समानता क्या है? अर्थ, परिभाषा, स्वरूप महत्व | samanta kya hai

समानता

स्वतन्त्रता की ही भाँति 'समानता' का सिद्धान्त भी सदैव लोगों के आकर्षण का केन्द्र रहा है। जॉन लॉक ने स्वतन्त्रता की तरह समानता को भी व्यक्ति का नैसर्गिक अधिकार माना है। अमेरिका की स्वातन्त्र्य-घोषणा में कहा गया है कि "सभी मनुष्य जन्म से ही स्वतन्त्र व समान हैं।” (All men are created equal)।
तकनीकी और औद्योगिक विकास के परिणामस्वरूप किसी सीमा तक समाज की निर्धनता कम हुई है और सामाजिक असमानताएँ भी घटी हैं। आर्थिक विषमताएँ अवश्य अस्तित्व में हैं किन्तु साम्यवादी देशों में लोगों की न्यूनतम आवश्यकताएँ अवश्य पूरी हो जाती हैं। अमेरिका और पश्चिमी यूरोप के देशों में तो अब 'रोजी-रोटी' के लिए नहीं, 'आराम और विश्राम' (Comfort and Leisure) 'के लिए संघर्ष जारी है।
samanta kya hai
सामाजिक और आर्थिक विषताओं को घटाने में 'समानता' (Equality) के सिद्धान्त ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। यहाँ हम समानता के अर्थ, उसके स्वरूप तथा विभिन्न प्रकारों की विस्तार से विवेचना करेंगे।

समानता का अर्थ व स्वरूप

समानता का गलत अर्थ
लोकतन्त्र के तीन आधार स्तम्भ माने गये हैं- स्वतन्त्रता, समानता तथा बन्धुता (Liberty, Equality and Fraternity) किन्तु ऐतिहासिक दृष्टि से समानता के आदर्श की स्थापना स्वतन्त्रता के बाद हुई है। प्राचीन विचारक 'समानता' की बातों को संशय की दृष्टि से देखते थे। आधुनिक युग के कुछ विद्वानों - डि टाकविले (De Tocquevile), लॉर्ड एक्टन (Lord Action), जूलियन हक्सले (Julian Huxley) तथा प्रो. कोइंग (Coing) - ने भी समानता की अपेक्षा स्वतन्त्रता पर अधिक बल दिया है। जूलियन हक्सले का मत है कि "हमारा आदर्श यह होना चाहिए कि स्वतन्त्रता तो बनी रहे किन्तु बराबर करने की बात न की जाए" (Free but unequal should be our motto)।
उपर्युक्त सभी विचारकों ने समानता का गलत अर्थ लगाया है। इसी कारण समानता का खण्डन निम्न तीन प्रकार की भ्रांतियों के कारण किया जाता है-
प्रथम, मनुष्य प्रकृति से ही असमान हैं (Men are unequal by nature), इसलिए समानता की बातें करना निरर्थक है। जूलियन हक्सले आदि वैज्ञानिकों ने यह कहा है कि जन्म से ही व्यक्तियों की प्रतिभा व योग्यता में कुछ विशेष अन्तर पाये जाते हैं। शारीरिक व मानसिक विभिन्नता के कारण समानता कैसे लायी जा सकती है? रूप-रंग, बुद्धि-चातुर्य (Rational Insight) और शारीरिक बल जैसे भेदों के कारण समाज में असमानताएँ बनी ही रहेंगी।
द्वितीय, समानता का सिद्धान्त न केवल अव्यावहारिक है बल्कि अनुचित और अन्यायपूर्ण भी है। मनुष्य की क्षमता एक-दूसरे से भिन्न होने के कारण सभी के साथ एक जैसा व्यवहार (Identity of Treatment) कैसे सम्भव है? प्रतिभाशाली, परिश्रमी और ईमानदार व्यक्ति के साथ जैसा व्यवहार किया जाता है, यदि वैसा ही व्यवहार मूर्ख, आलसी और भ्रष्ट व्यक्ति के साथ भी किया जाये तो इससे अधिक अन्यायपूर्ण बात और क्या हो सकती है। प्रत्येक व्यक्ति को बराबर पुरस्कार या वेतन नहीं दिया जा सकता। एक साधारण श्रमिक और जज के वेतन में अन्तर होना स्वाभाविक है।
तृतीय, व्यक्ति की एक जैसी आवश्यकताएँ नहीं हो सकतीं। एक कुली या चपरासी की आवश्यकताएँ वैज्ञानिक व गणितज्ञ की आवश्यकताओं से भिन्न होती हैं। इसलिए उनके लिए समान वस्तुएँ या सुविधाएँ जुटा देने में न तो उनका ही हित है और न समाज का ही हित है। वह न्यायसंगत भी नहीं होगा।
उपर्युक्त सभी तर्क बहुत उचित हैं। इसलिए यदि समानता का अर्थ प्रत्येक व्यक्ति को प्रत्येक दृष्टि से समान बना देना है और सभी को समान वेतन या समान प्रतिफल प्राप्त होगा तो निश्चित ही समानता का सिद्धान्त न केवल अव्यावहारिक ही होगा बल्कि अनुचित भी होगा किन्तु समानता का वास्तविक अर्थ यह नहीं है।

