सामाजिक न्याय क्या है? अर्थ, परिभाषा, सिद्धान्त | samajik nyay kya hai

सामाजिक न्याय

सामाजिक न्याय का आदर्श एक न्यायपूर्ण सामाजिक व्यवस्था को सुरक्षित तथा विकसित करके व्यक्तियों के कल्याण को बढ़ावा प्रदान करने की परिकल्पना करता है। एक धारणा के रूप में सामाजिक न्याय अपेक्षाकृत नया है। यह बीसवीं सदी में व्यापक उपयोग में आया, यदि इसकी जड़ें इतिहास में खोजी जा सकती हैं। राजनीति विज्ञान की शब्दावली में इस धारणा का उदय विशेषत: इस कथन से हुआ है कि उदार प्रजातन्त्रवर्गीय समाज की मूलभूत समस्याओं यथा - अमीर और गरीब के मध्य की दूरी, साधन सम्पन्न और साधन रहित के मध्य की दूरी, विशेषाधिकार प्राप्त व वंचित लोगों के मध्य की दूरी को कम करने की समस्याओं को सुलझाने में असमर्थ रहा है। उदार प्रजातन्त्र सभी के लिए उचित व अच्छी सामाजिक व्यवस्था को स्थापित करने में असफल रहा।
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सामाजिक न्याय का सिद्धान्त उदार प्रजातन्त्र की इस कमजोरी की तरफ ध्यान आकृष्ट कराता है और उस सामाजिक व्यवस्था को आमन्त्रित करता है, जिसमें प्रत्येक के साथ न्याय और अच्छाई के साथ व्यवहार किया जाता हो।

सामाजिक न्याय का अर्थ

सामाजिक न्याय का तात्पर्य है कि समाज में रहने वाले लोग अधिकाधिक समान हों। समाज सामाजिक न्याय का क्षेत्र है। समाज व्यक्तियों का समूह अथवा संगठन है। इसमें अनेक वर्ग, वर्ण, धर्म, जाति, लिंग तथा समुदाय के लोग निवास करते हैं। सामाजिक सुरक्षा व सामाजिक दृढ़ता के दृष्टिकोण से सार्वजनिक समानता आवश्यक है। सामाजिक न्याय की यह माँग है कि धन तथा विशेषाधिकार से जाग्रत असमानता का निवारण किया जाय। धन, धर्म, जाति, लिंग, जन्म स्थान इत्यादि के आधार पर किसी भी व्यक्ति के साथ न तो पक्षपात किया जाए, न किसी को विशेष सुविधाएँ प्रदान की जायें। सामाजिक न्याय के घेरे में अल्पसंख्यकों के हितों की रक्षा से लेकर गरीबी तथा निरक्षरता के उन्मूलन तक सामान्य हित से सम्बन्धित हर एक कार्यक्रम समाहित है। इसके तहत् श्रमिक वर्ग को शोषण मुक्त रखने का भी विधान है। यह न केवल कानून के सामने समानता व न्यायपालिका की स्वतन्त्रता के सिद्धान्त के पालन से सम्बन्धित है, जैसा कि पश्चिम के विकसित देशों में दिखाई देता है, बल्कि इसका सम्बन्ध विकट सामाजिक बुराइयों यथा निर्धनता, बीमारी, बेरोजगारी तथा भूख के उन्मूलन से भी है जैसा कि विकासशील देशों में परिलक्षित होता है।

