक्ति को, यदि वह पागल नहीं है, मत देने का अधिकार होना चाहिए। इस मान्यता के तीन प्रमुख कारण अग्र प्रकार हैं-

  • प्रथम, लोकतन्त्र तब तक 'वास्तविक लोकतन्त्र' नहीं हो सकता जब तक कि प्रतिनिधियों के चुनाव में प्रत्येक नागरिक का योगदान न हो। प्रत्येक व्यक्ति इतनी क्षमता अवश्य रखता है कि वह मत देने के अधिकार का समझदारी के साथ उपयोग कर सके।
  • द्वितीय, मताधिकार से सामान्य लोगों के मन में गौरव व स्वाभिमान का भाव जाग्रत होता है। उन्हें लगता है कि वे शासन-तन्त्र से कटे हुए नहीं हैं बल्कि शासन संचालन में उनकी भी महत्वपूर्ण भूमिका है।
  • तृतीय, मताधिकार नागरिकों के अन्य अधिकारों को सुरक्षित रखने का साधन है। वह शासनाधिकारियों को जनता के प्रति उत्तरदायी बनाता है। मताधिकार से लोगों को अपनी वास्तविक शक्ति का बोध होता है। हम मतदान का प्रयोग करके ऐसी सरकार को बदल सकते हैं जो हमारी इच्छाओं का सम्मान नहीं करती है। फलस्वरूप, हिंसक क्रान्ति की सम्भावना नहीं रहती। मैकरिडिस और वार्ड (Macridis and Ward) के शब्दों में, “जिन देशों में यत्नपूर्वक समाज के किन्हीं विशिष्ट वर्गों को राजनीतिक सत्ता से वंचित रखा जाता है, वहाँ ये वर्ग हिंसक साधनों से सत्ता हथियाने का प्रयास करते हैं।"

(ii) अन्य अधिकार व स्वतन्त्रताएँ (Other Rights and Liberties) - मताधिकार के अतिरिक्त जिन अन्य अधिकारों व स्वतन्त्रताओं को आवश्यक समझा गया है, उनमें मुख्य-मुख्य ये हैं-नागरिकों को चुनावों में खड़ा होने का अधिकार होना चाहिए, सरकारी पदों पर नियुक्ति की सभी को समान सुविधाएँ प्राप्त हों तथा विचारों की अभिव्यक्ति व राजनीतिक दलों का गठन करने की सभी को स्वतन्त्रता हो।

(iii) मानव अधिकारों की सावधानी से रक्षा (Sufficient Attention to Human Rights) - मानव अधिकारों और मूलभूत स्वतन्त्रताओं के प्रति सम्मान की भावना बहुत आवश्यक है। न्यूयार्क स्थित 'फ्रीडम हाउस' की एक रिपोर्ट के अनुसार आज भी विश्व के दो-तिहाई से अधिक देशों में मानव अधिकारों का हनन हो रहा है। कम्युनिस्ट देशों में राज्य का शिकंजा अब उतना कठोर नहीं है जितना कि 20-30 वर्ष पहले था, फिर भी इन देशों में मानव अधिकारों का हनन एक सामान्य बात है। रूस और चीन में शासन- विरोधियों पर होने वाले अत्याचारों के समाचार समय-समय पर प्रकाशित होते रहते हैं। बर्मा (म्यांमार ), पाकिस्तान, अफगानिस्तान और दक्षिण अफ्रीका में हजारों नागरिकों को अकारण जेल में रखा जा चुका है। इण्टरनेशनल प्रेस इंस्टीट्यूट (International Press Institute) ने सन् 1984 की अपनी वार्षिक रिपोर्ट में यह बात कही थी कि “विभिन्न देशों की सरकारों ने अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का दमन किया है तथा संचार माध्यमों पर प्रतिबन्ध लगाने के लिए कानून बनाये हैं।"