समानता का सही अर्थ
इसमें कोई संदेह नहीं कि प्रकृति से ही मनुष्य असमान बनकर आये हैं। रूस की साम्यवादी क्रान्ति का नेता लेनिन जो समानता का कट्टर समर्थक था, स्वयं यह स्वीकार करता है कि “प्रतिभाशाली मनुष्य सैकड़ों की संख्या में पैदा नहीं होते" (Talented men are not born by hundreds)। अतः समानता का यह आशय बिल्कुल भी नहीं है कि सभी के साथ एक-सा व्यवहार किया जाना चाहिए और सबको समान वेतन दिया जाना चाहिए। तो फिर समानता से क्या आशय है ?
लास्की के मतानुसार, “समानता का आशय है कि जहाँ तक सम्भव हो, भिन्नताओं यानी विषमताओं को कम किया जाये" (Equality .... implies fundamentally a certain levelling process)। प्रो. डी. डी. रफेल ने इसी बात को इन शब्दों में व्यक्त किया है, “समानता का तात्पर्य यह है कि सब लोगों की मूलभूत मानवीय आवश्यकताओं की सन्तुष्टि अवश्य हो। इसके अन्तर्गत मानवीय क्षमताओं के विकास व उनके उपयोग के अवसर भी आ जाते हैं।"
उपर्युक्त परिभाषाएँ मुख्यतया दो बातों पर प्रकाश डालती हैं। प्रथम, इससे पहले कि कुछ लोग ऐश्वर्य का जीवन व्यतीत करें, सब लोगों की न्यूनतम आवश्यकताओं की पूर्ति अवश्य हो जानी चाहिए। जैसा कि लास्की ने भी कहा है कि “जब तक सब लोगों को आवास की सुविधाएँ न मिल जायें, तब तक किसी भी व्यक्ति को बीस कमरों वाले आलीशान भवन में रहने का कोई अधिकार नहीं है।"
द्वितीय, सभी व्यक्तियों को अपनी क्षमताओं व योग्यताओं के विकास के अवसर प्राप्त होने चाहिए क्योंकि अवसरों के अभाव से योग्यता कुंद हो जाती है। कोई बच्चा यदि रंग-भेद अथवा जात-बिरादरी के कारण पाठशाला में प्रवेश प्राप्त न कर सके तो वह अपनी सम्भाव्य शक्तियों का विकास कैसे कर सकता है? सभी लोगों में एक जैसी क्षमता या योग्यता नहीं होती किन्तु सभी को 'समान अवसर' अवश्य प्रदान किये जा सकते हैं। "इन अवसरों का उपयोग करके वे यह दिखा सकते हैं कि उनमें से प्रत्येक कितना ऊँचा उठने की क्षमता रखता है।" (Every one should have an opportunity to show how unequal he is. - Rodee Anderson)।
अर्नेस्ट बार्कर (Ernest Barker) ने 'अवसरों व अधिकारों की समानता' को ही समानता का लक्ष्य माना है। उसके मतानुसार, "समानता का अर्थ है कि अधिकारों के रूप में जो सुविधाएँ मुझे प्राप्त हैं, वैसी ही और उतनी ही सुविधाएँ दूसरों को भी सुलभ हों तथा दूसरों को जो अधिकार प्रदान किये गये हैं, वे मुझे भी अवश्य दिये जायें।"
संक्षेप में, समानता का अर्थ है कि "मानवीय गौरव और अधिकारों की दृष्टि से सब समान हैं" (All men are equal in dignity and rights)। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि समानता का सिद्धान्त उन असमानताओं के विरुद्ध एक विद्रोह था जिन्होंने मनुष्य के जीवन को पूरी तरह जकड़ा हुआ था। जाति, धर्म, रंग, लिंग, निवास-स्थान व सम्पत्ति के आधार पर युग-युग से मनुष्य के बीच भेद-भाव की दीवारें खड़ी थीं। उन दीवारों को भेदने और अन्त में उन्हें धराशायी कर देने में समानता के सिद्धान्त ने एक महत्वपूर्ण भूमिका निभायी।