सामाजिक न्याय की परिभाषा

'सामाजिक न्याय' शब्द की परिभाषा करते हुए विचारकों ने अपना मुख्य ध्यान सामाजिक हित की अवधारणा पर ही केन्द्रित रखा है। बक्शीश सिंह के शब्दों में, " सामाजिक न्याय का सम्बन्ध व्यक्ति के अधिकारों और सामाजिक नियन्त्रण के बीच सन्तुलन से है जो प्रचलित कानूनों के अन्तर्गत व्यक्ति की वैध आशाओं की पूर्ति सुनिश्चित कर सके और उसे उनके अन्तर्गत लाभों तथा राष्ट्र की एकता एवं समाज की आवश्यकताओं के अनुकूल उसके अधिकारों के किसी उल्लंघन या अतिक्रमण के विरुद्ध सुरक्षा का आश्वासन दें।" सामाजिक न्याय के सम्प्रत्यय में समाज के सामूहिक हित के साथ वैयक्तिक हित के समन्वय पर विशेष बल है। इसके साथ ही बोल्डिंग का विचार है कि "यह सामाजिक परिवर्तन के महान् संग्रह के एक अनिवार्य अंश का गठन भी करता है जिसके लिए बहुतों के हित के लिए किसी वस्तु का बलिदान किया जा सकता है।" अस्तु, सामाजिक न्याय सन्तोष, नियन्त्रण और त्याग से परिवेष्ठित है।
सामाजिक न्याय का अनेक सन्दर्भों में उपयोग होता है। इसी कारण सर सी. के. एलन ने एक सामाजिक टिप्पणी की है- "आजकल हम सामाजिक न्याय के बारे में बहुत सुनते हैं। मुझे विश्वास नहीं कि जो लोग इस शब्द का सगर्व प्रयोग करते हैं वे स्पष्ट रूप से यह जानते हैं कि उससे उनका क्या अभिप्राय है। कुछ का अभिप्राय है- धन का वितरण तथा पुनर्वितरण; कुछ उसकी व्याख्या अवसर की समानता के रूप में करते हैं जो एक भ्रामक शब्द है, अवसर मानवों के बीच कभी समान नहीं हो सकता क्योंकि इसका सदुपयोग करने में लोगों की क्षमता असमान है। मुझे सन्देह है कि अनेक लोगों का अभिप्राय साधारणतया यह है कि किसी व्यक्ति का उनसे अधिक भाग्यशाली होना अन्याय है, तथा अधिक बुद्धिमान लोग ऐसा सोचते हैं कि यही न्याय है- में उसे अपेक्षाकृत दयालु कहूँगा कि कम-से-कम, प्राकृतिक मानवीय असमानता के पक्षों को दूर करने का प्रयास करना चाहिए तथा आत्मसुधार के व्यावहारिक अवसरों के लिए कोई बाधा प्रस्तुत करने के स्थान पर सहायता की जानी चाहिए।" स्पष्टतः सामयिक विषयों में सामाजिक न्याय एक बहुअर्थी संकल्पना है।
सामाजिक न्याय में एक उचित तथा सुन्दर सामाजिक व्यवस्था जो सभी के लिए उचित और सुन्दर है, शामिल है। सामाजिक व्यवस्था को उचित और सुन्दर बनाने हेतु विशेषाधिकार प्राप्त लोगों के माध्यम से सामान्य कल्याण के लिए कुछ त्याग की जरूरत हो सकती है। इस विषय में सामाजिक न्याय एक क्रान्तिकारी आदर्श है। लेकिन, इसका अर्थ दूसरों के समान बनाने के लिए कुछ को नीचे गिराना नहीं है। इसके विपरीत, इसका अर्थ उन लोगों को ऊपर उठाना है जो किन्हीं कारणों से निर्बल और कम अधिकार सम्पन्न हैं और जो जीवन की दौड़ में पीछे रह गये हैं। अतएव सामाजिक न्याय समाज के अधिक निर्बल और पिछड़े वर्गों को विशेष सुरक्षा देता है।
सामाजिक न्याय आर्थिक साधनों व राजनीतिक स्तर की दृष्टि से सभी को एक ही भाँति समानता तक गिराने के कथन को स्वीकृत नहीं करता। यह मूल रूप से व्यक्ति और समाज के हितों के सन्तुलन का द्योतक है। भारतीय सर्वोच्च न्यायालय के भूतपूर्व मुख्य न्यायाधीश के. सुब्बा राव की मान्यता है कि 'सामाजिक न्याय' शब्द के सीमित और व्यापक दो अर्थ हैं। सीमित अर्थ में इसका तात्पर्य है मनुष्य के व्यक्तिगत सम्बन्धों में विद्यित अन्याय का सुधार। विस्तृत अर्थ में यह मनुष्यों की राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक जीवन के असन्तुलन को हटाता है। सामाजिक न्याय को विस्तृत सन्दर्भ में ही करना चाहिए। सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक गतिविधियों का पारस्परिक घनिष्ठ सम्बन्ध होता है, इसी कारण सामाजिक न्याय की प्राप्ति तब ही सम्भव है जब समाज का सर्वमुखी विकास हो। वस्तुतः सामाजिक न्य अच्छे समाज के निर्माण में मददगार होता है। इसका ध्येय है लोक-कल्याण।

सामाजिक न्याय सम्बन्धी डीन रोस्को पौंड की अवधारणा

सामाजिक न्याय का संकल्प समाज के समन्वित विकास की तरफ उन्मुख है। यह लोक कल्याणकारी व्यवस्था का परिचायक है। सामान्य हित का संरक्षण और संवर्द्धन ही उसका लक्ष्य है। जिससे कि एक न्यायपूर्ण सामाजिक व्यवस्था में सभी को विकास का पर्याप्त मौका मिल सके तथा प्रत्येक व्यक्ति को समन्वित विकास का सुख भी प्राप्त हो सके। सामाजिक न्याय के आदर्श का उल्लेख डीन रोस्को पौंड की व्याख्या में मिलता है जिसने सामाजिक न्याय का छः रूपी चित्रण प्रस्तुत किया है तथा आठ विधिक प्रस्तावों का निर्धारण किया है।

सामाजिक न्याय के बारे में पौंड का चित्रण सामाजिक न्याय
सामाजिक हित विधिक आधार-तत्व
(i) सामान्य सुरक्षा में, यथा; शान्ति, सार्वजनिक स्वास्थ्य, अभिग्रहीत वस्तुओं की सुरक्षा आदि। (i) अन्यों द्वारा कोई मनमाना आक्रमण न किया जाये।
(ii) सामान्य नैतिक मानों में, यथा; जुआ, मद्यपान, मानवों का अनैतिक क्रय-विक्रय आदि। (ii) किसी को अभिग्रहीत वस्तुओं और अर्जनाओं के प्रयोग में कोई बाधा नहीं होगी।
(iii) सामाजिक संसाधनों के संरक्षण में, यथा; खाद्य सामग्री, खनिज इत्यादि। (iii) व्यक्तियों को अनुचित जोखिम नहीं उठाने होंगे तथा अन्य लोग सावधानीपूर्वक काम करेंगे।
(iv) सुरक्षा और सामाजिक संस्थाओं में, यथा; विवाह, धार्मिक संस्थाएँ आदि। (iv) जिन पक्षों के साथ लेन-देन किया जाता है, वे सत्यनिष्ठा से कार्य करेंगे।
(v) व्यक्तिगत अधिकारों में; यथा; मजदूरी, कार्य करने की परिस्थितियाँ इत्यादि। (v) कर्मचारी को रोजगार का अधिकार है।
(vi) सामान्य उन्नति में, यथा; व्यापार की स्वतन्त्रता, अनुसन्धान को बढ़ावा आदि। (vi) अन्यों द्वारा रखी गई खतरनाक वस्तुओं को सावधानीपूर्वक उनकी सीमाओं के अन्दर रखा जायेगा।
(vii) औद्योगिक समाज में आवश्यक मानवीय ह्रास की स्थिति से उचित मुआवजा प्रदान किया जायेगा ।
(viii) अगर मनुष्य पर कोई परेशानी आती है, तो समाज उसका साथ देगा।