3. न्याय का सामाजिक पक्ष
न्याय का एक सामाजिक पक्ष भी है। सामाजिक जीवन अनेक विविधताओं से पूर्ण है। समाज में परिवार है, चर्च है, संघ है, विभिन्न सांस्कृतिक व व्यावसायिक समुदाय हैं तथा विविध सम्प्रदाय और धर्मों के मानने वाले लोग हैं। भारत जैसे देश में तो जातिभेद भी है और हरिजन तथा गैर-हरिजन की समस्या भी है। इसके अतिरिक्त, हिन्दुओं और मुसलमानों के कुछ निजी कानून हैं जिन्हें लागू करना अदालतों का कर्तव्य है। ऐसी स्थिति में सामाजिक न्याय का प्रश्न अत्यधिक जटिल बन गया है। इस सम्बन्ध में कुछ विचारणीय बातें निम्नांकित हैं--

(i) सामाजिक व धार्मिक मामलों में राज्य का हस्तक्षेप (State's Intervention in Socio- religious Affairs) - इस सम्बन्ध में एक महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि धार्मिक परम्पराओं और सामाजिक रीति-रिवाजों में राज्य किस सीमा तक हस्तक्षेप कर सकता है? मैकाइवर का कथन है कि धार्मिक विश्वास और आन्तरिक नैतिकता से सम्बन्धित मामले राज्य के हस्तक्षेप से मुक्त रहने चाहिए। कला, साहित्य, संगीत, फैशन और रीति-रिवाजों के क्षेत्र में भी नागरिक स्वतन्त्र हैं। इसी प्रकार पारिवारिक जीवन में राज्य हस्तक्षेप नहीं कर सकता। न्याय का क्योंकि स्वतन्त्रता से सम्बन्ध है, इसलिए इन क्षेत्रों में राज्य का अनुचित हस्तक्षेप निश्चय ही न्याय संगत नहीं माना जा सकता किन्तु प्रश्न यह है कि उचित और अनुचित के बीच विभाजक रेखा कैसे खींची जाये ? सार्वजनिक शान्ति और व्यवस्था (Public Order), सार्वजनिक सम्पत्ति (Public Property) और सार्वजनिक सदाचार (Public Morality) की रक्षा के लिए तो राज्य को कानून बनाने ही पड़ेंगे।

(ii) कुछ बातों के आधार पर भेदभाव से इन्कार (Prohibition of Discrimination) - निःसंदेह न्याय का तकाजा है कि नागरिकों के साथ केवल रंग, वंश या जाति के आधार पर कोई पक्षपात न किया जाये किन्तु प्रश्न यह है कि पक्षपात न किये जाने की बात केवल सार्वजनिक कर्तव्यों के सम्बन्ध में ही उचित है या निजी मामलों में भी वह उतनी ही उचित है? यह तो माना जा सकता है कि एक 'श्वेत' व्यक्ति जो कि सार्वजनिक पद पर आसीन है, कोई भी निर्णय लेते समय या नियुक्ति करते समय काले-गोरे का भेदभाव न रखे किन्तु क्या उसे इस बात के लिए भी विवश किया जा सकता है कि वह अपना मकान नीग्रो को ही किराये पर उठाये? यह एक पेचीदा प्रश्न है। सामान्यत: निजी मामलों में लोगों को अपनी रुचि के अनुसार कार्य करने की स्वतन्त्रता होनी चाहिए किन्तु यदि स्वतन्त्रता से समाज के एक बड़े वर्ग को कष्ट पहुँचता हो तो राज्य अवश्य हस्तक्षेप करेगा। अब सभी लोग इस बात को मानने लगे हैं कि जहाँ तक सार्वजनिक भोजनालयों, दुकानों, शिक्षणालयों, मनोरंजन के स्थानों, तालाबों, कुओं आदि का प्रश्न है, उनके प्रयोग से कोई भी व्यक्ति केवल धर्म, वंश, जाति, रंग, भाषा आदि के आधार पर वंचित नहीं किया जा सकता।

