प्रतिनिधित्व के सिद्धांत | pratinidhitva ke siddhant

प्रतिनिधित्व के सिद्धांत

लोकतान्त्रिक शासन-व्यवस्था में जनता के प्रतिनिधित्व के लिए जिन प्रणालियों का प्रयोग किया जाता है, वे निम्नांकित हैं-

क्षेत्रीय एवं व्यावसायिक प्रतिनिधित्व प्रणाली

1. क्षेत्रीय प्रतिनिधित्व प्रणाली
क्षेत्रीय या प्रादेशिक प्रतिनिधित्व प्रणाली को 'भौगोलिक प्रतिनिधित्व प्रणाली' भी कहा जाता है। इस प्रणाली की मान्यता है कि एक क्षेत्र या प्रदेश में निवास करने वाले सभी व्यक्तियों के कुछ सामान्य हित होते हैं। उस क्षेत्र के निवासियों को अपने हितों की रक्षा के लिए विधायिका में अपना प्रतिनिधि भेजने का अधिकार प्राप्त होना चाहिए। उस प्रदेश का एक ही व्यक्ति उस क्षेत्र में निवास करने वाले सभी नागरिकों का उचित एवं वास्तविक प्रतिनिधित्व कर सकता है। आधुनिक युग में प्रतिनिधियों का चुनाव करने के लिए अधिकांशत: क्षेत्रीय या प्रादेशिक प्रतिनिधि प्रणाली का ही प्रयोग किया जाता है।

2. व्यावसायिक प्रतिनिधित्व प्रणाली
आधुनिक युग में बहुत-से विचारक प्रादेशिक प्रतिनिधित्व प्रणाली की आलोचना करते हुए एक नवीन प्रणाली का प्रतिपादन करते हैं जिसे 'व्यावसायिक प्रतिनिधित्व प्रणाली' कहा जाता है। इस प्रणाली के समर्थकों का मत है कि 'व्यावसायिक प्रतिनिधित्व प्रणाली' द्वारा प्रतिनिधित्व अधिक व्यापक तथा वास्तविक बनाया जा सकता है। अतः प्रतिनिधित्व का आधार प्रदेश नहीं, व्यवसाय होना चाहिए। उनका मत है कि एक प्रदेश में रहने वाले सभी व्यक्तियों के महत्वपूर्ण हित एकसमान नहीं होते हैं। यह हो सकता है कि सफाई, पानी, रोशनी, स्वास्थ्य आदि बातों के सम्बन्ध में उनके हित समान हों किन्तु अन्य अधिक महत्वपूर्ण मामलों में उनके हित पृथक्-पृथक् होते हैं, जैसे- एक प्रदेश में रहने वाले मिल मालिकों, मजदूरों तथा सरकारी नौकरों के हितों में भिन्नता होती है और इनमें से कोई एक अन्य सभी के हितों की रक्षा नहीं कर सकता किन्तु एक व्यवसाय में लगा हुआ व्यक्ति अपने व्यवसाय वालों का उचित प्रतिनिधित्व कर सकता है क्योंकि उसी व्यवसाय में संलग्न प्रतिनिधि अपने व्यवसाय वालों की आवश्यकताओं तथा कठिनाइयों को ठीक प्रकार से समझ सकते हैं।

जैसे - एक मिल-मालिक सभी स्थानों के मिल मालिकों का उचित प्रतिनिधित्व कर सकता है। श्रमिक श्रमिकों का प्रतिनिधित्व कर सकता है। इस प्रकार 'व्यावसायिक प्रतिनिधित्व प्रणाली' के समर्थकों का मत है कि हितों की समानता व्यवसाय के आधार पर हो सकती है, प्रदेश के आधार पर नहीं। अत: जनता का सच्चा प्रतिनिधित्व व्यावसायिक आधार पर ही हो सकता है। 'व्यावसायिक प्रतिनिधित्व प्रणाली' में निर्वाचन के आधार प्रादेशिक क्षेत्र नहीं बल्कि विभिन्न व्यवसाय, जैसे-उद्योगपति, डॉक्टर, वकील, मजदूर, किसान आदि होंगे। प्रत्येक व्यवसाय के लिए पृथक्-पृथक् प्रतिनिधि निर्वाचित होंगे।
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‘व्यावसायिक प्रतिनिधित्व प्रणाली' का समर्थन अनेक विद्वानों द्वारा किया गया है। फ्रांस की राज्य क्रान्ति के समय मिराबो द्वारा 'व्यावसायिक प्रतिनिधित्व प्रणाली' का समर्थन करते हुए कहा गया था कि "व्यवस्थापिका मण्डल एक प्रकार से समाज के विभिन्न हितों का छोटा-सा दर्पण होना चाहिए।" आधुनिक विचारक ड्युग्वी ने इस बात का प्रतिपादन किया है कि उद्योग, सम्पत्ति, व्यवसाय, व्यापार, विज्ञान तथा धर्म आदि राष्ट्रीय जीवन की सभी शक्तियों को उचित प्रतिनिधित्व प्राप्त होना चाहिए।
इस सिद्धान्त के सबसे प्रबल समर्थक जी. डी. एच. कोल हैं। कोल ने अपनी पुस्तक 'सोशल थ्योरी' में लिखा है कि "संसद सब नागरिकों का सभी बातों में प्रतिनिधित्व नहीं करती वास्तविक लोकतन्त्र की प्राप्ति केवल एक सर्वसक्षम प्रतिनिध्यात्मक सभा द्वारा नहीं अपितु व्यवसायों के आधार पर समायोजित प्रतिनिध्यात्मक संस्थाओं की व्यवस्था द्वारा हो सकती है।'
कोल ने अपनी एक अन्य रचना 'गिल्ड सोशलिज्म रि-स्टेटेड' में कहा है कि " पूर्णतः शुद्ध और लोकतन्त्रीय प्रतिनिधित्व केवल व्यावसायिक प्रतिनिधित्व ही होता है। सर्वसक्षम संसदयुक्त सर्वशक्तिमान राज्य वास्तविक लोकतन्त्रीय समाज के लिए सर्वथा अनुपयुक्त होता है अतः उसका विनाश कर दिया जाना चाहिए अथवा बिना किसी कठिनाई के उसको निष्प्राण कर दिया जाना चाहिए।" इस प्रकार व्यावसायिक प्रतिनिधित्व के समर्थकों द्वारा प्रादेशिक प्रतिनिधित्व पर आधारित राजनीतिक लोकतन्त्र के स्थान पर व्यावसायिक प्रतिनिधित्व पर आधारित व्यावसायिक लोकतन्त्र का प्रतिपादन किया गया है। उनकी दृष्टि में व्यावसायिक प्रतिनिधित्व ही सच्चा प्रतिनिधित्व है।

व्यवहार में प्रयोग - विश्व के अनेक प्रगतिशील देशों में व्यावसायिक प्रतिनिधित्व का व्यवहार में प्रयोग किया गया है। जैसे- भूतपूर्व सोवियत संघ में कारखानों, खदानों तथा खेतिहरों आदि की जो सोवियतें बनी हुई थीं, उनके प्रतिनिधियों का निर्वाचन व्यावसायिक आधार पर ही किया जाता है। भारत राष्ट्रपति राज्य सभा में साहित्य, विज्ञान, कला तथा समाज सेवा के क्षेत्र में ख्याति प्राप्त 12 व्यक्तियों को मनोनीत करता है। विधान परिषदों में शिक्षकों, स्नातकों तथा स्थानीय निकायों के लिए स्थान सुरक्षित रखे गये हैं!