समानता का स्वरूप

समानता के अर्थ को समझ लेने के उपरान्त उसके स्वरूप पर विचार करने की आवश्यकता है। समानता की स्थापना के लिए निम्नांकित स्थितियों की विशेष आवश्यकता है-
  1. माँगों और प्रार्थना-पत्रों पर समान रूप से विचार (Right to Equal Consideration) - इसका आशय यह है कि सार्वजनिक कर्तव्यों का निर्वाह करते समय अधिकारियों को निष्पक्षता से कार्य करना चाहिए। दूसरे शब्दों में, उन्हें अपनी व्यक्तिगत पसंद या नापसंदगी से काम नहीं लेना चाहिए। अपने निजी जीवन में प्रत्येक व्यक्ति राग-द्वेष से काम ले सकता है। उसे अधिकार है कि वह होली या दिवाली पर जिससे चाहे मिले और जिससे न चाहे, न मिले। इसी प्रकार उसे यह भी अधिकार है कि वह किसी भूरे बाल वाली स्त्री को अपने घर में सेविका (Maid-servant) बनाकर रखे या न रखे किन्तु एक सरकारी अधिकारी के रूप में वह राग-द्वेषपूर्वक काम नहीं कर सकता। सभी नागरिकों का यह समान अधिकार है कि उनकी माँगों और प्रार्थना-पत्रों पर उचित ध्यान दिया जाये। एक व्यक्ति का प्रार्थना-पत्र इसी आधार पर निरस्त न किया जाये कि वह अमुक जाति या अमुक धर्म का अनुयायी है।
  2. सभी के लिए समान अवसरों की व्यवस्था (Equal opportunities are laid open to (all) - लास्की के मतानुसार, “समानता का अर्थ यह है कि सभी व्यक्तियों को अपनी योग्यता और शक्ति के विकास का उचित अवसर प्राप्त होना चाहिए।"" अवसरों के अभाव में किसी की प्रतिभा नष्ट नहीं होनी चाहिए। इस सम्बन्ध में हम शिक्षा की सुविधाओं का विशेष रूप से उल्लेख करना चाहेंगे। प्रायः मजदूरों और गरीबों के बच्चों को शिक्षा की उचित सुविधाएँ नहीं मिल पातीं। समाज या सरकार का दायित्व है कि इन वर्गों के लिए निःशुल्क शिक्षा की व्यवस्था की जाये।
  3. भेद-भाव का कोई उचित आधार होना चाहिए (Discrimination must be based on relevant grounds) - समानता का सिद्धान्त 'अवसरों की समानता' पर तो बल देता ही है किन्तु इसका आशय यह नहीं है कि अशक्त और अक्षम लोगों (Handicapped Persons), बच्चों, महिलाओं और युग-युग से चले आ रहे शोषित वर्ग के लिए विशेष व्यवस्थाएँ न की जायें। प्रकृति तथा समाज ने जो अयोग्यताएँ एक वर्ग विशेष के लिए उत्पन्न कर दी हैं, उन्हें वह तभी लाँघ सकेगा जब उसके लिए कुछ विशेष सुविधाएँ उपलब्ध करायी जायेंगी। समानतावादी लेखक विशेष सुविधाओं (Special Privileges) का खण्डन करते हैं किन्तु यहाँ जिन विशेष सुविधाओं की वे चर्चा कर रहे हैं, वे ऐसी हैं जो विषमता बढ़ाने में नहीं बल्कि समानता लाने में सहायक बनती हैं। समाज में अनेक वर्ग ऐसे हैं, जैसे - अपंग व अन्धे व्यक्ति, जिनके लिए विशेष सुविधाएँ जुटायी जानी चाहिए। समानता के नाम पर हम उनके लिए खुली प्रतियोगिता (Open Competition) का समर्थन नहीं कर सकते, क्योंकि खुली दौड़ में तो ये निश्चय ही दूसरों से बहुत अधिक पिछड़ जायेंगे ।
  4. मूलभूत आवश्यकताओं की बराबर सन्तुष्टि (Right to the Equal Satisfaction of Basic Needs) - लास्की के मतानुसार कोई भी व्यक्ति या वर्ग उस समय तक विशेष सुविधा या ऐश्वर्य भोगने का अधिकारी नहीं बन सकता जब तक कि समाज के सभी लोगों की न्यूनतम आवश्यकताएँ पूरी नहीं हो जातीं। मेरी आवश्यक आवश्यकताएँ - रोटी, कपड़ा व मकान-उतने ही महत्वपूर्ण हैं जितनी अन्य किसी व्यक्ति के लिए हैं किन्तु इसका आशय यह नहीं है कि सबके पास एक-सा मकान व बराबर सम्पत्ति हो किन्तु इसका यह अर्थ अवश्य है कि भूख और वस्त्र के अभाव में लोग मरें नहीं। जीवन के अधिकार का केवल यही तात्पर्य नहीं है कि कोई किसी की हत्या न कर सके, उसका अर्थ यह भी है कि भूख या ठण्ड किसी की मृत्यु का कारण न बने।
अत्यावश्यक आवश्यताओं की सन्तुष्टि के साथ-साथ और भी वस्तुओं की आवश्यता होती है । विद्वान को पुस्तकें चाहिए, वैज्ञानिक को विज्ञान सम्बन्धी उपकरण चाहिए तथा सभी को आराम व विश्राम चाहिए। ये वस्तुएँ मात्र व्यक्तिगत विकास के लिए ही नहीं बल्कि इसलिए भी आवश्यक हैं। जिससे व्यक्ति अपने सामाजिक दायित्वों को पूरा कर सके। अतएव समान अधिकारों व समान अवसरों के अन्तर्गत इनको सम्मिलित किया जाना आवश्यक है।

समानता के विविध पहलू

समाज और राज्य का यह दायित्व है कि प्रत्येक व्यक्ति को उसके विकास का पूर्ण अवसर दिया जाये। यह भी आवश्यक है कि किसी के साथ केवल धर्म, वंश, जाति, रंग व लिंग के आधार पर कोई पक्षपात न किया जाये। कानूनी, राजनीतिक और सामाजिक दृष्टि से सब समान होने चाहिए। इसके अतिरिक्त, जहाँ तक सम्भव हो, देश के भौतिक साधनों का भी उचित बँटवारा किया जाना चाहिए। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि समानता के विविध पहलू हैं। यहाँ हम उसके निम्न चार रूपों का विवेचन करेंगे-