सामाजिक न्याय - सिद्धान्त का विकासक्रम

सामाजिक न्याय के सम्प्रत्यय का क्रमिक विकास मिलता है। प्लेटो ने अपने ग्रन्थ रिपब्लिक में सामाजिक न्याय का निर्वचन किया है। उसके अनुसार व्यक्ति व राज्य दोनों में सौम्यता है। दोनों में विवेक (Retion), शौर्य (Spirit) और तृष्णा (Appelite) के तत्व विद्यित हैं।
सामाजिक न्याय समाज में रहने वाले अनेक प्रकार के व्यक्तियों, अर्थात् शासक वर्ग, रक्षक वर्ग और उत्पादक वर्ग के माध्यम से अपने निर्धारित कर्तव्यों में निहित है। हर एक व्यक्ति को अपनी प्रकृति के अनुसार एक ही काम करना चाहिए जो उसके लिए सबसे उत्तम रूप से अनुकूल हो। अगर हर कोई अपने स्वभाव अथवा क्षमता के अनुसार अपना काम करता है और दूसरे के कार्य में हस्तक्षेप नहीं करता है तो वह सामाजिक न्याय के सिद्धान्तों का पालन करता है। भारतीय धर्मग्रन्थ गीता में भी सामाजिक न्याय सिद्धान्त का वर्णन मिलता है। गीता में वर्णाश्रम धर्म के अनुकूल ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र को अपने स्वभाव और प्रवृत्ति के अनुसार क्रमश: ज्ञानार्जन, रक्षा, उत्पादन और सेवा का कार्य सौंपा गया है। इन चारों वर्णों के माध्यम से अपने-अपने कार्य करने में ही सामाजिक न्याय की स्थापना हो सकती है।
उपर्युक्त शास्त्रीय सन्दर्भ सामाजिक न्याय की अवधारणा के संकेत मात्र हैं। आधुनिक सन्दर्भों में लोक कल्याणकारी राज्य की धारणा में सामाजिक न्याय का विचार समाहित है। अब इसका सम्बन्ध व्यक्ति के अधिकार, दायित्व व विकासार्थ अवसर की समानता से लगाया जाने लगा है। इसका तात्पर्य समाज के सुविधाविहीन वर्ग को विकास की मुख्य धारा में लाना है और इसके लिए प्रेरणा एवं जरूरी संसाधनों की विशेष व्यवस्था करना है। उदारवादी चिन्तन में सामाजिक न्याय का विचार अवसर की समानता पर अवलम्बित है। यद्यपि कि नकारात्मक उदारवादियों के विचार में सामाजिक न्याय का संकल्प अवसरों की समानता के सन्दर्भ में समानता के सिद्धान्त से टकराता है। यथा; ए. एम. मैक्लीड का कथन है कि अवसर शब्द का तात्पर्य कुछ करने अथवा बनने का या कुछ अन्य वस्तुओं को पाने का अवसर होना चाहिए। अवसर की समानता की बात ऐसी विशिष्टता के बगैर निरर्थक है। मार्क्सवादी चिन्तन से सामाजिक न्याय का संकल्प शोषणमुक्त व वर्गविहीन सामाजिक संरचना पर अवलम्बित है।