व्यावसायिक प्रतिनिधित्व प्रणाली के गुण-व्यावसायिक प्रतिनिधित्व प्रणाली के प्रमुख गुण निम्नांकित हैं-
  1. प्रत्येक व्यवसाय को उचित प्रतिनिधित्व- लोकतन्त्र की सफलता के लिए यह आवश्यक है कि राज्य के प्रत्येक वर्ग को विधानमण्डल में प्रतिनिधित्व प्राप्त हो। व्यावसायिक प्रतिनिधित्व प्रणाली में सभी व्यवसायों को विधानमण्डलों में उचित प्रतिनिधित्व प्राप्त हो जाता है तथा प्रत्येक व्यवसाय के प्रतिनिधि अपने व्यवसाय से सम्बद्ध सदस्यों के हितों की रक्षा के लिए प्रयत्नशील रहते हैं।
  2. विधानमण्डलों का स्वरूप लोकतान्त्रिक- व्यावसायिक प्रतिनिधित्व प्रणाली को अपनाने पर सभी व्यवसायों को विधायिका में प्रतिनिधित्व प्राप्त होता है। सभी व्यवसायों के प्रतिनिधि विधानमण्डल में उपस्थित होकर सभी व्यवसायों के हितों को ध्यान में रखकर कानून बनाने का कार्य करते हैं। इस प्रकार विधानमण्डलों का स्वरूप लोकतान्त्रिक हो जाता है।
  3. छोटे-छोटे व्यवसायों की उन्नति- व्यावसायिक प्रतिनिधित्व में छोटे-छोटे व्यवसायों तथा उनमें लगे व्यक्तियों को उन्नति करने का अवसर प्राप्त होता है।

व्यावसायिक प्रतिनिधित्व प्रणाली के दोष या आलोचना - यद्यपि व्यावसायिक प्रतिनिधित्व प्रणाली नागरिकों के हितों की रक्षा करती है किन्तु इस प्रणाली में अनेक गम्भीर दोष हैं। इसी कारण इसकी आलोचना की जाती है। व्यावसायिक प्रतिनिधित्व की आलोचना करते हुए डनिंग ने कहा है कि "व्यावसायिक प्रतिनिधित्व की प्रथा इतने भीषण दोषों से परिपूर्ण है कि यह प्रादेशिक प्रतिनिधित्व से श्रेष्ठतर सिद्ध नहीं होती।" फ्रांसीसी विद्वान एसिमन का कथन है कि "व्यावसायिक प्रतिनिधित्व एक मिथ्या और भ्रान्तिपूर्ण सिद्धान्त है जिससे संघर्ष और अराजकता का ही जन्म होता है।"