(iii) शोषण का निषेध (Prohibition of Exploitation) - सामाजिक न्याय का एक महत्वपूर्ण पहलू यह भी है कि मानव का मानव द्वारा शोषण समाप्त किया जाना चाहिए। भारतीय संविधान ने न्याय के इस आदर्श की पुष्टि की है। संविधान द्वारा मानव-व्यापार तथा किसी व्यक्ति से बेगार अथवा जबर्दस्ती काम लेना गैर-कानूनी घोषित कर दिया गया है।
अनेक लेखकों व विचारकों का मत है कि कानून द्वारा शोषण पर प्रतिबन्ध लगाये जाने के बाद भी भारत का पिछड़ा वर्ग अपने को सुरक्षित अनुभव नहीं कर रहा है। इसका कारण यह है कि इन लोगों की समस्या जाति-भेद से उत्पन्न होते हुए भी मूलतः आर्थिक है।

(iv) काम की यथोचित् व मानवोचित दशाएँ (Just and Human Conditions of Work) - यह आवश्यक है कि राज्य काम की मानवोचित दशाएँ सुनिश्चित करे। दूसरे शब्द में, सभी को सामाजिक व सांस्कृतिक विकास के अवसर प्राप्त होने चाहिए, सार्वजनिक स्वास्थ्य का स्तर ऊँचा किया जाना चाहिए तथा नागरिकों की शैक्षिक उन्नति का प्रबन्ध किया जाना चाहिए।

4. न्याय का आर्थिक पक्ष
कुछ वर्षों से न्याय के आर्थिक पक्ष पर अधिक बल दिया जाने लगा है। यह कहा गया है कि भौतिक सम्पदा पर सभी का समान अधिकार है। यह नहीं कि राष्ट्र की सम्पत्ति सिमटकर गिने-चुने लोगों के हाथों में केन्द्रित हो जाये और शेष समाज भारी आर्थिक अभावों से ग्रस्त रहे। मैरियम के मतानुसार 'आर्थिक न्याय के सम्बन्ध में निम्नलिखित बातें अधिक महत्वपूर्ण हैं-

(i) उचित पारिश्रमिक तथा भारी आर्थिक विषमताओं का अभाव - सभी लोग इस बात पर सहमत हैं। कि नागरिकों की न्यूनतम भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति अवश्य होनी चाहिए। आर्थिक सुविधाओं के बिना राजनीतिक अधिकारों का कोई मूल्य नहीं है। लास्की के शब्दों में, “जब तक सभी के लिए आवास की सुविधाएँ उपलब्ध न हों, तब तक किसी भी व्यक्ति को यह अधिकार नहीं दिया जा सकता कि वह बीस कमरों वाले मकान में रहे। साथ ही कोई व्यक्ति केवल इसी आधार पर बीस कमरों वाले मकान में नहीं रह सकता कि उसका पिता एक बहुत बड़ा वकील या उद्योगपति था।" इसका आशय यह है कि न केवल आर्थिक विषमताएँ ही दूर होनी चाहिए बल्कि अनुपार्जित आय (Unearned Income) के उपयोग पर भी सीमाएँ लगायी जानी चाहिए।

(ii) राष्ट्रीयकरण की समस्या (Problem of Nationalization) - इस सम्बन्ध में एक महत्वपूर्ण प्रश्न यह भी है कि राज्य किन व्यवसायों को अपने हाथ में ले और किन्हें निजी स्वामित्व में ही रखे ? समाजवादियों का कहना है कि जब तक उत्पादन के साधन निजी हाथ में रहेंगे, तब तक किसी भी क्षेत्र में न्याय की स्थापना सम्भव नहीं है। लास्की ने कहा था कि “राज्य को चाहिए कि वह सम्पत्ति पर अपना आधिपत्य स्थापित कर ले अन्यथा सम्पत्ति के स्वामी राज्य पर छा जायेंगे" (State must dominate property or property will dominate the state. - Laski)। साम्यवादी देशों में कल-कारखानों व उत्पादन के साधनों पर राज्य का स्वामित्व पाया जाता है। दूसरी ओर, उदार लोकतन्त्रीय देशों में कुछ महत्वपूर्ण व अत्यावश्यक व्यवसायों का राष्ट्रीयकरण कर दिया गया है, जबकि शेष व्यवसायों को निजी क्षेत्र में छोड़ दिया गया है। अधिकांश अर्थशास्त्रियों का मत मिश्रित अर्थव्यवस्था के पक्ष में है।