सामाजिक न्याय - कल्याणकारी राज्य एवं समाजवाद

आधुनिक सन्दर्भों में हर एक राज्य अपने को लोक कल्याणकारी राज्य के रूप में प्रतिपादित करता है तथा सामाजिक न्याय की स्थापना को अपना आदर्श घोषित करता है। सामाजिक न्याय व समाजवाद दोनों ही 'सामान्य हित' को प्रमुखता प्रदान करते हैं। सामाजिक न्याय आधुनिक कल्याणकारी राज्य का निर्देशक सिद्धान्त बन गया है। सामाजिक सुरक्षा के कदम, जैसा कि बेरोजगारी के मामलों में मदद, प्रसवकालीन लाभ तथा बीमारी, वृद्धावस्था एवं अपंगता के खिलाफ बीमा, समाज के उन सदस्यों को सामाजिक, न्याय दिलाने को उठाये गये हैं जिनके पास अपने भरण-पोषण के स्रोत नहीं हैं और जो अपने परिवारों की देख-रेख नहीं कर पाते।
सामाजिक न्याय केवल सामाजिक सुरक्षा के समान ही नहीं है। यह सामाजिक सुरक्षा से अधिक बड़े अर्थ का सूचक है तथा यह निर्बल व पिछड़े हुओं पर विशेष ध्यान दिये जाने पर बल देता है। सामाजिक न्याय तथा समाजवाद के अर्थों में प्रायः भ्रान्ति उत्पन्न हो जाती है क्योंकि दोनों ही असमानताओं को हटाने का प्रयत्न करते हैं। इन दोनों शब्दों का परस्पर उपयोग करना गलत है। समाजवाद अन्तिम विश्लेषण में उत्पादन के साधनों पर व्यक्तिगत मिल्कियत को खत्म करने का लक्ष्य रखता है। समाजवादी व्यवस्था के अन्तर्गत उत्पादन के समस्त साधन जैसे- भूमि, पूँजी, कारखाने इत्यादि सार्वजनिक अधिकार में ले लिए जाते हैं। एक ऐसी राजनीतिक व्यवस्था में जो सामाजिक न्याय के लिए वचनबद्ध है, इस सीमा तक जानना जरूरी नहीं है। सामाजिक न्याय की माँगों को उस देश में भी पूर्ण किया जा सकता है जिसने पूँजीवाद को अपने आर्थिक व्यवस्था का आधार बनाये रखना नहीं छोड़ा है। जरूरी यह है कि कानून, कर और अन्य युक्तियों से यह सुनिश्चित कर दिया जाये कि अच्छे जीवन हेतु आवश्यक न्यूनतम स्थिति समाज के हर एक सदस्य को अधिकाधिक रूप में उपलब्ध करायी जाएँ। आवश्यक रूप से इसका आशय समृद्ध व्यक्तियों के हाथ से समाज के गरीब वर्गों के हाथ में साधनों का हस्तान्तरण होना है, किन्तु इससे पूँजीवाद - आर्थिक सम्बन्धों का अन्त नहीं होता। सामाजिक न्याय और प्रजातन्त्र के लाभों को जोड़ता है। यह राज्य की हमेशा बढ़ती हुई शक्ति के प्रति व्यक्ति का बलिदान किये बिना आर्थिक एवं सामाजिक असन्तुलनों को दूर करने का प्रयत्न करता है, या जैसा कि भारतीय उच्च न्यायालय ने एक महत्वपूर्ण फैसले में कहा था यह स्वतन्त्रता और सामाजिक नियन्त्रण में सन्तुलन बनाये रखने का प्रयत्न करता है।
सामाजिक न्याय का संकल्प, समाजवाद की ही भाँति असमानता के खिलाफ है। पूँजीवादी समाज में सम्पन्न वर्ग की सुविधाओं व उच्चता को अन्यायपूर्ण नहीं समझा जाता जबकि समाजवादी समाज में इसे अन्यायपूर्ण व शोषणकारी समझा जाता है। असमानताएँ जब सामाजिक अन्याय और शोषण को उत्पन्न करती हैं तब वे अन्यायपूर्ण बन जाती हैं। कौन-सी असमानता अन्यायपूर्ण है, इसका निर्धारण समाज एवं समाज की उत्पादन प्रणाली पर आधारित सामाजिक मूल्यों के माध्यम से किया जाता है। अतएव सामाजिक न्याय समाजवाद के उद्देश्यों को पूरा करने का एक सार्थक कदम है।