व्यावसायिक प्रतिनिधित्व प्रणाली के प्रमुख दोष निम्नांकित हैं—
  1. सम्प्रभुता के सिद्धान्त के विरुद्ध- सम्प्रभुता का सिद्धान्त यह है कि राज्य की प्रभुत्व शक्ति जनता में समष्टि रूप में निहित होती है, व्यवसायों के आधार पर बने विविध वर्गों में नहीं, जबकि व्यावसायिक प्रतिनिधित्व की मान्यता है कि जनता का प्रतिनिधित्व समष्टि रूप में नहीं वरन् व्यावसायिक वर्गों के रूप में होना चाहिए। इस प्रकार व्यावसायिक प्रतिनिधित्व सम्प्रभुता के सिद्धान्त के विरुद्ध हैं।
  2. सामाजिकता की भावना के विपरीत- मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। वह समाज में रहकर अपने लाभ प्राप्त करने के लिए, सामाजिक हितों के लिए व्यक्तिगत हितों का बलिदान करने के लिए तत्पर रहता है किन्तु व्यावसायिक प्रतिनिधित्व का सिद्धान्त व्यक्ति के व्यावहारिक हितों को समष्टि रूप से सामाजिक हितों के समक्ष अधिक महत्व देने की प्रेरणा देता है। यदि व्यक्ति समाज के हितों के समक्ष अपने व्यक्तिगत हितों को अधिक महत्व देने लगेगा तो उसकी सामाजिकता समाप्त हो जायेगी। इस प्रकार व्यावसायिक प्रतिनिधित्व मनुष्य की सामाजिकता की भावना का विरोधी है।
  3. राष्ट्रीय एकता के लिए घातक- राष्ट्रीय एकता के लिए यह आवश्यक है कि व्यवस्थापिका के सभी सदस्य राष्ट्र द्वारा निर्वाचित हों तथा राष्ट्रीय हित का प्रतिनिधित्व करते हों, विशेष हितों तथा वर्गों का प्रतिनिधित्व न करते हों लेकिन व्यावसायिक प्रतिनिधित्व में व्यवस्थापिका में विभिन्न वर्गों को व्यवसाय के आधार पर प्रतिनिधित्व प्राप्त होता है। ये प्रतिनिधि अपने-अपने वर्गों के हितों की साधना करना चाहते हैं जिससे उनमें वर्ग संघर्ष होने लगता है जो राष्ट्र की एकता के लिए घातक है।
  4. संकीर्ण दृष्टिकोण- व्यावसायिक आधार पर निर्वाचित प्रतिनिधि, जैसे- बढ़ई, लुहार, मजदूर संकुचित दृष्टिकोण वाले व्यक्ति होते हैं। अतः उनसे उचित कानूनों के बनने की आशा करना ही व्यर्थ है। व्यावसायिक आधार पर गठित विधायिका संकीर्ण दृष्टिकोण वाली होती है।
  5. व्यावसायिक व आर्थिक हितों को अनावश्यक महत्व- व्यावसायिक प्रतिनिधित्व व्यावसायिक व आर्थिक हितों को अनावश्यक महत्व प्रदान करता है। राज्य एक जनकल्याणकारी संस्था है, इसे व्यावसायिक रूप देना अनुचित है। व्यक्ति के समस्त हित 'नागरिक हित' के अन्तर्गत आ जाते हैं। इसलिए राज्य की व्यवस्थापिका में प्रतिनिधित्व व्यवसाय के आधार पर नहीं वरन् नागरिकता के आधार पर दिया जाना चाहिए। मैरियट ने सत्य ही लिखा है कि "नागरिक का महत्व डॉक्टर, वकील, वैश्य अथवा लुहार से कहीं अधिक है।"
  6. संघर्ष की सम्भावना - व्यावसायिक प्रतिनिधित्व प्रणाली को अपनाने पर व्यवस्थापिका में विभिन्न व्यवसायों के प्रतिनिधि पहुँचते हैं। ये प्रतिनिधि अपने-अपने वर्ग के स्वार्थों की पूर्ति में लिप्त रहते हैं जिससे समाज के विभिन्न हितों के बीच कलह-वैमनस्य और संघर्ष पैदा होता है।
  7. अल्पसंख्यकों को उचित प्रतिनिधित्व नहीं- व्यावसायिक प्रतिनिधित्व प्रणाली में विभिन्न व्यवसायों को तो प्रतिनिधित्व प्राप्त हो जाता है किन्तु अल्पसंख्यकों को उनकी जनसंख्या के अनुपात में प्रतिनिधित्व प्राप्त नहीं हो पाता है जो कि उचित नहीं है।
  8. वर्तमान दलीय व्यवस्था के कारण यह प्रणाली अनावश्यक है- राजनीतिक दल आधुनिक शासन-व्यवस्था के आवश्यक अंग हैं। वर्तमान में राजनीतिक दलों के सदस्य विभिन्न व्यवसायों से सम्बन्धित होते हैं। दल की नीति सभी व्यवसायों को ध्यान में रखकर बनायी जाती है। राजनीतिक दलों के आधार पर ही चुनाव लड़े जाते हैं और शासन बहुमत दल की नीति और कार्यक्रम के आधार पर संचालित होता है । राजनीतिक दलों के प्रतिनिधित्व के कारण व्यावसायिक प्रतिनिधित्व अनावश्यक तथा अव्यावहारिक हो जाता है।
  9. व्यवहार में कठिन- व्यावसायिक प्रतिनिधित्व प्रणाली को व्यवहार में अपनाया जाना सम्भव नहीं है। इसको क्रियान्वित करने में अनेक कठिनाइयाँ आती हैं, जैसे- (i) व्यवसायों का वर्गीकरण कैसे किया जाये? ; (ii) व्यवस्थापिका में किसी व्यवसाय को कितने स्थान दिये जायें कि सभी व्यवसायों को प्रतिनिधित्व प्राप्त हो जाये? ; (iii) प्रतिनिधित्व के अनुपात का आधार संख्या हो या उनका महत्व?; (iv) एक ही समय में दो व्यवसाय करने वाले व्यक्ति को किस व्यवसाय में माना जाये? ; (v) यदि व्यक्तियों द्वारा समय-समय पर व्यवसाय बदला जाये तो उनके प्रतिनिधित्व की व्यवस्था कैसी हो ? इन कठिनाइयों के कारण व्यावसायिक प्रतिनिधित्व प्रणाली को व्यवहार में अपनाना सम्भव हो गया है। इसी कारण यह अभी तक लोकप्रिय नहीं हो सकी है।
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट हो जाता है कि व्यावसायिक प्रतिनिधित्व प्रणाली में सैद्धान्तिक त्रुटियों के साथ-साथ व्यावहारिक कठिनाइयाँ भी हैं। व्यवस्थापिका के निर्वाचन के लिए लोकतान्त्रिक दृष्टि से यह प्रणाली उपयुक्त नहीं है। सम्भवत: इसीलिए अधिकांश देशों में इसे पूर्ण रूप से नहीं अपनाया गया है। लास्की ने लिखा है कि "व्यावसायिक प्रतिनिधित्व के सिद्धान्त में इतनी अधिक त्रुटियाँ हैं कि यह प्रादेशिक प्रतिनिधित्व प्रणाली से किसी भी तरह श्रेष्ठ नहीं है।" आधुनिक युग में यह विचार भी बल पकड़ता जा रहा है कि लोकतन्त्र की सफलता के लिए व्यावसायिक प्रतिनिधित्व को किसी-न-किसी रूप में स्थान दिया जाना चाहिए।

आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली

आधुनिक युग में विश्व के अधिकांश देशों में लोकतन्त्रात्मक शासन-व्यवस्था को अपनाया गया है। लोकतन्त्रात्मक शासन जनता का शासन होता है। इसमें जनता के चुने हुए प्रतिनिधि शासन का 'संचालन करते हैं। लोकतन्त्र जनता का वास्तविक शासन तभी हो सकता है जबकि जनता के सभी वर्गों के लोगों को प्रतिनिधित्व प्राप्त हो। लेविन की बहुमत की प्रतिनिधित्व प्रणाली पर आधारित लोकतन्त्र में समस्त जनता का प्रतिनिधित्व नहीं हो पाता है। लोकतन्त्र 'बहुमत का शासन' बनकर रह जाता है। इसे 'बहुमत का अत्याचार' भी कहा जाता है। अतः लोकतन्त्र के आदर्शात्मक स्वरूप की व्यवस्था के लिए यह आवश्यक है कि बहुसंख्यकों के साथ-साथ अल्पसंख्यकों को भी पर्याप्त प्रतिनिधित्व प्रदान किया जाये जिससे अल्पसंख्यकों के हितों की सुरक्षा हो सके। इस सम्बन्ध में जे. एस. मिल का कथन है कि “यदि अनेक वर्गों को शासन करने का प्राकृतिक अधिकार प्राप्त है तो अल्पसंख्यकों को भी इस बात का समान अधिकार प्राप्त है कि उनकी बातें सुनी जायें।" लैकी के मतानुसार, “अल्पसंख्यकों को उचित प्रतिनिधित्व देने का प्रश्न अत्यन्त महत्वपूर्ण है।" लोकतन्त्र में अल्पसंख्यकों को उनकी संख्या के अनुपात में प्रतिनिधित्व प्रदान करने के लिए आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली का प्रयोग किया जाता है। आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली का प्रतिपादन 18वीं सदी के एक अंग्रेज विचारक थॉमस हेयर ने किया था। अत: उसी के नाम पर इस प्रणाली को हेयर प्रणाली भी कहा जाता है। हेयर ने इस प्रणाली की योजना इस प्रकार की थी- (i) निर्वाचन क्षेत्र विशाल आकार का होना चाहिए; (ii) प्रत्येक निर्वाचन क्षेत्र से कम से कम तीन, चार, पाँच या अधिक उम्मीदवारों का चुनाव होना चाहिए; (iii) प्रत्येक मतदाता को उम्मीदवारों की संख्या के बराबर मत देने का अधिकार होना चाहिए; (iv) निर्वाचित होने के लिए उम्मीदवार को निश्चित संख्या ( Quota) से कम मत प्राप्त नहीं होने चाहिए। निश्चित संख्या ( Quota) निकालने के लिए चुनाव में डाले गये मतों की कुल संख्या को कुल उम्मीदवारों की संख्या से भाग देना होगा।
आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली को आन्द्रे प्रणाली (Andrai System) भी कहते हैं क्योंकि डेनिश मन्त्री आन्द्रे ने सन् 1855 में इसी प्रकार की योजना का प्रयोग किया था।
आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली के अनेक रूप प्रचलित हैं किन्तु इनके मुख्यतया दो रूपों को अपनाया जा सकता है— (i) एकल संक्रमणीय मत प्रणाली एवं (ii) सूची प्रणाली।