(iii) समान कार्य के लिए समान वेतन (Equal Pay for Equal Work) - एक महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि 'समानों में समानता' (Equality among Equals) का क्या आशय है? एक ईंट थापने वाले श्रमिक और नाविक को बराबर-बराबर वेतन देना न्यायसंगत नहीं माना जा सकता। इसलिए बराबरी के सिद्धान्त का आशय केवल यही है कि एक ईंट थापने वाले को जो मजदूरी दी जाये, वही दूसरे को भी मिले। इसी प्रकार एक नाविक का जो वेतन है, वही दूसरे नाविक का भी होना चाहिए।

(iv) क्षमता के अनुसार कार्य तथा आवश्यकतानुसार वेतन - साम्यवादी देशों का यह लक्ष्य है कि प्रत्येक व्यक्ति को अपनी सामर्थ्य के अनुसार कार्य करना चाहिए और उसे आवश्यकता के अनुसार वेतन प्राप्त होना चाहिए, यह बहुत रोचक प्रतीत होता है किन्तु इस सिद्धान्त को व्यावहारिक रूप देने में अनेक कठिनाइयाँ हैं। लास्की के मतानुसार, 'आवश्यकता' शब्द का न्यायसंगत अर्थ यह है कि प्रत्येक वर्ग की औसत आवश्यकताओं को ध्यान में रखा जाये। प्रत्येक व्यक्ति और प्रत्येक परिवार की यदि पृथक्-पृथक् आवश्यकताएँ मानी जायेंगी तो वेतन की दरों का निर्धारण सम्भव ही नहीं है।

स्वतन्त्रता, समानता, सम्पत्ति और न्याय का परस्पर सम्बन्ध

न्याय की संकल्पना अत्यधिक उलझी हुई है। उसके विविध पक्ष हैं। उदारवाद, मार्क्सवाद, रूढ़िवाद व सुधारवाद, इन सभी दृष्टियों से उस पर विचार किया जाता है और प्रत्येक विचारधारा वाला व्यक्ति उसकी नई व्याख्या प्रस्तुत करता है। 'स्वतन्त्रता' और 'समानता' दोनों न्याय के महत्वपूर्ण अंग समझे जाते हैं। साधारणतया स्वतन्त्रता व समानता एक-दूसरे के पूरक हैं किन्तु यह सम्भव है कि इन दोनों के बीच टकराव हो जाये या स्वयं स्वतन्त्रता के ही विभिन्न पक्षों के बीच संघर्ष की स्थिति उत्पन्न हो जाये। ऐसी परिस्थिति में कोई एक ऐसा सिद्धान्त चाहिए जो उस टकराव को दूर करने में सहायता पहुँचाये। अर्नेस्ट बार्कर के शब्दों में, “न्याय ही वह अन्तिम सिद्धान्त है जो स्वतन्त्रता व समानता तथा इन दोनों के विभिन्न पक्षों के बीच ताल-मेल उत्पन्न कर सकता है।" यहाँ हम स्वतन्त्रता, समानता, सम्पत्ति और न्याय सम्बन्धी अवधारणाओं के परस्पर सम्बन्धों की विवेचना करेंगे।