1. विधिक या कानूनी समानता
इंग्लैण्ड में जिसे 'विधि' या कानून का शासन (Rule of Law) कहा जाता है, उसका वास्तव में यह अर्थ है कि राज्य द्वारा नागरिकों के साथ मनमाना व्यवहार न किया जाये तथा कनून की दृष्टि में सब समान हों। कानूनी समानता से निम्नांकित बातों का बोध होता है-
प्रथम, कानून के सम्मुख समानता (Equality before Law) - इसका आशय यह है कि प्रत्येक व्यक्ति के लिए समान नियम हों तथा कानून सबकी समान रूप से रक्षा करे। कोई भी व्यक्ति कानून से ऊपर नहीं है। प्रत्येक व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति पर मुकदमा चला सकता है और स्वयं उसके विरुद्ध भी केस दायर किया जा सकता है। अंग्रेज विधिशास्त्री डायसी (Dicey) ने 'विधि के सम्मुख समानता' की व्याख्या करते हुए कहा था कि- "हमारे देश में प्रत्येक प्राधिकारी, चाहे वह प्रधानमन्त्री हो या पुलिस का सिपाही या कर वसूल करने वाला, अवैध कार्यों के लिए उतना ही दोषी माना जायेगा जितना अन्य कोई साधारण नागरिक।” केवल सम्राट ही इसका अपवाद है क्योंकि प्राय: यह कहा जाता है कि "राजा कभी भी कोई गलती नहीं करता है" (King can do no wrong)। डायसी के मतानुसार यह अपवाद भी इसलिए है, क्योंकि सम्राट सदैव मन्त्रियों के परामर्श से कार्य करता है और मन्त्रीगण देश के सामान्य कानूनों के अधीन हैं।
द्वितीय, प्रत्येक व्यक्ति, चाहे वह जिस पद पर आरूढ़ हो, देश के सामान्य न्यायालयों के अधीन माना जायेगा। न्यायाधीश का कर्तव्य है कि बिना यह देखे कि कोई व्यक्ति धनी है या निर्धन, उच्चवंश का है या पिछड़ी जाति का, मूर्ख है या विद्वान, उच्च पद पर आसीन है या नहीं, उसके साथ समान रूप से व्यवहार करे। हॉबहाउस (Hobhouse) के शब्दों में, "मानव की हत्या तो 'हत्या' है। हत्या के मामले में हम यह नहीं देखते कि हत्यारा या वह व्यक्ति जिसकी हत्या की गयी है, ऊँची जाति का है या निम्न स्तर का, अभिजात वर्ग से सम्बन्धित है या गुलामी का जीवन बिता रहा है, वह स्त्री है या पुरुष है।"" न्यायाधीश का कर्तव्य न्याय करना है अर्थात् वह यह फैसला करता है कि अमुक व्यक्ति दोषी है अथवा निर्दोष है। अभियुक्त की जाति, उसके रंग या उसकी सम्पत्ति से न्यायाधीश का कोई सरोकार नहीं होना चाहिए।
तृतीय, करों का निर्धारण करते समय इस बात का ध्यान रखा जायेगा कि करों का बोझ सभी के ऊपर डाला जाये। इतना अवश्य है कि करों का दायित्व आय के अनुसार होगा।
चतुर्थ, सभी को समान अधिकार उपलब्ध होंगे और उनके कर्तव्य भी एक जैसे होंगे । जन्म, जाति, रंग या धर्म के आधार पर किसी के साथ पक्षपात नहीं किया जायेगा । स्त्रियों को पुरुषों के समान ही अधिकार प्राप्त होंगे।
पंचम्, कानूनी समानता से यह अभिप्राय नहीं है कि किसी वर्ग-विशेष के लिए कोई विशेष कानून बनाया ही नहीं जा सकता। जैसा कि आइवर जैनिंग्स (Ivor Jennings) ने कहा है कि "कानून के समक्ष समानता का तात्पर्य केवल यह है कि बराबर वालों के लिए एक से कानून हों और उन्हें समान रूप से लागू किया जाये अर्थात् एक जैसे लोगों के साथ एक-सा व्यवहार किया जाये।"1 किसी वर्ग-विशेष के लिए विशेष तरह के कानून अवश्य बनाये जा सकते हैं किन्तु उस स्थिति में आवश्यक है कि उस वर्ग के सब लोगों पर वे समान रूप से लागू हों। उदाहरणार्थ, स्त्रियों, बच्चों, बाल-अपराधियों तथा विस्थापितों (Displaced Persons) के लिए विशेष प्रकार के कानून बनाये जा सकते हैं। इसी प्रकार ऐसा कोई कानून बनाया जा सकता है कि कम आय वाले लोगों को सरकारी दुकानों से सस्ता अनाज मिल सकेगा। इन कानूनों को इस आधार पर चुनौती नहीं दी जा सकती कि वे 'कानून के सम्मुख समानता' के सिद्धान्त के विरुद्ध हैं।

2. राजनीतिक समानता
राजनीतिक समानता का अर्थ यह है कि राजनीतिक दृष्टि से सभी नागरिकों को समान अधिकार प्राप्त होने चाहिए। सभी का यह अधिकार है वे राजनीतिक प्रक्रियाओं को समान रूप से प्रभावित कर सकें। राजतन्त्र, कुलीनतन्त्र और तानाशाही व्यवस्था में एक साधारण व्यक्ति 'शासक वर्ग' से बिल्कुल अलग रहता है। उसके लिए यह सम्भव नहीं होता कि वह शासन-प्रक्रिया में हाथ बँटा सके किन्तु लोकतन्त्र में सर्वसाधारण के ऊपर कोई ऐसा प्रतिबन्ध नहीं होता कि वे शासक न बन सकें। बेंथम (Bentham) कहता है कि देश में यदि 'कुलीनतन्त्र' (Aristocracy) है तो थोड़े-से लोगों का हित-साधन होगा परन्तु यदि 'लोकतन्त्र' (Democracy) है तो अधिकांश लोगों की भलाई हो सकेगी। इसके अन्तर्गत मुख्यतया निम्नांकित समानताएँ आती हैं-
प्रथम, सभी व्यक्तियों को मत देने को अधिकार मिलना चाहिए। मताधिकार पर धर्म, जाति, सम्पत्ति या शिक्षा विषयक प्रतिबन्ध न लगाये जायें। महिलाओं को पुरुषों के ही. समान मत देने का अधिकार प्राप्त हो, केवल लिंग भेद के आधार पर आधे राष्ट्र को मताधिकार से वंचित रखना न्यायोचित नहीं है किन्तु नाबालिगों, विदेशियों तथा मूर्ख व पागल लोगों को मताधिकार से वंचित रखना उचित है।
द्वितीय, नागरिकों को चुनावों में उम्मीदवार बनने का अधिकार भी समान रूप से प्राप्त होना चाहिए।
तृतीय, राजकीय नियुक्तियों (Public Offices) तथा राजकीय सम्मान (Public Honours) के लिए सभी को समान रूप से अधिकारी माना जाये।
चतुर्थ, विचारों की अभिव्यक्ति तथा दल गठन करने के अधिकार सभी व्यक्तियों को समान रूप से प्राप्त होने चाहिए।