1. एकल संक्रमणीय मत प्रणाली
सामान्यतया आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली को एकल संक्रमणीय मत प्रणाली के आधार पर ही अपनाया गया है। इस प्रणाली का प्रयोग बहुसदस्यीय निर्वाचन क्षेत्रों में किया जाता है। प्रत्येक मतदाता को एक मत देने का अधिकार होता है, चाहे निर्वाचन क्षेत्र से चुने जाने वाले सदस्यों की संख्या कितनी भी हो! प्रत्येक मतदाता मतपत्र पर दिये गये उम्मीदवारों के नामों के आगे अपनी पसन्द के अनुसार 1, 2, 3, 4 आदि चिह्न लगाकर अपनी वरीयता प्रकट करता है। वह सभी उम्मीदवारों में से जिसे सबसे अधिक उपयुक्त समझता है अथवा पसन्द करता है, उसके नाम के आगे एक; जिसको उससे कम उपयुक्त समझता है, उसके नाम के सामने दो और इसी प्रकार जितने भी सदस्य निर्वाचित होने हैं, उतनी पसन्द क्रमशः लिख देता है। वरीयता के उल्लेख की यह व्यवस्था इसलिए की जाती है कि यदि कोई उम्मीदवार अपनी लोकप्रियता के कारण निश्चित संख्या से अधिक मत प्राप्त कर लेता है तो ये निश्चित संख्या से अधिक मत व्यर्थ न जायें और इन्हें अन्य उम्मीदवारों को हस्तान्तरित किया जा सके अथवा किसी उम्मीदवार को निश्चित संख्या से बहुत कम मत प्राप्त हुए हों तो उन्हें मतदाताओं द्वारा निर्धारित की गयी वरीयताओं के अनुसार प्रयोग किये जाने के कारण अन्य किसी उम्मीदवार को हस्तान्तरित किया जा सके। मतों के हस्तान्तरण की व्यवस्था के कारण ही इस प्रणाली को 'एकल संक्रमणीय मत प्रणाली' कहा जाता है।

निश्चित मत संख्या (Adequate Election Quota)- आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली के प्रतिपादक के अनुसार निश्चित मत संख्या प्रयुक्त किये गये मतों की संख्या को निर्वाचित होने वाले सदस्यों की संख्या से विभाजित करके निकाली जाती है। इसका सूत्र निम्नांकित है-
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उदाहरणार्थ- मान लीजिए कि कुल प्रयोग किये गये मतों की संख्या 50,000 है और निर्वाचित होने वाले सदस्यों की संख्या 4 है तो प्रत्येक सदस्य के निर्वाचन के लिए निश्चित मत संख्या = 50,000/4=12,500 होगी। इस प्रकार 12,500 मत प्राप्त करने वाला उम्मीदवार ही विजयी होगा।
वर्तमान में इस पद्धति का प्रयोग नहीं किया जाता है क्योंकि अनेक बार इसके परिणाम शुद्ध नहीं निकलते हैं। वर्तमान में 'डूप प्रणाली' का प्रयोग किया जाता है। ड्रप द्वारा प्रतिपादित प्रणाली में निर्वाचित होने वाले उम्मीदवारों की संख्या में एक जोड़कर प्रयुक्त किये गये मतों की संख्या से भाग दिया जाता है तथा प्राप्त भजनफल में भी 1 जोड़ दिया जाता है। तब जो संख्या प्राप्त होती है, उसे निश्चित मत संख्या कहा जाता है।
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मतगणना
निश्चित मत संख्या निकाल लेने के बाद मतों की गणना आरम्भ होती है। यदि किसी उम्मीदवार को प्रथम वरीयता की गणना में ही निश्चित मत संख्या प्राप्त हो जाती है तो उसे निर्वाचित घोषित कर दिया जाता है। यदि उस उम्मीदवार को निश्चित मत संख्या से अधिक मत प्राप्त हुए हैं तो उन मतों को दूसरी पसन्द वाले उम्मीदवार के नाम हस्तान्तरित कर दिया जाता है और उन्हें जोड़कर अन्य उम्मीदवारों का कोटा पूर्ण हो जाने पर उन्हें भी निर्वाचित घोषित कर दिया जाता है। यदि प्रथम वरीयता में प्राप्त मतों की गणना के आधार पर निश्चित संख्या में सदस्य निर्वाचित नहीं होते हैं तो उनके मतों का संक्रमण या हस्तान्तरण कर दिया जाता है। निर्वाचित उम्मीदवारों के निश्चित मत संख्या से अधिक मतों को दूसरी वरीयता के आधार पर उम्मीदवारों के नाम हस्तान्तरित कर दिया जाता है। इस प्रकार जो उम्मीदवार निश्चित मत संख्या प्राप्त कर लेते हैं, उन्हें निर्वाचित घोषित कर दिया जाता है। यदि दूसरी गणना में भी सभी स्थान नहीं भर पाते हैं तो निर्वाचित उम्मीदवारों के मतपत्रों की तीसरी वरीयता के मतों को अन्य उम्मीदवारों में हस्तान्तरित कर दिया जाता है। यदि तीसरी वरीयता के आधार पर भी निश्चित संख्या में सदस्य निर्वाचित नहीं होते हैं तो चौथी, पाँचवीं वरीयता को हस्तान्तरित कर दिया जाता है। इस प्रकार मतों का हस्तान्तरण तब तक होता रहता है, जब तक कि आवश्यक संख्या में सदस्य निश्चित मत संख्या प्राप्त नहीं कर लेते। इस प्रकार एकल संक्रमणीय पद्धति में प्रत्येक मतदाता का मत किसी-न-किसी उम्मीदवार के उपयोग में आ जाता है, कोई भी मत व्यर्थ नहीं जाता है। एकल संक्रमणीय मत प्रणाली जटिल प्रणाली है। इसलिए बहुत कम देशों में इसका प्रयोग किया जाता है। भारत में राज्यसभा तथा विधान परिषद् के चुनाव के लिए एकल संक्रमणीय मत प्रणाली का प्रयोग किया जाता है। नार्वे, स्वीडन, डेनमार्क, फिनलैण्ड आदि देशों में यह प्रणाली प्रचलित है।

