सर्वाधिकारवाद क्या है? अर्थ, परिभाषा, विशेषताएँ | sarvadhikarvad kya hai

सर्वाधिकारवाद

आधुनिक युग में सर्वाधिकारवाद का अर्थ उदार लोकतन्त्र के विपरीत अर्थों में होता है। सर्वाधिकारवादी विचारधारा मनुष्य के समस्त जीवन पर राज्य का अधिकार रखने का दावा रखती है। मनुष्य के जीवन का कोई भी अंश राज्य के नियन्त्रण से बाहर नहीं होता। हमारा जीवन, हमारी कार्यशीलता और हमारा अस्तित्व राज्य में ही है। मनुष्य का जीवन पर कोई अधिकार नहीं होता। उनका जीवन राज्य की धरोहर है तथा उनका उपयोग राज्य के हित में ही होना चाहिए। राज्य के सम्मुख व्यक्ति का कोई भी मूल्य नहीं है। मुसोलिनी ने अत्यन्त स्पष्ट शब्दों में कहा था कि 20वीं शताब्दी में सर्वाधिकारवाद का बोलबाला होगा। उसके शब्दों में, “यदि उन्नीसवीं सदी समाजवाद, उदारवाद और लोकतन्त्र का युग था तो बीसवीं सदी को अधिकारसत्ता, सामूहिक और सर्वाधिकारवादी राज्य का युग होना है।"
sarvadhikarvad kya hai
प्राचीन युग में यूनान के नगर-राज्यों का युग सर्वाधिकारवादी था। उस समय राज्य और समाज में कोई अन्तर न था और न आधुनिक जीवन की भाँति यूनानियों का जीवन था। यूनान के नागरिकों को अपने नगर-राज्यों से इतना अधिक प्रेम था कि उनका कहना था कि "वह नगर राज्य हमारा है, हम उनके हैं।"
आधुनिक युग में सर्वाधिकारवादी राज्य का स्वरूप यूनानी नगर- राज्यों से भिन्न होता है। फ्रांस के 14वें लुई की यह प्रसिद्ध उक्ति है, "मैं ही राज्य हूँ।" (I am the State)। वास्तव में, यह सर्वाधिकारी राज्य का आधुनिक स्वरूप है। सर्वाधिकार राज्य को दार्शनिक रूप देने का श्रेय हीगेल को प्राप्त है। उसने राजा को धरती पर ईश्वर माना है। इस प्रकार सर्वाधिकार यह मानते हैं कि राज्य का सब कुछ है। वह सर्वशक्तिमान है तथा उससे कभी कोई गलती नहीं होती। मुसोलिनी कहता था कि राज्य से परे कुछ भी नहीं है। राज्य परमपूर्ण है, उसकी तुलना व्यक्तियों और समुदायों से नहीं की जा सकती। वह एक परमपूर्ण, चिरस्थायी एवं दैवी शक्ति से प्रेरित संस्था है। उसने इटली की जनता के सम्मुख यह आदर्श रखा कि “राज्य के भीतर सब कुछ है, राज्य के बाहर कुछ नहीं, राज्य के विरुद्ध कुछ नहीं।"
सर्वाधिकारवाद वह विचारधारा है जो राज्य के अधिकारों को असीमित बनाकर उसे ईश्वर - तुल्य बना देती है और मानती है कि व्यक्तियों के समस्त क्रिया-कलापों पर राज्य का अधिकार होना चाहिए। उसके अनुसार राज्य परमपूर्ण है, राज्य से बाहर किसी भी चीज की कल्पना नहीं की जा सकती है। यहाँ राज्य के लिए व्यक्ति का सब कुछ बलिदान किया जा सकता है।

सर्वाधिकारवाद की विशेषताएँ

1. बुद्धि-विवेक का तिरस्कार और अन्तःप्रेरणाओं को महत्व - सर्वाधिकारवाद बुद्धि और विवेक का तिरस्कार करता है तथा स्वाभाविक प्रवृत्तियों और अन्तःप्रेरणाओं को अधिक महत्व देता है। फासिस्ट इटली और नाजी जर्मनी में यह अत्यन्त स्पष्ट रूप से दिखलाई पड़ा। वहाँ बुद्धि, विवेक के स्थान पर अन्तःप्रेरणाओं को अधिक महत्व प्रदान किया गया।

2. राज्य का तानाशाही रूप - सर्वाधिकारवादी राज्य के तानाशाही रूप में विश्वास करते हैं। वे उदारवाद और संसदीय शासन के घोर विरोधी हैं। उदारवाद का विरोध करते हुए प्रसिद्ध जर्मन विद्वान मोयलर फान्डेरवक ने कहा था, "उदारवाद जीवन का वह दर्शन है जिसे अब जर्मन युवक घृणा तथा क्रोध की ओर हेय दृष्टि से देखता है क्योंकि दूसरा कोई भी जीवन-दर्शन इससे अधिक घृणास्पद और उसके स्वयं अपने जीवन-दर्शन के इतना अधिक विरुद्ध नहीं है। आज जर्मनी का युवक उदारवादी को अपना शत्रु मानता है।" संसदीय लोकतन्त्र को भी सर्वाधिकारवादी राज्य के लिए अभिशाप मानते हैं। - संसदीय शासन को वह पूर्णरूपेण भ्रष्ट और शुष्क मानते हैं।" एक फासिस्टवादी ने लोकतन्त्र की आलोचना करते हुए कहा था कि “लोकतन्त्र एक सड़ती हुई लाश है।"
सर्वाधिकारवादी राज्य का स्वरूप तानाशाही अवश्य है परन्तु उसमें शुद्ध एकतन्त्रवाद के दर्शन नहीं होते। वह अभिजाततन्त्र (Autocracy) के सिद्धान्त को मान्यता प्रदान करता है और वह कहता है कि कुछ खास लोगों के हाथों में शासन की बागडोर होनी चाहिए।