सामाजिक न्याय और समानता

आधुनिक राज्यों में समन्वित विकास के लक्ष्य को पाने के लिए समानता पर सबसे अधिक ध्यान दिया जाता है। सामाजिक न्याय मूल रूप से समानता की धारणा पर ही अवलम्बित है। समानता के कारण ही प्रत्येक व्यक्ति उन्नति की दौड़ में भागीदार बनता है और सामाजिक न्याय के चलते हर एक व्यक्ति सामाजिक एवं राष्ट्रीय उपलब्धियों में भी भागीदार बनता है। तो भी, दोनों में एक महत्वपूर्ण विभेद करना चाहिए। उदाहरणार्थ, समानता का महान् विस्तार कानून के सामने समानता के सिद्धान्त एवं समान कानूनी सुरक्षा में मिलता है। इस तरह की समानता का आशय यह लिया जाता है कि किसी के प्रति अथवा खिलाफ किसी प्रकार का पक्षपात नहीं होना चाहिए और यह कि सबके साथ समान व्यवहार होना चाहिए। व्यवहार में इस सिद्धान्त के कठोर पालन से कम-से-कम दो तरह से भिन्न होना जरूरी पाया गया है।
इनमें से एक 'आनुपातिक समानता' के सिद्धान्त को क्रियान्वित करना है। एल. टी. हाबहाउस के अनुसार, व्यवस्था में, हर व्यक्ति की आवश्यकताएँ हैं, प्रत्येक अंग-उपंग के अपने कार्य हैं। न्याय को आवश्यकताओं का परस्पर तालमेल बिठाना है। आवश्यकताओं पर ध्यान देते समय, यह समान आवश्यकताओं के लिए समान रसद, परन्तु इस रसद का कार्यों पर प्रभाव को ध्यान में रखते हुए ही व्यवस्था से तालमेल बिठाता है। इसलिए समाज से व्यक्ति को प्राप्त पारितोषिक न केवल आवश्यकताओं के अनुरूप होना चाहिए, बल्कि उसके द्वारा किये गये कार्यों के मूल्य के अनुरूप भी होना चाहिए। जबकि नागरिकों की मूल आवश्यकताएँ एक जैसी हो सकती हैं, भिन्न नागरिकों के माध्यम से किये गये कार्य समान महत्व नहीं रखते। अगर एक न्यायाधीश को एक क्लर्क से ऊँचा वेतन प्रदान किया जाता है तो ऐसा इसलिए नहीं है कि दोनों की आवश्यकताएँ अलग हैं लेकिन इसलिए कि न्यायाधीश द्वारा किये गये क्लर्क के कार्यों से सामाजिक मूल्यों के स्तर में अधिक ऊँचे ठहरते हैं। समान लोगों के साथ समान व्यवहार होना चाहिए, असमानों के साथ असमान व्यवहार होना चाहिए। किन्तु उद्देश्य असमानताओं को सततता प्रदान करना नहीं, अपितु प्रभावशाली समानता की वास्तविक स्थिति हासिल करना एवं बनाये रखना होना चाहिए। 'आनुपातिक समानता' के सिद्धान्त को रूस जैसे समाजवादी देशों में भी मान्यता मिली है, क्योंकि इन देशों में भी वैज्ञानिक, कलाकार और नौकरशाही लोग कारखानों के अथवा खेतिहर मजदूरों से अधिक आमदनी वाले होते हैं। इस सिद्धान्त को सैद्धान्तिक रूप में समझना सरल है, किन्तु व्यवहार में लाना बहुत कठिन है।
समानता के सिद्धान्त के दृढ़ और समरूप क्रियान्वयन से हट कर एक और मत है जिसे भारत में रक्षात्मक भेद-भाव के नाम से जाना जाता है। इस सिद्धान्त में समाज के निर्बल और पिछड़े हुए वर्गों, जैसे कि औरतें परिगणित जातियाँ अथवा जनजातियाँ और अन्य आर्थिक या सामाजिक रूप से पिछड़े वर्गों के पक्ष में भेद समाहित है। यह भेद कुछ विशिष्ट छूटों का रूप ले लेता है, जैसे कि शिक्षा संस्थाओं में एवं सार्वजनिक सेवाओं में स्थानों का आरक्षण और आर्थिक मदद की व्यवस्था उन विद्यार्थियों के लिए जो इन वर्गों से सम्बन्धित हैं। एक दृष्टि से इसे निर्बल वर्गों के लिए पक्षपातपूर्ण व्यवहार कहा जा सकता है। जो भी हो, यह केवल एक मत का दृष्टिकोण है। अधिकार शून्यों को विशेष छूट प्रदान किए जाने का उद्देश्य विशेष लाभ प्रदान किया जाना नहीं है। दूसरी ओर उद्देश्य उन्हें धीरे-धीरे उस स्तर तक उठाना है जहाँ वह समाज के अन्य वर्गों के साथ बराबरी के दर्जे से प्रतियोगिता कर सकें।
ऐसी परिस्थितियों में अवसर की पूर्ण समानता पर सैद्धान्तिक बल प्रदान करना प्रभाव स्वरूप असमानता को बढ़ावा देगा। इसी असमानता को 'रक्षात्मक भेद-भाव' खत्म करने का कार्य करता है। के. सुब्बाराव ने एक अच्छे उदाहरण से इसे समझाया है, अगर दो घोड़ों, एक प्रथम श्रेणी का तथा दूसरा द्वितीय या तृतीय श्रेणी का, को एक ही स्थान से एक मील की दौड़ में दौड़ाया जाए तो यह स्पष्ट है कि सैद्धान्तिक तौर पर दौड़ के लिए समान अवसर प्रदान किया गया है, किन्तु अवसर समान नहीं हैं क्योंकि पहले की अपेक्षा दूसरा घोड़ा कमजोर हालत में होता है और उसका दौड़ के शुरू में हार जाना निश्चित है। अतएव उन दोनों को समान अवसर प्रदान करने के लिए बाद वाले घोड़े को दौड़ने को कम दूरी दी जाए या पहले वाले को बाद वाले की कमी को पूर्ण करने के लिए रुकावट दी जाए। इसी तरह जिन्दगी की दौड़ में अगर न्यूनाधिकार प्राप्त लोगों को आकस्मिक मदद नहीं दी जाती तो यह कहना गलत होगा कि उन्हें उन्नत लोगों के समान अवसर मिले हैं। अतएव सुरक्षात्मक भेद-भाव अथवा पक्षपातपूर्ण व्यवहार का न्यूनाधिकार प्राप्त लोगों को दिया जाना समानता के सिद्धान्त का उल्लंघन नहीं कहना चाहिए। यह असमान प्रतियोगियों के मध्य प्रतियोगिता को अधिक समान बनाने का प्रयत्न है जो अन्यथा समान नहीं हो सकती। दूसरे शब्दों में, यह सामाजिक न्याय विपरीत न होकर परस्पर पूरक हैं।