1. स्वतन्त्रता और न्याय (Liberty and Justice)
व्यक्तिगत स्वतन्त्रता और सामाजिक हितों के बीच साधारणतया कोई टकराव नहीं होता क्योंकि व्यक्ति और समाज दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं। फिर भी, ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न हो सकती हैं कि स्वतन्त्रता को नियन्त्रित करना पड़े। उदाहरणार्थ, युद्धकाल अथवा संकट की स्थिति में सरकार कुछ लोगों को मुकदमा चलाये बिना ही जेलखाने में डाल देती है। द्वितीय महायुद्ध के शुरू होते ही ब्रिटिश सरकार ने इंग्लैण्ड में रहने वाले सभी जर्मन-निवासियों को नजरबन्द कर दिया था। सामान्यतः सरकार के इस कृत्य को न्यायसंगत नहीं माना जा सकता क्योंकि जब तक किसी व्यक्ति का अपराध सिद्ध न हो जाये, तब तक उसे दण्डित नहीं किया जा सकता। फिर भी सरकार के इस प्रकार के कृत्यों का इस आधार पर समर्थन किया जा सकता है कि यदि राष्ट्र की अखण्डता और स्वतन्त्रता खतरे में है तो नागरिक अधिकारों की दुहाई देने से क्या लाभ? किन्तु यह आवश्यक है कि जैसे ही संकट टल जाये, स्वतन्त्रता पर लगाये गये प्रतिबन्ध हटा दिये जाने चाहिए।
नागरिक अधिकारों को सीमित किये जाने के और भी अनेक ऐसे उदाहरण दिये जा सकते हैं जो ऊपर से देखने पर न्यायसंगत प्रतीत नहीं होते। स्वतन्त्रता के समर्थक यह कह सकते हैं कि होटल के स्वामी या मकान मालिक को इस बात के लिए क्यों बाध्य किया जाये कि वे प्रत्येक आगन्तुक का स्वागत करें अर्थात् किसी को भी होटल में प्रवेश पाने या मकान किराये पर लेने से न रोक सकें। इस सम्बन्ध में हम केवल यही कह सकते हैं कि व्यक्तिगत स्वतन्त्रता की अपेक्षा सामूहिक हितों का अधिक महत्व है। यदि शक्तिशाली व सम्पन्न लोगों पर कोई भी प्रतिबन्ध नहीं होगा तो यह वर्ग निर्बल वर्ग को सताने लगेगा। कमजोर वर्ग को सुरक्षा प्रदान करने के लिए शक्तिशाली लोगों की गतिविधियों पर अंकुश लगाया जाना आवश्यक होगा। न्याय की माँग यह है कि स्वतन्त्रता के आधार को व्यापक बनाया जाना चाहिए। वह किसी एक वर्ग को नहीं वरन् सभी को प्राप्त होना चाहिए।

2. समानता और न्याय (Equality and Justice)
न्याय 'समानता' के सिद्धान्त का पक्षधर है। समानता के सिद्धान्त का न्यायसंगत पहलू यह है कि सभी नागरिकों के बराबर-बराबर अधिकार हों और उनके कर्तव्य भी एक जैसे हों। उदाहरणार्थ, यदि युद्धकाल में सैनिक सेवा अनिवार्य हो तो वह सभी के लिए अनिवार्य हो तथा सभी को बराबर अवधि के लिए सेना में रखा जाये। व्यवहार में ऐसा देखने में आता है कि सार्वजनिक निर्माण विभाग में कार्य करने वाले इंजीनियरों को जहाँ तक सम्भव हो, सैनिक भर्ती से मुक्त रखा जाता है और यदि भर्ती करनी ही पड़े तो उन्हें शीघ्र ही सैनिक सेवा से मुक्त कर दिया जाता है। समानता और न्याय की दृष्टि से यह बात उचित प्रतीत नहीं होती कि जिस व्यक्ति की भर्ती बाद में की जाये, उसे पहले अवकाश दे दिया जाये किन्तु युद्धकाल में शत्रु पक्ष द्वारा नगरों और भवनों को ध्वंस किये जाने का सिलसिला निरन्तर चलता रहता है। इसलिए सार्वजनिक हित की दृष्टि से यही न्याययुक्त माना जाता है कि इंजीनियरों और कारीगरों को जहाँ तक सम्भव हो सके, नागरिक सेवाओं के लिए सुरक्षित रखा जाये। बहुत आवश्यक होने पर ही उन्हें सेना में भर्ती भी किया जाना चाहिए।