2. सूची प्रणाली
आनुपातिक प्रतिनिधित्व का दूसरा रूप सूची प्रणाली है। यूरोप के अनेक देशों में इस प्रणाली को अपनाया गया है। सूची प्रणाली के अन्तर्गत भी बहुसदस्यीय निर्वाचन क्षेत्र होते हैं। एक निर्वाचन क्षेत्र से अनेक-लगभग 15-20 सदस्य चुने जाते हैं। सूची प्रणाली के अन्तर्गत जो उम्मीदवार चुनाव में खड़े होते हैं, दलों के अनुसार उनकी अलग-अलग सूची बना ली जाती है। प्रत्येक दल अपने उम्मीदवारों की सूची प्रस्तुत करता है। इस सूची में उम्मीदवारों की संख्या निर्वाचन क्षेत्रों से चुने जाने वाले प्रतिनिधियों की संख्या से अधिक नहीं होती है। प्रत्येक मतदाता को उतने मत देने का अधिकार प्राप्त होता है जितने प्रतिनिधि चुने जाते हैं। मतदाता अपना मत पृथक्-पृथक् दल के उम्मीदवारों को नहीं दे सकता। उसे केवल एक ही दल और उसकी सूची को मत देना होता है।

उदाहरण
यदि किसी निर्वाचन क्षेत्र से 4 व्यक्ति चुने जाने हैं तो मतदाता को एक ही सूची को चारों मत देने होंगे। इस प्रणाली के अन्तर्गत परिणाम पृथक्-पृथक् उम्मीदवारों को प्राप्त मतों के अनुसार नहीं निकाला जाता वरन् विभिन्न सूचियों को प्राप्त मतों की गणना करके निकाला जाता है। इसके पश्चात् एकल संक्रमणीय मत प्रणाली से निश्चित मत संख्या निकाली जाती है। उस मत संख्या के अनुसार प्राप्त मतों के आधार पर प्रत्येक सूची में कितने उम्मीदवार निर्वाचित होने चाहिए, यह निकाल लिया जाता है। प्रत्येक सूची के उन उम्मीदवारों को निर्वाचित माना जाता है जिन्होंने उस सूची में सबसे अधिक मत प्राप्त किये हैं।

उदाहरण - मान लिया कि किसी निर्वाचन क्षेत्र से 6 उम्मीदवार चुने जाने हैं तथा मतों की संख्या
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अब यदि निर्वाचन क्षेत्र में कांग्रेस, भारतीय जनता पार्टी, समता पार्टी, बहुजन समाज पार्टी, समाजवादी पार्टी, कुल 5 दल हैं और प्रत्येक को क्रमश: 16,000, 11,000, 6,000, 1,000 तथा 1,000 मत प्राप्त होने हैं तो कांग्रेस को (16,000÷ 5,001) = 3 स्थान, भारतीय जनता पार्टी को (11,000 ÷5,001) = 2 स्थान, समता पार्टी को (6,000 ÷5,001) = 1 स्थान प्राप्त होंगे।
बहुजन समाज पार्टी तथा समाजवादी पार्टी को एक भी स्थान प्राप्त नहीं होगा क्योंकि प्राप्त मतों की संख्या निश्चित मत संख्या से बहुत कम है। इस प्रकार कांग्रेस के 3, भारतीय जनता पार्टी के 2 और समता पार्टी का 1 प्रतिनिधि निर्वाचित होगा। सूची प्रणाली में सभी दलों को उनकी शक्ति के अनुपात में प्रतिनिधित्व प्राप्त हो जाता है।

आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली के गुण- आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली के प्रमुख गुण निम्नांकित हैं-

1. सभी वर्गों को उचित प्रतिनिधित्व- आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली का प्रमुख गुण यह है कि इसमें प्रत्येक वर्ग को उचित प्रतिनिधित्व प्राप्त हो जाता है। इसमें बहुसंख्यक तथा अल्पसंख्यक दोनों को अपनी जनसंख्या के अनुपात में प्रतिनिधित्व प्राप्त हो जाता है। परिणामस्वरूप जनता के सभी वर्ग राजनीतिक कार्यों में रुचि लेने लगते हैं।

2. लोकतान्त्रिक प्रणाली- आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली में सभी व्यक्तियों को शासन में भाग लेने का अवसर प्राप्त होता है। अतः यह प्रणाली लोकतन्त्र के अनुकूल है। लॉर्ड एक्टन के शब्दों में, "यह अति प्रजातन्त्रवादी है क्योंकि इससे उन सहस्त्र व्यक्तियों को शासन में भाग लेने का अवसर मिलता है जिनकी वैसे कोई सुनवाई नहीं होती। अतः यह समानता के सिद्धान्त के निकटतर है क्योंकि किसी भी मत का अपव्यय नहीं किया जाता और प्रत्येक मतदाता व्यवस्थापिका में सदस्य होता है।"

3. अल्पसंख्यकों के हितों की सुरक्षा- आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली में अल्पसंख्यकों को अपनी संख्या के अनुपात में प्रतिनिधित्व प्राप्त होता है जिससे बहुसंख्यकों के निरंकुश बनने का भय नहीं रहता और अल्पसंख्यकों के हित सुरक्षित रहते हैं।

4. मत व्यर्थ नहीं जाते- आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली में एक उम्मीदवार के मतों का हस्तान्तरण दूसरे उम्मीदवार को कर दिया जाता है। अतः इस प्रणाली में मतदाता का मत व्यर्थ नहीं जाता है।

5. मतदाताओं को अधिक स्वतन्त्रता - आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली में मतदाताओं को अपनी वरीयता के उम्मीदवार का चयन करने की पूर्ण स्वतन्त्रता होती है। वे अपनी इच्छानुसार किसी दल या दल के नेताओं को अपना मत दे सकते हैं। इस सम्बन्ध में शुल्ज का मत है कि "एकल संक्रमणीय मतदान प्रणाली निर्वाचकों को अपनी वरीयता के उम्मीदवार चुनने में सबसे अधिक स्वतन्त्रता प्रदान करती है।"

6. राजनीतिक प्रशिक्षण - आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली में प्रत्येक मतदाता उम्मीदवारों को उनकी योग्यता के आधार पर अपना मत देता है। इसके लिए वह उम्मीदवारों की योग्यता तथा उनके दलों के कार्यक्रम का अध्ययन करता है। अतः यह प्रणाली मतदाताओं को राजनीतिक शिक्षा देने का एक श्रेष्ठ माध्यम है।