सामाजिक न्याय - भारत की स्थिति

सामाजिक न्याय के सिद्धान्त की समकालीन राज्यों में व्यापक स्वीकृति देखने को मिलती है। राजनीतिक विचारकों एवं समाज सुधारकों के प्रयासों के फलस्वरूप यह माना जाने लगा है कि सामाजिक और आर्थिक असमानताएँ प्रकृति प्रदत्त न होकर सामाजिक शक्तियों की देन होती हैं, और इन्हें अगर पूरी तरह खत्म नहीं किया जा सकता तो काफी हद तक कम जरूर किया जा सकता है। इस तरह की मान्यता के पीछे वास्तविक शक्ति विपन्नों और अधिकार वंचित लोगों का अन्याय के खिलाफ प्रतिरोध और संघर्ष रहा है। संयुक्त राज्य अमेरिका, इंग्लैण्ड और पश्चिम के विभिन्न देशों में वृहद् स्तर पर सामाजिक सुरक्षा प्रदान की जाती है जिससे कि बेरोजगार, वृद्ध और बीमार लोगों को अपने पूर्ववर्तियों की भाँति कष्ट न उठाना पड़े। स्कैण्डनेवियाई देश स्वीडेन में आर्थिक असमानता को इस सीमा तक कम कर दिया गया है। कि हर एक नागरिक के लिए उपयुक्त जीवन की स्तर की प्राप्ति सुनिश्चित है।
जहाँ तक भारत का प्रश्न है, सामाजिक न्याय का तात्पर्य है समाज में पक्षपात का न होना और समाज में समस्त वर्गों तथा व्यक्तियों को अपने विकास और प्रगति के समुचित अवसर मिलना और अपने रीति-रिवाजों, परम्पराओं, धर्मों, विश्वासों के पालन की पूरी स्वतन्त्रता होना। भारत के सामाजिक न्याय के उद्देश्य की प्राप्ति के लिए संवैधानिक व्यवस्था की गई है। भारतीय संविधान की प्रस्तावना में ही सामाजिक न्याय के आदर्श को प्रतिष्ठित किया गया है। सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक को भारतीय राजनीतिक व्यवस्था के आदर्श स्तम्भों में से एक माना गया है, अन्य तीन आदर्श हैं - स्वतन्त्रता, समानता और बन्धुता।
संविधान के अनुच्छेद 15-18 में सामाजिक भेद-भाव को खत्म करने, शिक्षा व सार्वजनिक नौकरियों में समान अवसर उपलब्ध कराने, अस्पृश्यता को खत्म करने का प्रयत्न किया गया है। अनुच्छेद 15 के अनुसार राज्य को आदेश दिया गया है कि वह धर्म, जाति, जन्म-स्थान, लिंग आदि किसी भी आधार पर किसी नागरिक के खिलाफ भेद-भाव नहीं करेगा। इसी के साथ यह निर्देश दिया गया है कि धर्म, जाति, लिंग, जन्म-स्थान आदि किसी भी आधार पर किसी नागरिक पर कोई प्रतिबन्ध, सीमा या अयोग्यता, सार्वजनिक स्थानों पर आने-जाने या सार्वजनिक सुविधाओं, राज्य द्वारा स्थापित सार्वजनिक स्थान के प्रयोग में नहीं लगायी जाएगी। मात्र अपवाद यह है कि राज्य पर महिलाओं, बच्चों, अनुसूचित जातियों और जनजातियों तथा सामाजिक एवं शिक्षा की दृष्टि से पिछड़े हुए वर्गों के लिए विशेष व्यवस्था करने पर कोई रोक नहीं होगी। अनुच्छेद 16 के अन्तर्गत सरकारी नौकरियों में सभी नागरिकों को समान अवसर प्रदान किये जाने का आश्वासन दिया गया है और इस मामले में किसी के खिलाफ धर्म, जाति, लिंग, निवास-स्थान इत्यादि किसी आधार पर कोई पक्षपात नहीं किया जाएगा।
चंपाकन डीराइराजन के सुप्रसिद्ध मामले ने 15 तथा 16 अनुच्छेदों में लिखित मौलिक अधिकारों एवं अनुच्छेद 46 में लिखित निर्देश सिद्धान्तों, जो राज्य पर समाज के निर्बल वर्गों के शैक्षणिक और आर्थिक हितों को बढ़ावा देने और उन्हें सामाजिक अन्याय अथवा अन्य तरह के शोषण से सुरक्षित रखने की जिम्मेदारी डालते हैं, के मध्य के अन्तर्विरोध को समक्ष ला दिया। संविधान के इन दो प्रावधानों के मध्य के संघर्ष को अनुच्छेद 15 को सुधार कर दूर किया गया। संशोधित अनुच्छेद के अन्तर्गत राज्य समाज के कमजोर वर्गों के पक्ष में 'रक्षात्मक भेद' को क्रियान्वित कर सकता है। अत: सामाजिक न्याय की माँग को औपचारिक समानता से अधिक प्राथमिकता प्रदान की गयी। संविधान का 17वाँ अनुच्छेद अस्पृश्यता का उन्मूलन करके सामाजिक न्याय के पक्ष को बढ़ावा प्रदान करता है।
अनुच्छेद 18 में राज्य द्वारा नागरिकों को उपाधियाँ प्रदान किए जाने पर प्रतिबन्ध लगाया गया है। इन समस्त उपबन्धों का तात्पर्य सामाजिक समानता स्थापित करना है जो सामाजिक न्याय का एक अभिन्न अंग है। अतएव सामाजिक न्याय की अवधारणा में भेद-भाव को खत्म करना और सामाजिक सम्बन्धों में समानता स्थापित कर ऊँच-नीच का भेद खत्म करना मुख्य लक्ष्य है।
अनुच्छेद 23-30 भी सामाजिक न्याय के अन्य पक्षों के परिचायक हैं। अनुच्छेद 23 के अनुसार मनुष्यों का व्यापार जैसे व्यभिचार हेतु महिलाओं का क्रय-विक्रय एवं बेगार पर प्रतिबन्ध लगाया गया है। और 14 वर्ष से कम आयु के बच्चों को खानों, फैक्ट्रियों तथा अन्य खतरनाक कार्यों में लगाया जाना निषिद्ध किया गया है। अनुच्छेद 25-28 में समस्त नागरिकों को धार्मिक स्वतन्त्रता और 29-30 में शिक्षा, संस्कृति, भाषा एवं लिपि के संरक्षण के अधिकार प्रदान किए हैं जिससे कि प्रत्येक व्यक्ति और व्यक्ति-समूह, विशेषकर अल्पसंख्यक वर्ग अपने धर्म, विश्वास, पूजा, पूजागृहों, भाषा, लिपि, संस्कृति के विषय में सुरक्षित अनुभव कर सकें और इनकी प्रगति एवं अभिवृद्धि करने के समान अवसर प्राप्त हो सकें। इस तरह भारतीय संविधान सामाजिक न्याय का व्यापक और विस्तृत निरूपण करता है।