उपर्युक्त अपवादों को छोड़कर समानता का सिद्धान्त प्रायः न्यायसंगत समझा जाता है। तभी तो सभ्य देशों के संविधान यह घोषणा करते हैं कि बराबर वालों के साथ बराबरी का व्यवहार होना चाहिए तथा "कानून के सम्मुख सब समान हैं।" न्याय का यह भी तकाजा है कि भौतिक सम्पदा का वितरण जहाँ तक सम्भव हो सके समान रहे।

3. स्वतन्त्रता और समानता (Liberty and Equality)
न्यायसंगत सामाजिक व्यवस्था के लिए स्वतन्त्रता और समानता दोनों ही आवश्यक हैं। आर्थिक समानता के बिना राजनीतिक स्वतन्त्रता निरर्थक है। भूखे व्यक्ति के लिए वोट का कोई मूल्य नहीं होता। आर्थिक विषमताओं को कम करके नागरिक स्वतन्त्रताओं- भाषण व अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता तथा सभा सम्मेलन की स्वतन्त्रता को अधिक प्रभावी बनाया जा सकता है। प्रत्येक व्यक्ति यह जानता है कि आर्थिक विवशताओं के कारण नागरिक स्वतन्त्रताओं का कुछ भी मूल्य नहीं है। धन कुबेर बड़ी-बड़ी 'धनराशियाँ व्यय करके इच्छित वस्तुओं और विचारों का प्रचार करा सकते हैं। ऐसी स्थिति में केवल ऐसे व्यक्ति ही विधान सभाओं में पहुँच पाते हैं जो या तो स्वयं बहुत सम्पन्न हों अथवा जिन्हें पूँजीपतियों का समर्थन प्राप्त हो । अतएव समानता के बिना नागरिक व राजनीतिक अधिकारों का कोई विशेष महत्व नहीं है।

4. सम्पत्ति, समानता और न्याय (Property, Equality and Justice)
सम्पत्ति के स्वामी चाहते हैं कि व्यक्ति के आर्थिक क्रियाकलापों पर प्रतिबन्ध न लगाया जाये अर्थात् उद्योग-धन्धे के क्षेत्र में उन्हें स्वतन्त्र छोड़ दिया जाये। दूसरी ओर, समानता का सिद्धान्त यह कहता है कि राष्ट्रीय सम्पदा में सभी भागीदार बनें तथा पूँजीपति श्रमिकों का शोषण न कर सकें। समानता का सिद्धान्त तो 'वर्गविहीन समाज' (Classless Society) की रचना पर बल देता है। ये दोनों बातें एकांगी हैं और अपने में अपूर्ण हैं। न्याय का सिद्धान्त इन दोनों के बीच समन्वय स्थापित करता है। वह कहता है कि धन के न्यायोचित वितरण की व्यवस्था होनी चाहिए। यदि भारत का उदाहरण लें तो जमींदारी उन्मूलन, बीमा कम्पनियों व प्रमुख बैंकों का राष्ट्रीयकरण तथा सम्पत्ति के अधिकार को मूल अधिकारों की सूची से निकाला जाना न्यायोचित समझा जायेगा क्योंकि इससे लोगों की सम्पन्नता में वृद्धि हो सकती है। वास्तव में, न तो यह उचित है कि उद्योग और वाणिज्य को राज्य पूर्णतया अपने हाथों में ले ले और न पूर्णतया 'मुक्त व्यापार' को ही उचित समझा जा सकता है। अधिकांश देशों में 'मिश्रित अर्थव्यवस्था' (Mixed Economy) के सिद्धान्त को स्वीकार किया गया है। कुछ उद्योग-धन्धों का राष्ट्रीयकरण कर दिया गया है और शेष निजी क्षेत्र में बने हुए हैं किन्तु जो उद्योग निजी क्षेत्र में हैं, वे भी सरकार के नियन्त्रण में ही रहते हैं। सरकार कानूनों द्वारा मजदूरी की दर, कार्य की दशाएँ, कीमत और करों की दरें निर्धारित कर सकती है। संक्षेप में, यदि समानता और सम्पत्ति के अधिकार के बीच कोई संघर्ष हो तो उसका समाधान 'न्याय' का सिद्धान्त करता है।