3. सामाजिक समानता
समानता का सिद्धान्त सबसे पहले सामाजिक विषमताओं के विरुद्ध विद्रोह के रूप में प्रकट हुआ था। जिन देशों में जाति-प्रथा अथवा गुलामी की प्रथा प्रचलित थी, वहाँ समाज के दलित वर्गों तथा विचारशील लोगों ने इन कुरीतियों के विरुद्ध आवाज बुलंद की थी जिस युग में 'राजनीतिक समानता' अथवा लोकतन्त्र की चर्चा भी नहीं की जाती थी, उस युग में भी कुछ ऐसे समाज-सुधारक अवश्य थे जिन्होंने सामाजिक समानता का पाठ पढ़ाया। भारत में कबीर, दादू और नानक ने जात-पाँत तोड़क प्रथाओं का प्रचार किया। उन्होंने यह कहा कि "मनुष्य मनुष्य में भेद करना पाप है।" वैसे आज भी विश्व के कई देशों में गोरे-काले या अमीर-गरीब के बीच भेद-भाव विद्यमान है। प्राय: इस प्रकार के उत्तेजक नारे लगाये जाते हैं, 'इंग्लैण्ड में केवल गोरे ही रहेंगे' (Keep Britain White) अथवा 'अफ्रीका में केवल काले ही रहेंगे' (Keep Africa Black)। इन नारों का भावनात्मक मूल्य बहुत अधिक है और कभी-कभी तो इनके वशीभूत होकर लोग दंगे-फसाद पर उतारू हो जाते हैं किन्तु मानवता और सभ्यता का यह तकाजा है कि नागरिकों के साथ केवल धर्म, वंश, जाति, लिंग अथवा जन्म-स्थान के आधार पर कोई पक्षपात न किया जाये।
भारतीय समाज सदियों तक घिनौनी कुप्रथा' अस्पृश्यता' (Untouchability) यानी छुआछूत से ग्रस्त रहा है। स्वतन्त्रता के बाद भारत का जो नया संविधान बना है, उसने इस कुप्रथा का अन्त कर दिया है। भारतीय संविधान के अनुसार, "केवल धर्म, जाति, लिंग व जन्मस्थान के आधार पर कोई भी नागरिक सार्वजनिक भोजनालयों, दुकानों, मनोरंजन के साधनों अथवा तालाबों व कुओं के प्रयोग से वंचित नहीं किया जा सकेगा।" इसके अतिरिक्त, संविधान ने ब्रिटिश शासनकाल से चली आ रही ऐसी उपाधियों का अन्त कर दिया है जिनका जन-सेवा, विद्वता या विशेष योग्यता से कोई सम्बन्ध नहीं था।
सामाजिक समानता के अन्तर्गत मुख्यतया ये बातें आती हैं- (i) वंश, धर्म, जाति और रंग (काली या गोरी चमड़ी) के आधार पर किसी को श्रेष्ठ या हेय न माना जाये। हिटलर द्वारा जर्मनी में यहूदियों के प्रति घृणा और हिंसा का वातावरण उत्पन्न किया गया था। दक्षिण अफ्रीका में आज भी गोरी चमड़ी के लोगों को श्रेष्ठ माना जाता है। संयुक्त राज्य अमेरिका की नीग्रो जाति राजनीतिक दृष्टि से तो समान अधिकारों का उपभोग कर रही है किन्तु सामाजिक स्तर पर उसे असमानता का सामना करना पड़ता है; (ii) स्त्रियों को पुरुषों की अपेक्षा कम अधिकार न दिये जायें तथा (iii) एक ऐसे समाज की स्थापना पर बल दिया जाये जिसमें मनुष्य-मनुष्य के बीच 'सामाजिक समागम' (Social Intercourse) को प्रोत्साहन मिले। 'सामाजिक समागम' का अर्थ है- विवाह सम्बन्ध व खान-पान के क्षेत्र में निषेधों (Taboos) का अभाव। बार्कर के मतानुसार सामाजिक असमानताओं को उदार शिक्षा द्वारा दूर किया जा सकता है किन्तु सामाजिक दृष्टि से पिछड़े लोगों को उन्नत बनाने के लिए उनके आर्थिक विकास पर बल देना भी बहुत आवश्यक है।
यहाँ यह उल्लेखनीय है कि सामाजिक समानता का अर्थ यह नहीं है कि राज्य स्त्रियों, बच्चों या पिछड़े वर्गों के लिए कोई विशेष सुविधाएँ नहीं जुटा सकता। इतना अवश्य है कि विशेष सुविधाएँ किसी वर्ग-विशेष के सभी सदस्यों को उपलब्ध हों, किसी व्यक्ति विशेष को नहीं।