सामाजिक न्याय के आर्थिक क्षेत्र (सीमाओं) की राज्य-नीति के निर्देशक सिद्धान्तों से सम्बन्धित अध्याय के निम्नांकित प्रावधानों में दिखाया गया है-

अनुच्छेद 38 - राज्य एक ऐसी सामाजिक व्यवस्था की प्राप्ति तथा संरक्षण द्वारा, जिसमें सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय राष्ट्रीय जीवन के समस्त संस्थाओं का मार्गदर्शन करता है, जन-सामान्य की भलाई को बढ़ावा देने का प्रयत्न करेगा।

अनुच्छेद 39 - विशेषतः राज्य अपनी नीति को इन चीजों की उपलब्धि हेतु निर्देशित करेगा-
  • (क) कि पुरुष और स्त्री सभी नागरिकों को समान रूप से जीविका के पर्याप्त साधन प्राप्त करने का अधिकार हो;
  • (ख) कि समुदाय के भौतिक संसाधनों का स्वामित्व और नियन्त्रण इस प्रकार बँटा हो जिससे सामूहिक हित का सर्वोत्तम रूप से साधन हो;
  • (ग) कि आर्थिक व्यवस्था इस प्रकार चले जिससे धन और उत्पादन-साधनों का सर्व साधारण के लिए अहितकारी संकेन्द्रण न हो;
  • (घ) कि पुरुषों और स्त्रियों दोनों का समान कार्य के लिए समान वेतन हो;
  • (ङ) कि पुरुष और स्त्री कर्मकारों के स्वास्थ्य और शक्ति का तथा बालकों की सुकुमार अवस्था का दुरुपयोग न हो और आर्थिक आवश्यकता से विवश होकर नागरिकों को ऐसे रोजगारों में न जाना पड़े जो उनकी आयु या शक्ति के अनुकूल न हों।

अनुच्छेद 43 - मजदूरों हेतु जीवनोपयोगी वेतन प्राप्त कराने का राज्य प्रयास करे।

अनुच्छेद 46 - कि राज्य समाज के निर्बल वर्गों के शैक्षणिक और आर्थिक हितों की विशेषतः वृद्धि करें और उनका सामाजिक अन्याय और समस्त प्रकार के शोषण से संरक्षण करें।

अनुच्छेद 47 - कि राज्य अपने लोगों के पौष्टिक स्तर व जीवन स्तर को ऊपर उठाने तथा सामाजिक स्वास्थ्य को उन्नत करने को अपने प्राथमिक कर्तव्यों में समझे ...।

उपर्युक्त प्रावधान सामाजिक क्रान्ति के प्रति वचनबद्धता के सार को दर्शाते हैं। ये न्याय और औचित्य पर आधारित सामाजिक व्यवस्था की अच्छी योजना प्रकट करते हैं।