5. बराबर हिस्सों को न्यायोचित नहीं माना जा सकता है ( Just Shares are not Equal Shares)
समानता का सिद्धान्त बराबर-बराबर वितरण को प्रमुखता देता है। निस्संदेह भारी विषमताएँ समाज के स्वरूप को विकृत कर देती हैं परन्तु इसका आशय यह नहीं है कि असमान वितरण अन्यायपूर्ण माना जाये। वास्तव में, 'धन' या ' सुविधाओं' का वितरण करते समय 'योग्यता' (Merit) और 'आवश्यकता' (Need) को ध्यान में रखना अति आवश्यक है क्योंकि भिन्न-भिन्न व्यक्तियों की भिन्न-भिन्न योग्यताएँ और आवश्यकताएँ होती हैं, इसलिए वितरण असमान तो होगा ही। एक दृष्टि से असमान वितरण को अन्यायपूर्ण नहीं बल्कि न्यायोचित कहा जायेगा। उदाहरणार्थं, प्रत्येक सैनिक को 'परमवीर चक्र' नहीं दिया जा सकता, वह तो विशिष्ट सूझ-बूझ और साहस का परिचय देने वाले सैनिकों को ही प्राप्त होगा। यह तो रही विशेष योग्यता (Merit) की बात। जहाँ तक 'आवश्यकता' (Need) का प्रश्न है, अंगहीनों, अंधों, नवजात शिशुओं की माताओं और समाज के पिछड़े हुए वर्गों को राहत देने के लिए विशेष सुविधाएँ प्रदान की जा सकती हैं। ऐसे किसी भी कार्य को हम अन्यायपूर्ण नहीं कह सकते। वह तो सामाजिक न्याय को प्रोत्साहन देने का साधन ही कहा जायेगा।

6. स्वतन्त्रता के विभिन्न पक्षों के बीच होने वाले संघर्ष का निपटारा भी न्याय का सिद्धान्त ही कर सकता है
स्वतन्त्रता और समानता के बीच तो टकराव की सम्भावना है ही किन्तु कभी-कभी स्वयं स्वतन्त्रता के विभिन्न पक्षों के बीच भी संघर्ष की स्थिति उत्पन्न हो सकती है। उदाहरणार्थ, 'नागरिक स्वतन्त्रता' (Civil Liberty) तथा 'आर्थिक स्वतन्त्रता' (Economic Liberty) के बीच टकराव हो सकता है। 'नागरिक स्वतन्त्रता' की आड़ लेकर पूँजीपति यह कह सकते हैं कि श्रमिकों ने उनके साथ जो संविदा या करार (Contract) किया हुआ है, उसके अनुसार वे मजदूरी में वृद्धि की माँग नहीं कर सकते और न हड़ताल ही कर सकते हैं। दूसरी ओर, मजदूर लोग 'आर्थिक स्वतन्त्रता' की दुहाई देते हुए मजदूरी में वृद्धि के लिए हड़ताल की धमकी दे सकते हैं। इसी प्रकार 'राजनीतिक स्वतन्त्रता' (Political Liberty) और 'आर्थिक स्वतन्त्रता' (Economic Liberty) के बीच संघर्ष की स्थिति पैदा हो सकती है। ऐसी स्थिति में न्याय का सिद्धान्त ही झगड़े का निवारण कर सकता है। न्याय का -सिद्धान्त यह कहता है कि पूँजीपति मजदूरों का शोषण न कर पायें और मजदूर औद्योगिक शान्ति को भंग न होने दें। प्रो. बार्कर के शब्दों में, “न्याय का सिद्धान्त न केवल व्यक्ति व व्यक्ति के बीच ही समन्वय पैदा करता है बल्कि विभिन्न सिद्धान्तों के बीच सामंजस्य उत्पन्न करने का भी एक साधन है।"

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