4. आर्थिक समानता
रूसो ने अपने सुप्रसिद्ध ग्रन्थ 'सोशल काण्ट्रैक्ट' (Social Contract) में कहा है कि “सरकार की नीति ऐसी होनी चाहिए कि न तो ' अमीरों' की ही संख्या बढ़ने पाये और न भिखमंगों की संख्या में ही वृद्धि हो। " (Allow neither rich men nor beggars)। उसके मतानुसार दोनों ही वर्ग समाज के शत्रु हैं। इसका आशय यह है कि समाज में भारी आर्थिक विषमताएँ नहीं होनी चाहिए। आर्थिक समानता का यह अर्थ लगाना गलत है कि सभी व्यक्ति बराबर-बराबर भौतिक पदार्थों का उपभोग करेंगे अथवा उन्हें समान वेतन प्राप्त होगा। आर्थिक क्षेत्र में समानता का आशय यह है कि प्रत्येक व्यक्ति की मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति होनी चाहिए तथा सम्पत्ति की दृष्टि से समाज में भारी विषमताएँ नहीं होनी चाहिए। दूसरे शब्दों में, राष्ट्र की सम्पत्ति तथा उत्पत्ति के साधन कुछ ऐसे लोगों के हाथों में केन्द्रित नहीं होने चाहिए जो केवल व्यक्तिगत स्वार्थ तथा लाभ अर्जित करने को दृष्टि में रखकर कार्य करें।

आर्थिक विषमताओं के भयंकर परिणाम (Grave Effects of the Great Inequalities of Wealth) - आर्थिक विषमताएँ समाज के सम्पूर्ण ढाँचे को दूषित कर देती हैं। लास्की के मतानुसार, "जिस देश में सम्पत्ति तथा उत्पत्ति के साधन कुछ गिने-चुने लोगों के हाथों में केन्द्रित होते हैं, उस देश की राजनीति, संस्कृति, शिक्षण संस्थाओं तथा न्यायपालिका पर पूर्णतया धन हावी हो जाता है।" इन सभी क्षेत्रों में वास्तविक शक्ति का उपयोग केवल सम्पत्ति के स्वामी ही कर पाते हैं। इतना ही नहीं, 'चर्च' यानी धार्मिक समुदाय भी उन्हीं के संकेतों पर चलते हैं।
रॉबर्ट डहल (Robert A. Dahl) ने राजनीतिक स्थायित्व (Political Stability) और आर्थिक समानताओं को परस्पर एक-दूसरे से सम्बन्धित माना है। उसके मतानुसार, जिन देशों में आर्थिक विषमताएँ होती हैं; वहाँ क्रान्तिपूर्ण परितर्वनों की अधिक गुंजाइश रहती है। यदि हम यह चाहते हैं कि राजनीतिक स्थायित्व तथा सरकार का लोकतन्त्रीय स्वरूप बना रहे तो हमें भूमि के समुचित वितरण (Land Distribution), कर प्रणाली में सुधार (Tax Reforms) तथा शिक्षण-सुविधाओं का विस्तार करके आर्थिक क्षेत्र में समानता को लाना होगा।

आर्थिक समानता के विविध पहलू (Various Aspects of Economic Equality)- आर्थिक समानता के मुख्य पहलू निम्नांकित हैं-
(क) प्रत्येक व्यक्ति की न्यूनतम भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति होनी चाहिए। जब तक सभी को भोजन, वस्त्र व आवास की सुविधाएँ प्राप्त न हों, तब तक किसी को भी ऐशो-आराम का जीवन बिताने का अधिकार नहीं है। दूसरे शब्दों में, सभी को रोगजार, पर्याप्त मजदूरी और विश्राम के लिए उचित अवकाश मिलना चाहिए।
(ख) पुरुषों और महिलाओं को समान कार्य के लिए समान वेतन मिलना चाहिए तथा महिलाओं व बच्चों को आर्थिक विवशता के कारण ऐसी परिस्थितियों में कार्य न करना पड़े जो उनकी आयु व शक्ति के अनुकूल न हों।
(ग) बेरोजगारी, वृद्धावस्था, बीमारी व अंग-भंग की स्थिति में लोगों को राज्य की ओर से आर्थिक सहायता प्राप्त होनी चाहिए।
(घ) कार्य - कुशल बनने के लिए जिन भौतिक साधनों, उपकरणों या रहन-सहन के जिस स्तर की आवश्यकता हो, वे भी लोगों को आवश्यक रूप से प्राप्त होनी चाहिए। शिक्षाशास्त्री को पुस्तकें चाहिए, वैज्ञानिक को भौतिक उपकरण चाहिए तथा विद्यार्थियों को विद्यालय चाहिए। इन सुविधाओं के अभाव में वे अपनी क्षमता व योग्यता का विकास नहीं कर सकते।

स्वतन्त्रता और समानता में सम्बन्ध

स्वतन्त्रता और समानता एक-दूसरे के पूरक हैं अथवा विरोधी, इस प्रश्न का उत्तर इस बात पर निर्भर करता है कि हम स्वतन्त्रता का क्या अर्थ समझते हैं। यदि स्वतन्त्रता का यह अर्थ लगाया जाये कि व्यक्ति पर किसी प्रकार का कोई बन्धन नहीं होना चाहिए तो निश्चय ही ये दोनों एक-दूसरे के विरोधी दिखाई देंगे किन्तु यदि हम यह मानकर चलें कि स्वतन्त्रता ऐसे अवसरों की उपस्थिति है जिनके बिना उच्चतम विकास सम्भव नहीं है तो स्वतन्त्रता और समानता एक-दूसरे के पूरक दिखाई देंगे।