7. नागरिक चेतना का विकास- आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली के अन्तर्गत सभी वर्गों को व्यवस्थापिका में उचित प्रतिनिधित्व प्राप्त होने के कारण नागरिक, सार्वजनिक क्षेत्र के प्रति उदासीन नहीं रहते हैं। उनमें चेतना जाग्रत हो जाती है।

8. विधानमण्डल का उच्च स्तर- आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली के आधार पर निर्मित विधानमण्डल लोकमत के यथार्थ प्रतिबिम्ब होते हैं। इसके अन्तर्गत निर्वाचकों को प्राप्त राजनीतिक प्रशिक्षण एवं जागृति विधानमण्डल के स्तर को ऊँचा कर देती है क्योंकि लोग उच्च स्तर के प्रतिनिधि चुनना आरम्भ कर देते हैं।

9. योग्य व्यक्तियों का चयन- आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली का प्रयोग करके देश के योग्यतम व्यक्तियों का व्यवस्थापिका में प्रतिनिधित्व सम्भव होता है।

10. भ्रष्टाचार का अन्त- आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली के अन्तर्गत राजनीतिक भ्रष्टाचार का अधिकतम सीमा तक अन्त हो जाता है। इस प्रणाली में किसी भी राजनीतिक दल को पूर्ण बहुमत प्राप्त नहीं हो पाता है जिससे कोई भी राजनीतिक दल अपने सदस्यों को अनुचित रूप से लाभ पहुँचाने की स्थिति में नहीं होता।

11. न्यायपूर्ण व्यवस्था - आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली सर्वाधिक न्यायपूर्ण व्यवस्था है क्योंकि इसमें समाज के सभी वर्गों को उनकी संख्या के अनुपात में उचित प्रतिनिधित्व प्राप्त हो जाता है।

12. जैरीमैण्डरिंग आदि बुराइयों का अन्त- जैरीमैण्डरिंग से आशय है कि शासक दल अपने लाभ की दृष्टि से निर्वाचन क्षेत्र में मनमाने तरीके से अनुचित परिवर्तन कर देता है। जैरीमैण्डरिंग प्रथा को एक-सदस्यीय निर्वाचन क्षेत्र में अपनाया जा सकता है लेकिन आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली में निर्वाचन क्षेत्र बहुसदस्यीय होने के कारण जैरीमैण्डरिंग जैसी बुराइयों का अन्त हो जाता है।

आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली के दोष- आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली के प्रमुख दोष अग्रांकित हैं-

1. जटिल पद्धति- आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली अत्यधिक जटिल है जिसके कारण साधारण मतदाता इसे भली प्रकार समझ नहीं पाते। इस पद्धति की निर्वाचन प्रक्रिया तथा मतगणना प्रक्रिया अत्यधिक कठिन है। प्रो. लास्की के शब्दों में, “निर्वाचन पद्धति में जटिलता (मत-पत्र पर अपनी पसन्द लिखना, निर्वाचन कोटा निकालना, मतों को पसन्द के अनुसार छाँटना आदि) का परिणाम यह होगा कि जनता में राजनीति के प्रति उदासीनता उत्पन्न हो जायेगी। "

2. वास्तविक प्रतिनिधित्व का अभाव- आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधि जनता का नहीं वरन् उस दल या वर्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं जिसके आधार पर वे निर्वाचित होते हैं। इस प्रकार आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली में जनता का वास्तविक प्रतिनिधित्व सम्भव नहीं है।

3. निर्वाचकों और निर्वाचितों में सम्पर्क का अभाव- आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली में बड़े-बड़े निर्वाचन क्षेत्र होते हैं। एक ही निर्वाचन क्षेत्र से अनेक प्रतिनिधियों का निर्वाचन होने के कारण निर्वाचकों और निर्वाचितों में कोई सम्पर्क नहीं रहता है। प्रतिनिधि मतदाताओं की अपेक्षा दलीय निष्ठा को अधिक महत्व देते हैं। डॉ. फाइनर का विचार है कि "इसे अपनाने से छोटे-छोटे निर्वाचन क्षेत्रों का मनोवैज्ञानिक मूल्य नष्ट हो जाता है और प्रतिनिधि द्वारा अपने क्षेत्र की देखभाल प्रायः समाप्त हो जाती है। "

4. अस्थायी सरकारों का निर्माण- आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली में किसी एक दल को पूर्ण बहुमत प्राप्त नहीं हो पाता है परिणामस्वरूप मिले-जुले मन्त्रिमण्डल का गठन किया जाता है। ये मन्त्रिमण्डल अस्थायी होते हैं क्योंकि ये कभी भी समाप्त हो सकते हैं। यह प्रशासन की एकता तथा उत्तरदायित्व को भी नष्ट कर देते हैं। मिले-जुले मन्त्रिमण्डल का प्रयोग सभी स्थानों पर असफल हुआ है। डॉ. फाइनर का कथन है कि "विभाजनों तथा पृथक्करण को प्रोत्साहित करके यह कार्यकारिणी के स्थायित्व को आघात पहुँचाती है।"

5. वर्गीय हितों को प्रोत्साहन- आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली के अन्तर्गत व्यवस्थापिका में विभिन्न वर्गों को प्रतिनिधित्व प्राप्त होता है। इनके द्वारा सभी समस्याओं पर राष्ट्रीय हित की अपेक्षा वर्गीय हितों की दृष्टि से ही विचार किया जाता है। सिजविक के मतानुसार, "वर्गीय प्रतिनिधित्व आवश्यक रूप से दूषित वर्गीय व्यवस्थापन को प्रोत्साहित करता है। "

6. राष्ट्रीय एकता के विरुद्ध- आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली समाज को छोटे-छोटे स्वार्थमूलक गुटों में विभाजित कर देती है। इन गुटों के पास राष्ट्रीय स्तर के सामाजिक-आर्थिक कार्यक्रमों का अभाव होता है। ये गुट समाज में गुटबन्दी तथा संकीर्णता का प्रचार करते हैं जो कि राष्ट्रीय एकता के विरुद्ध है। इस सम्बन्ध में डायसी का कथन है कि “इससे अनेक छोटे-छोटे दल बन जायेंगे जो एक-दूसरे को लाभ पहुँचाने का प्रयास करेंगे जिससे राष्ट्रीय हितों की हानि होगी।" फाइनर भी इसी मत को प्रकट करते हुए कहते हैं कि "इससे (आनुपातिक प्रतिनिधित्व से) सम्पूर्ण राष्ट्र में अनेक गुट या समूह बन जाते हैं जो राष्ट्रीय एकता के लिए घातक होते हैं।"

7. सूची प्रणाली में मतदान राजनीतिक दलों के लिए- आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली का एक दोष यह भी है कि इसकी सूची प्रणाली में मतदान उम्मीदवारों के लिए नहीं वरन् दलों के लिए होता है जो कि पूर्णरूपेण अनुचित है ।