व्यावहारिक दृष्टि से अस्पृश्यता के उन्मूलन एवं स्त्रियों को पुरुषों के साथ समान स्तर पर लाने हेतु कानून बनाये गये हैं। इन उद्देश्यों को ध्यान में रखकर, जहाँ तक हिन्दुओं का सम्बन्ध है, विवाह और विरासत सम्बन्धी कानूनों में बदलाव किया गया है। परिगणित जातियों, जनजातियों एवं पिछड़ी जातियों की स्थिति सुधारने के लिए कानूनी एवं प्रशासकीय कदम उठाये गये हैं। इन जातियों से हीनता के कलंक को दूर करने हेतु और भेद-भाव के वजन को उठाने हेतु रियायतों और आरक्षण की व्यवस्था काम में लायी जाती रही है। राष्ट्रीय योजना आर्थिक प्रगति को वितरण के न्याय के साथ पाने के घोषित उद्देश्य के अनुरूप चलाया गया है। कृषि में आर्थिक सम्बन्धों के पुनः निर्माण हेतु भूमि-सुधारों का कार्यक्रम चलाया गया है। एकाधिकार की बढ़ोत्तरी और सम्पत्ति के कुछ हाथों में केन्द्रीकरण को रोकने के लिए कानून बनाये गये हैं तथा संस्थाएँ बनाई गई हैं।
वस्तुत: सामाजिक न्याय के हित में अपनाए गये वैधानिक ढंगों और आर्थिक योजनाओं की वास्तविक उपलब्धियाँ अपेक्षाओं के अनुरूप नहीं रही हैं। भारत अभी भी सामाजिक तथा राजनीतिक समानता वाले समाज से अत्यधिक दूर है। यह घोषित उद्देश्यों और वास्तविक उपलब्धियों के मध्य का अन्तर्विरोध भारतीय जीवन का सत्य है तो इसका कारण राजनीतिक व्यवस्था के मुख्य अंगों में दृढ़ता से छुपे हुए समाहित स्वार्थों को शक्ति में खोजना चाहिए। ये स्वार्थ इतने शक्तिशाली होते हैं कि सामाजिक बदलाव लाने वाले कानूनों में बहुत कुछ बचाव के रास्ते छुड़वा लेने में सक्षम होते हैं। ऐसे अधिनियमित कानूनों के कार्यान्वयन को अवरुद्ध कर हतोत्साहित करने हेतु वे नौकरशाही से भी सांठ-गांठ बिठाने में सक्षम होते हैं। जब किसी भी व्यक्ति के लिए सामाजिक न्याय के घोषित उद्देश्यों के अनुरूप आचरण की हमारी अपनी असफलता पर निराश होने के कारण उपलब्ध हों तो भी यह मानना औचित्यपूर्ण है कि कुछ तो उन्नति हुई ही है। इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि भारत में सामाजिक क्रान्ति की दिशा स्पष्टत: निर्धारित है लेकिन आवश्यकता है लक्ष्य की ओर दृढ़तापूर्वक बढ़ने का संकल्प।
भारतीय राजनीतिक चिन्तन में सामाजिक न्याय की अवधारणा वैसे तो काफी पुरानी है, लेकिन 1990 के उत्तरार्द्ध के पूर्व वह राजनीतिक बहस के केन्द्र में स्थापित नहीं थी। गाँधी से लेकर अम्बेडकर तक ने उस मुद्दे पर गहन विचार किया है और अपने-अपने ढंगों से उसे प्राप्त करने के उपाय भी सुझाए हैं, लेकिन उसे व्यावहारिक राजनीति के जरिए प्राप्त करने का अवसर तो इस सदी के अन्तिम दशक में ही उत्पन्न हुआ। 1990 में तत्कालीन प्रधानमन्त्री श्री विश्वनाथ प्रताप सिंह को कतिपय राजनीतिक कारणों से मण्डल आयोग की सिफारिशों को पारित करने का ऐलान करना पड़ा था। उनका यह प्रतापी ऐलान उनकी सरकार तो नहीं बचा सका था, लेकिन उससे उत्तर भारत की राजनीति में एक तूफान अवश्य उठ खड़ा हुआ था। मण्डल के बवंडर में पुराने राजनीतिक धुरंधर एक-एक कर उड़ने लगे थे तथा उनकी जगह आत्मघोषित सामाजिक न्यायवादियों की नयी पांत पालथी मारने लगी थी। देखते-ही- देखते कुछ समय के लिए सर्वश्री मुलायम सिंह यादव, श्री लाल प्रसाद यादव एवं श्री कांसीराम भारतीय राजनीति के नियंता बन बैठे थे।
सामाजिक न्याय के संकल्प का विकास करने के लिए दुरुह भारतीय सामाजिक संरचना की लगभग अवसान की तरफ बढ़ रही जाति-व्यवस्था को आधार बना दिया गया तथा इसी में अगड़े- पिछड़े का निर्धारण कर दिया गया। परिणामतः नियोजित विकास के स्थान पर प्रायोजित उन्माद की स्थिति पैदा हो गई। सामाजिक गतिशीलता, समरसता तथा विकासोन्मुखी प्रवृत्ति हेतु जाति व्यवस्था के सामाजिक मनोविज्ञान को समझना जरूरी है। जाति-व्यवस्था में जातियाँ एक के ऊपर एक इस भाँति व्यवस्थित की गई हैं कि प्रत्येक ऊपर वाली जाति अपने से नीचे वाली जाति से श्रेष्ठ हो जाती है। अर्थात् शीर्ष तथा पाद पर स्थित जातियों को छोड़कर समस्त जातियों को किसी-न-किसी से श्रेष्ठ होने की सुविधा प्राप्त हुई है। वृथा आत्मसन्तोष की यह सुविधा किसी भी जाति को जाति व्यवस्था का विरोध नहीं करने देती। उन्हें उल्टे उसे वैधता प्रदान करती है। संस्कृतीकरण की प्रक्रिया में छिटपुट ढंग से विभिन्न जातियों की हैसियत में बदलाव होता रहा है, परन्तु यह बदलाव कभी भी जाति व्यवस्था के सांगठनिक सिद्धान्तों को चुनौती नहीं दे सका। ब्राह्मणवादी जीवन शैली के संस्कार को समस्त जातियों ने मानव संस्कार के रूप में अपनाया है।
लोकतन्त्र सामान्य हित के मुद्दों पर तार्किक अनुमति का नाम है। इसमें विरोध की स्वीकृति होती है, उसके बर्बर शमन हेतु स्थान नहीं होता। इसकी महत्ता लोक कल्याण में है; समन्वित विकास में है; स्वस्थ प्रतियोगिता एवं प्रतिस्पर्द्धा में है तथा समस्याओं के बातचीत के द्वारा समाधान में है। इतिहास इस बात का साक्षी है कि उन्माद से प्राप्त लोकप्रियता बहुधा लोकविरोधी प्रवृत्तियों को ही पैदा करती है। उदाहरण के लिए, नेपोलियन और हिटलर भी लोकतन्त्रीय लोकप्रियता के सहारे ही तानाशाह बने थे। अतएव सामाजिक न्याय के नाम पर पारस्परिक अविश्वास पैदा करने के स्थान पर सर्वमंगल की व्यवस्था होनी चाहिए। वस्तुस्थिति यह है कि संवैधानिक उपबन्धों एवं विधिक प्रक्रियाओं से भिन्न व्यावहारिक राजनीति में 'सामाजिक न्याय' का नारा व उसके प्रति अनेक राजनीतिक दलों की प्रतिबद्धता का उद्घोष सामान्य निर्वाचन के समय सफलता का एक धारदार हथियार माना जाने लगा है। औपचारिक राजनीति में सामाजिक न्याय को आम मुहावरा बनाने के कवायद में वर्तमान में सभी दल व नेता शामिल हैं। अन्ततः यह सामाजिक बदलाव एक स्थान पर राजनीतिक बदलाव का विषय बन गया है।

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