क्या समानता 'स्वतन्त्रता' की शत्रु है? ( Is Equality Inimical to Liberty)
लार्ड एक्टन (Lord Acton) व डि टॉकविल (De Tocqueville) जैसे विद्वानों ने स्वतन्त्रता और समानता को परस्पर विरोधी माना है। लार्ड एक्टन का कथन है कि “समानता स्थापित करने की हमारी तीव्र इच्छा ने स्वतन्त्रता की आशा को निराशा में बदल दिया है।" उसके मतानुसार राज्य ने सम्पत्ति के अधिकार पर जो प्रतिबन्ध लगाये हैं, उनसे मनुष्य की स्वतन्त्रता एकदम धूमिल पड़ गयी है। व्यक्ति को कोई भी कार्य-व्यापार करने की स्वतन्त्रता प्राप्त होनी चाहिए तथा खुली प्रतियोगिता का सिद्धान्त लागू होना चाहिए। उस व्यवस्था में परिश्रमी व बुद्धिमान लोग आलसी और मंदबुद्धि वाले लोगों की अपेक्षा निश्चय ही अधिक धन अर्जित कर सकेंगे। इससे आर्थिक असमानताएँ तो अवश्य बढ़ेंगी किन्तु मनुष्य की स्वतन्त्रता बनी रहेगी।

स्वतन्त्रता के लिए समानता एक अनिवार्य शर्त है (Equality is an Indispensable Condition for Liberty)
जो विचारक स्वतन्त्रता और समानता को परस्पर विरोधी समझते हैं, वे केवल मुट्ठी भर लोगों की स्वतन्त्रता को ही ध्यान में रखते हैं। आर. एच. टॉनी (R. H. Tawney), प्रो. पोलार्ड (Pollard), मैकाइवर (MacIver), लास्की (Läski) तथा आधुनिक युग के अधिकांश विद्वान इस बात पर सहमत हैं कि समानता के बिना स्वतन्त्रता का आदर्श अधूरा है। अपने विचारों के समर्थन में इन विद्वानों ने निम्नलिखित तर्क प्रस्तुत किये हैं-

1. आर्थिक समानता के बिना राजनीतिक स्वतन्त्रता निरर्थक है
अठारहवीं और उन्नीसवीं सदी के अधिकांश विचारकों का विश्वास था कि राजनीतिक स्वतन्त्रता (मताधिकार एवं विचार व अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता) से ही सच्ची लोकतन्त्रीय व्यवस्था स्थापित हो सकती है किन्तु उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में ही लोगों ने यह अनुभव करना शुरू कर दिया था कि आर्थिक समानता के बिना राजनीतिक स्वतन्त्रता एक धोखा है। एक ओर दरिद्रता, भूख, अशिक्षा व कठिनाइयाँ और दूसरी ओर, विलासिता एवं धन का अपव्यय, ये दोनों अवस्थाएँ साथ-साथ नहीं चल सकतीं। आर्थिक विवशता की स्थिति में राजनीतिक स्वतन्त्रता का कुछ भी उपयोग नहीं है। धन कुबेर लम्बी-चौड़ी धनराशियाँ खर्च करके लोगों के वोट खरीद सकते हैं तथा प्रचार-साधनों को अपने हाथ में लेकर मनचाही वस्तुओं और विचारों का प्रचार करा सकते हैं। ऐसी स्थिति में केवल वे ही व्यक्ति विधानसभा में पहुँच सकते हैं जो या तो स्वयं बहुत सम्पन्न हों अथवा जिन्हें पूँजीपतियों का समर्थन प्राप्त हो । निश्चय ही ऐसे लोग सर्वसाधारण जनता के हित में कार्य नहीं कर सकते। स्वयं धनी वर्ग से सम्बन्धित होने के कारण वे सेठ साहूकारों के हित में ही कार्य करेंगे। इससे लोकतन्त्र दूषित हो सकता है और अपने को जनता का प्रतिनिधि कहने वाली सरकार वास्तव में 'जनता की सरकार' (Government of the People) नहीं होगी।
उपर्युक्त कारणों से आधुनिक विचारकों ने आर्थिक समानता को राजनीतिक स्वतन्त्रता की गारण्टी माना है। उनका कहना है कि भुखमरी और दरिद्रता का अन्त किये बिना राजनीतिक अधिकारों का कोई मूल्य नहीं है। जवाहरलाल नेहरू के शब्दों में, “भूखे व्यक्ति के लिए वोट का कोई मूल्य नहीं है। पूँजीवादी व्यवस्था में वास्तविक शक्ति उन लोगों के हाथ में होती है जो जनसाधारण की भूख का अनुचित लाभ उठा सकते हैं और अपने लाभ के लिए उनसे जो चाहे करा सकते हैं।"" हॉब्सन (Hobson) ने इसी बात को इन शब्दों में व्यक्त किया है, "क्षुधा (भूख) से पीड़ित व्यक्ति के लिए राजनीतिक स्वतन्त्रता का क्या मूल्य है? वह स्वतन्त्रता को न तो खा सकता है और न पी सकता है।" (What good is freedom to a starving man? He can not eat freedom or drink it)। लास्की का भी यही मत हैं। उसकी मान्यता है कि आर्थिक विषमताओं को दूर किये बिना समाज का कल्याण सम्भव नहीं है।