8. अनेक राजनीतिक दलों और गुटों की उत्पत्ति- आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली को अपनाने से प्रत्येक वर्ग को पृथक् प्रतिनिधित्व प्राप्त हो जाता है। परिणामस्वरूप राजनीतिक दलों और गुटों की संख्या में बहुत अधिक वृद्धि हो जाती है। इस सम्बन्ध में लास्की का कथन सत्य है कि "इसके अन्तर्गत अनेक राजनीतिक दलों और गुटों का जन्म हो जाता है।"

9. श्रेष्ठ कानूनों का बनना असम्भव- आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली में श्रेष्ठ कानूनों का बनना सम्भव नहीं है क्योंकि व्यवस्थापिका में विभिन्न प्रकार के विचारों वाले सदस्य होते हैं और उनमें परस्पर संघर्ष होते रहते हैं। इससे निम्न स्तर के कानून बनने लगते हैं। इन कानूनों में विवेक और सन्तुलित दृष्टिकोण का अभाव होता है। सिजविक के शब्दों में, “यह प्रणाली निम्न कोटि के वर्गीय कानून बनाने को प्रोत्साहन देती है।"

10. उपचुनाव की व्यवस्था का अभाव- आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली का एक दोष यह भी है कि यदि कोई स्थान रिक्त हो जाता है तो उसके लिए इस प्रणाली में कोई व्यवस्था नहीं की गयी है, जबकि उपचुनाव लोकमत का दर्पण समझे जाते हैं। इस सम्बन्ध में डॉ. फाइनर का विचार है कि "उपचुनाव से यह ज्ञात होता है कि हवा किस ओर बह रही है किन्तु इस प्रकार के उपचुनाव आनुपातिक प्रणाली में सम्भव नहीं हैं।"

11. अपव्ययी प्रणाली- आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली में निर्वाचन क्षेत्र बहुसदस्यीय होते हैं जिनकी व्यवस्था करने में बहुत अधिक धन व्यय होता है। निर्वाचन क्षेत्र बड़े होने के कारण उम्मीदवार को अपने चुनाव प्रचार में बहुत अधिक धन व्यय करना पड़ता है। अतः आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली अत्यधिक खर्चीली है।

प्रो. स्ट्राँग ने आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली की आलोचना करते हुए लिखा है कि "सैद्धान्तिक दृष्टि से आनुपातिक प्रतिनिधित्व सभी प्रकार से श्रेष्ठ प्रतीत होता है किन्तु व्यवहार में स्थिति ऐसी नहीं है। " प्रो. एस्मिन के शब्दों में, "इस पद्धति को अपनाने का परिणाम अव्यवस्था व व्यवस्थापिका की शक्ति में अनावश्यक वृद्धि होगी। मन्त्रिमण्डल अस्थायी होंगे, उनमें एकता का अभाव होगा - और संसदात्मक शासन सम्भव नहीं हो सकेगा।"

निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली में गुण तथा दोष दोनों विद्यमान हैं। इस प्रणाली को केवल उन्हीं देशों में अपनाया जा सकता है जहाँ की जनता शिक्षित हो। विश्व के अनेक देशों में इस प्रणाली को बहुत कम सफलता प्राप्त हो सकी है इसीलिए यह कम लोकप्रिय है।

अन्य प्रणालियाँ

अल्पसंख्यकों को प्रतिनिधित्व प्रदान करने की कुछ अन्य प्रमुख प्रणालियाँ भी हैं जो निम्नांकित हैं-

1. साम्प्रदायिक प्रतिनिधित्व प्रणाली
इस प्रणाली के अनुसार प्रतिनिधित्व की व्यवस्था साम्प्रदायिक आधार पर की जाती है। साम्प्रदायिक प्रतिनिधित्व प्रणाली के अन्तर्गत निर्वाचन क्षेत्र धर्म या सम्प्रदाय के 3. आधार पर बनाये जाते हैं। इसके अतिरिक्त निर्वाचित होने वाले प्रतिनिधियों की संख्या धार्मिक सम्प्रदायों की जनसंख्या के आधार पर निश्चित कर दी जाती है तथा धर्म के आधार पर मतदाताओं का भी पृथक्करण कर दिया जाता है। हिन्दू मतदाता केवल हिन्दू उम्मीदवारों को तथा मुसलमान मतदाता केवल मुसलमान उम्मीदवारों को ही मत दे सकते हैं। इस प्रकार एक सम्प्रदाय के लिए निर्धारित निर्वाचन क्षेत्र से उसी सम्प्रदाय का व्यक्ति ही उम्मीदवार होता है तथा उस सम्प्रदाय के व्यक्तियों द्वारा ही उसका निर्वाचन किया जाता है। इस प्रकार धर्म या सम्प्रदाय पर आधारित पृथक् निर्वाचन क्षेत्र, पृथक् निर्वाचक मण्डल तथा पृथक् प्रतिनिधित्व साम्प्रदायिक प्रतिनिधित्व प्रणाली के आधार हैं।

उदाहरण - भारत में ब्रिटिश शासन ने भारतीयों में फूट डालने के लिए सन् 1909 के अधिनियम द्वारा यह प्रणाली अपनायी थी और इसके आधार पर मुसलमानों को अपना पृथक् प्रतिनिधि चुनने का अधिकार प्रदान किया गया था। सन् 1919 में ब्रिटिश शासन द्वारा सिक्खों को पृथक् प्रतिनिधित्व का अधिकार प्रदान किया गया था। साम्प्रदायिक प्रतिनिधित्व प्रणाली में कुछ गम्भीर दोष हैं। इस प्रणाली- को अपनाने पर संकुचित भावनाएँ फैलती हैं, धार्मिक तथा साम्प्रदायिक विद्वेष उत्पन्न होता है, अलगाववाद की भावना पैदा होती है जिससे राष्ट्रीय भावनाओं को आघात पहुँचता है। सन् 1947 में भारत का विभाजन इस प्रणाली को अपनाने का ही परिणाम था।
इस प्रकार स्पष्ट है कि राजनीतिक उपयोगिता की दृष्टि से यह पद्धति उचित नहीं है और इसको अपनाने के परिणाम विनाशकारी हो सकते हैं।

2. एकत्रित मतदान प्रणाली
एकत्रित मतदान योजना को 'एकत्रीभूत मत प्रणाली' भी कहा जाता है। इस प्रणाली का प्रयोग बहुसदस्यीय निर्वाचन क्षेत्र में ही किया जा सकता है। इस प्रणाली में प्रत्येक मतदाता को उतने ही मत देने का अधिकार प्राप्त होता है जितने सदस्य उस निर्वाचन क्षेत्र से निर्वाचित होने वाले हों। इसके अतिरिक्त, मतदाता को यह अधिकार भी प्राप्त होता है कि वह अपनी इच्छानुसार अपने सभी मतों का प्रयोग किसी एक उम्मीदवार के पक्ष में करे या उन्हें सभी उम्मीदवारों में विभक्त कर दे।