2. सामाजिक स्वतन्त्रता का वास्तविक मूल्य तभी है जब आर्थिक क्षेत्र में समता स्थापित की जा सके
सामाजिक स्वतन्त्रता का लक्ष्य यह है कि जाति, धर्म, सम्पत्ति अथवा रंग के आधार पर मनुष्यों में भेद-भाव न किया जाये। सामाजिक स्वतन्त्रता के लिए शैक्षणिक व सांस्कृतिक क्षेत्रों में भी समान अवसरों का होना आवश्यक है। कानूनों द्वारा सामाजिक समानता स्थापित करने का प्रयास किया जाता है। उदाहरणार्थ, अमेरिका के संविधान ने सन् 1865 में गुलामी की प्रथा समाप्त कर दी थी। इंग्लैण्ड में सन् 1772 में गुलामी को अनेक प्रतिबन्धों से मुक्त कर दिया गया था। भारत के नवीन संविधान ने छुआछूत को समाप्त कर दिया है तथा बेगार, वेश्यावृत्ति और मानव शरीर के क्रय-विक्रय को गैर-कानूनी घोषित कर दिया है। इन सभी कानूनों का अत्यधिक महत्व है किन्तु इनसे भी अधिक आवश्यक बात यह है कि जनता को पिछड़ेपन और गरीबी से छुटकारा दिलाने का प्रयास किया जाना चाहिए। दूसरे शब्दों में, आर्थिक समानता लाने की दिशा में कदम उठाये जाने चाहिए। यदि समाज का कोई वर्ग अशिक्षित और दीन-दुःखी न रहे तो सामाजिक समानता के लक्ष्य की अपने-आप पूर्ति हो जायेगी।

3. आर्थिक विषमताओं को कम करके कानूनी समानता को अधिक प्रभावी बनाया जा सकता है
कानूनी समानता का आशय यह है कि कानून सभी की चाहे वह धनी हो या निर्धन, उच्च पद पर आरूढ़ हो या निम्न पद पर समान रूप से रक्षा करेगा तथा समान अपराध करने पर सभी समान रूप से दण्ड के भागी होंगे। यह बात सिद्धान्त रूप में सही है किन्तु प्रत्येक व्यक्ति इस तथ्य से परिचित है कि निर्धन लोगों को न्याय प्राप्त करने के उतने अवसर नहीं होते जितने अमीरों को होते हैं। वे अपनी पैरवी के लिए न तो कोई अच्छा वकील ही कर पाते हैं और न ही कानून की बारीकियों को समझते हैं। अतएव न्यायिक क्षेत्र में समानता की स्थापना के लिए यह आवश्यक है कि आर्थिक विषमताएँ कम-से-कम हों । बैन और पीटर्स (Benn and Peters) कहते हैं, "यदि अदालती फीस के कारण गरीब लोग अदालतों में न पहुँच सकें; यदि कोई अमीर व्यक्ति प्रतिपक्षी को इस बात के लिए विवश कर दे कि वह एक ऐसे निर्णय के लिए सहमत हो जाये जो उसके अनुकूल नहीं है क्योंकि प्रतिपक्षी जानता है कि उसका केस अपील- योग्य होते हुए भी वह उसे ऊँची अदालत में नहीं ले जा सकेगा; यदि पैसे से सम्पन्न लोग अपने मामलों की पैरवी अधिक चतुर यानी अधिक महँगे वकीलों द्वारा करा सकने की स्थिति में हैं तो अमीर और गरीब दोनों 'कानून के समक्ष समान' कैसे माने जा सकते हैं। गरीब इसलिए असमान बना रहेगा क्योंकि उसके लिए तो एक प्रकार से न्याय मंदिर का मार्ग ही बन्द हो गया है।" अनेक देशों में इसीलिए ऐसी समितियाँ बनायी गयी हैं। जो गरीब लोगों को निःशुल्क 'कानूनी परामर्श या सहायता ' (Legal Aid) देती हैं।
लास्की ने तो इस सन्दर्भ में एक और बहुत महत्वपूर्ण बात कही है। उसके मतानुसार, “जिस समाज में भारी आर्थिक विषमताएँ होती हैं, उसमें वकील और न्यायाधीश उच्च या उच्च-मध्य वर्ग से ही सम्बन्धित होते हैं। ये लोग कानूनों की व्याख्या इस प्रकार करते हैं जिससे सम्पत्ति या विशेषाधिकार के गढ़ सुरक्षित रहें ।" अतएव आर्थिक समानता के बिना कानूनी समानता का कोई विशेष महत्व नहीं है।

निष्कर्ष - स्वतन्त्रता और समानता एक ही आदर्श के दो पहलू हैं (Liberty and equality are different faces of the same ideal) संक्षेप में, स्वतन्त्रता और समानता के सिद्धान्त आपस में इतने गुँथे हुए हैं कि उन्हें एक-दूसरे से पृथक् नहीं किया जा सकता। असमानता 'स्वतन्त्रता' को निरर्थक बना देती है। व्यक्तित्व के विकास के लिए दोनों ही आवश्यक हैं। इनका कोई मौलिक अन्तर्विरोध नहीं है। दोनों ही इस बात पर बल देते हैं कि एक मनुष्य दूसरे मनुष्य का और एक वर्ग दूसरे वर्ग का शोषण कर सके। दोनों एक ही आदर्श के दो पहलू हैं। आर. एच. टॉनी के शब्दों में, “समानता स्वतन्त्रता की शत्रु नहीं, उसकी एक आवश्यक शर्त है।"

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