उदाहरण - यदि किसी निर्वाचन क्षेत्र से कुल 4 सदस्यों को निर्वाचित किया जाना है तो प्रत्येक मतदाता को 4 मत देने का अधिकार प्राप्त होगा। वह अपने 4 मत किसी एक उम्मीदवार को दे सकता है अथवा पृथक्-पृथक् उम्मीदवारों को दे सकता है।
एकत्रित मतदान प्रणाली में उन अल्पसंख्यक दलों को भी प्रतिनिधित्व प्राप्त हो जाता है जिन्हें साधारण रीति से निर्वाचन में प्रतिनिधित्व प्राप्त नहीं हो पाता है। यह प्रणाली कुछ जटिल है तथा इसमें मतगणना में बहुत कठिनाई होती है तथा प्रतिनिधित्व का शुद्ध अनुपात प्राप्त नहीं हो पाता है।

3. सीमित मत प्रणाली
अल्पसंख्यकों को उचित प्रतिनिधित्व प्रदान करने की एक अन्य प्रणाली भी है जिसे 'सीमित मतदान प्रणाली' कहा जाता है। यह एकत्रित मतदान प्रणाली के विपरीत है। इस प्रणाली के लिए बहुसदस्यीय निर्वाचन क्षेत्र का होना अति आवश्यक है । इस मत प्रणाली में निर्वाचन क्षेत्र ऐसे होने चाहिए कि कम-से-कम तीन या तीन से अधिक सदस्य चुने जा सकते हों। इस प्रणाली के अन्तर्गत प्रत्येक मतदाता को एक से अधिक किन्तु निर्वाचित होने वाले सदस्यों की संख्या से कम मत देने का अधिकार प्राप्त होता है।

उदाहरण
यदि किसी निर्वाचन क्षेत्र से पाँच सदस्य चुने जाने हैं तो मतदाता को अधिक-से-अधिक चार मत देने का अधिकार प्राप्त होता है किन्तु मतदाता एक उम्मीदवार को एक से अधिक मत नहीं दे सकता।
सीमित मतदान प्रणाली में अल्पसंख्यकों को प्रतिनिधित्व प्राप्त हो जाता है किन्तु उन्हें यह प्रतिनिधित्व जनसंख्या के अनुपात में प्राप्त नहीं हो पाता है। इस प्रणाली को अपनाने पर बड़े तथा सुसंगठित वर्गों को ही प्रतिनिधित्व प्राप्त हो पाता है। दलों की संख्या बहुत अधिक होने पर इस प्रणाली का सफल प्रयोग नहीं हो सकता।

4. द्वितीय मतपत्र प्रणाली
द्वितीय मतपत्र प्रणाली प्रतिनिधित्व को व्यापक तथा न्यायोचित बनाने की एक पद्धति है। इसका मुख्य उद्देश्य यह है कि निर्वाचन क्षेत्र से जो सदस्य चुना जाये, वह कुल मतदाताओं के बहुमत द्वारा समर्थित हो। इस प्रणाली के अन्तर्गत जब एक ही स्थान के लिए 2 से अधिक उम्मीदवार खड़े हों और सबसे अधिक मत प्राप्त करने वाले उम्मीदवार को निरपेक्ष बहुमत (Absolute Majority ) प्राप्त न हो तो पहले मतदान में सबसे कम मत प्राप्त करने वाले उम्मीदवार को निर्वाचन से हटाकर शेष दो के लिए दूसरी बार मतदान कराया जाता है। द्वितीय मतदान में जिस उम्मीदवार को अधिकतम मत प्राप्त होते हैं, उसे निर्वाचित घोषित कर दिया जाता है।

उदाहरण
मान लिया कि किसी निर्वाचन क्षेत्र से अ, ब, स तीन उम्मीदवारों ने चुनाव लड़ा और तीनों को क्रमश: 4,000, 3,000 2,000 मत प्राप्त हुए। इस मतदान में किसी भी उम्मीदवार को निरपेक्ष बहुमत प्राप्त नहीं हुआ। अतः स को पराजित घोषित करके शेष दो के लिए पुनः मतदान कराया जायेगा। इस मतदान में जिस उम्मीदवार को अधिक मत प्राप्त होंगे, उसे निर्वाचित घोषित कर दिया जायेगा।
द्वितीय मतदान प्रणाली में प्रतिनिधित्व अधिक सच्चा होता है। इस दृष्टि से यह प्रणाली उपयोगी है। यह प्रणाली उन क्षेत्रों में ही प्रयुक्त हो सकती है जिनमें एक स्थान के लिए कम-से-कम तीन उम्मीदवार खड़े हुए हों। “इस पद्धति को अपनाने पर दूसरी बार मतदान कराने में समय, धन और श्रम का अपव्यय होता है। यद्यपि इस पद्धति में भी अल्पसंख्यकों को प्रतिनिधित्व प्राप्त हो जाता है किन्तु आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्राप्त नहीं हो पाता।

5. सुरक्षित स्थानयुक्त संयुक्त निर्वाचन प्रणाली
सुरक्षित स्थानयुक्त संयुक्त निर्वाचन प्रणाली का प्रयोग एकसदस्यीय निर्वाचन क्षेत्र में ही किया जाता है। इसके अन्तर्गत अल्पसंख्यक वर्गों के लिए स्थानों की संख्या निश्चित कर दी जाती है किन्तु प्रतिनिधियों का चुनाव उस निर्वाचन क्षेत्र के सभी वर्ग के मतदाताओं द्वारा किया जाता है। इस प्रणाली में विशेष साम्प्रदायिक आधार पर निर्वाचन क्षेत्र नहीं बनाये जाते ।
इस प्रणाली की अच्छाई यह है कि राष्ट्रीय एकता को समाप्त किये बिना ही अल्पसंख्यक वर्गों को उचित प्रतिनिधित्व प्राप्त हो जाता है। इसमें वे ही व्यक्ति चुने जाते हैं जिन्हें सभी वर्गों का समर्थन प्राप्त होता है। ऐसे प्रतिनिधि सार्वजनिक हित के लिए कार्य करते हैं किन्तु इस प्रणाली को स्थायी रूप से लागू करने पर दूसरी जातियाँ भी इस प्रकार की माँग कर सकती हैं जिससे राष्ट्रीय एकता को खतरा उत्पन्न हो सकता है।
भारत में हरिजनों, आदिवासियों तथा अन्य पिछड़ी जातियों को प्रतिनिधित्व प्रदान करने के लिए इस प्रणाली का प्रयोग किया जाता है।

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