3. व्यक्तिगत स्वतन्त्रता का अन्त - सर्वाधिकारवाद व्यक्तिगत स्वाधीनता और स्वतन्त्रता का घोर विरोधी है। वह उसे पूरी तरह कुचल देता है। फासीवाद और नाजीवाद जनसाधारण में जरा भी विश्वास नहीं करता और वे व्यक्तिगत स्वतन्त्रता के विचार को दकियानूसी, असभ्य एवं अविवेकपूर्ण मानते हैं। डॉ. ओटो डी क्रिच ने लिखा है, "व्यक्ति की स्वाधीनता जैसी कोई चीज नहीं होती। स्वाधीनता जाति या राष्ट्र की होती है क्योंकि ये ही वे भौतिक और ऐतिहासिक वास्तविकताएँ हैं जिनके द्वारा व्यक्ति के जीवन का अस्तित्व कायम रहता है।"
सर्वाधिकारवादी किसी प्रकार का राजनीतिक विरोध नहीं सहन करते। वहाँ एक दल का शासन होता है और केवल दल के भीतर ही उसकी आलोचना करने की छूट होती है। आलोचना का अर्थ शासन में सुधार होना चाहिए, शासन को उखाड़ फेंकना नहीं। सर्वाधिकारी राज्य-व्यवस्था में भाषण देने और लिखने की पूर्ण स्वतन्त्रता नहीं होती। समाचार पत्रों और पुस्तकों के प्रकाशन तथा रेडियो, चल-चित्र तथा थियेटर आदि पर कड़ा नियन्त्रण होता है।
सर्वाधिकारवाद यही मानता है कि राज्यों में व्यक्ति अपने नेता की अधिकार सत्ता के पूर्ण अधीन होता है। इटली में जब कोई व्यक्ति फासिस्ट दल का सदस्य बनता था तो उसको यह शपथ लेनी होती थी, परमेश्वर और इटली के नाम पर मैं शपथ लेता हूँ कि मैं ड्यूस (मुसोलिनी) के आदर्शों का पालन बिना किसी तरह के तर्क-वितर्क के किया करूँगा और अपनी समूची शक्ति से तथा जरूरत पड़ने पर अपना रक्त देकर भी फासिस्ट क्रान्ति का लक्ष्य प्राप्त करूँगा।"
इस प्रकार स्पष्ट है कि सर्वाधिकारवाद व्यक्ति की स्वतन्त्रता का हनन करता है। उसे तर्क-वितर्क न करके राज्य की आज्ञाओं का पालन करने का और अनुशासन में रहने का पाठ पढ़ाता है।

4. राष्ट्र को अधिक गौरव और युद्ध में विश्वास - सर्वाधिकार राज्य को अधिक गौरव प्रदान करते हैं। वास्तव में, उनकी राष्ट्रीयता संकीर्ण राष्ट्रीयता है और देश-प्रेम अन्धा देश-प्रेम है। वे उग्र राष्ट्रवाद के समर्थक हैं। उनका मत है कि अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति कायरों का स्वप्न है। विद्यालयों में वे राष्ट्र-प्रेम से परिपूर्ण शिक्षा देने के पक्षपाती हैं। उन्होंने शक्ति की घोर प्रशंसा की है। वे साम्राज्यवादी विचारधारा के भी विरोधी नहीं है।

5. अन्य राजनीतिक सिद्धान्तों का विरोधी और आर्थिक आत्मनिर्भरता - सर्वाधिकारवादी अन्य सभी राजनीतिक सिद्धान्तों का विरोध करते हैं। वहाँ किसी की कोई गुन्जाइश नहीं है। वे उदारवाद और मानवतावाद में विश्वास नहीं करते। जर्मनी में जातीय घृणा को इतना अधिक बढ़ाया गया कि जर्मन यह कहने लगे कि जर्मन जाति सबसे अच्छी है। सर्वाधिकारवादी यह मानते हैं कि राज्य को आर्थिक दृष्टि से स्वावलम्बी बनाना चाहिए। इटली और जर्मनी दोनों की आर्थिक नीति यह थी कि युद्ध-संचालन में काम आने वाले पदार्थों पर दूसरों के लिए निर्भर रहना पड़े। साथ ही वे अन्य चीजों में भी आत्म-निर्भर रहना चाहते थे, अपने तैयार माल की बिक्री को बढ़ाने के लिए उन्होंने एक राष्ट्र के रूप में विदेशी वाणिज्य और व्यापार के क्षेत्र में प्रवेश किया था।

6. राज्य-धर्म का प्रतिद्वन्द्वी है - सर्वाधिकारवादी यह मानते हैं कि राज्य धर्म का प्रतिद्वन्द्वी होता है। यही कारण था कि साम्यवादियों ने आरम्भ में ही धर्म पर पूर्ण प्रतिबन्ध लगा दिया। फासीवादियों और नाजीवादियों ने भी धर्म को सर्वाधिकारवादी राज्य के लक्ष्य को प्राप्त करने का साधन बनाया। नाजीवादियों का तो यहाँ तक कथन है कि जो लोग ईश्वर को अर्पण करना चाहते हैं, वे शासक को दें। उन्होंने हिटलर को मसीहा एवं धरती पर ईश्वर का प्रतिनिधि माना था। इस प्रकार सर्वाधिकारवादी राज्य धर्म का शत्रु था।
जे. स्पेण्डर ने लिखा है, "रूस ने धर्म को समाप्त करने की कोशिश की है, मुसोलिनी ने उसे निष्क्रिय और निष्प्राण बनाने की चेष्टा की, पर हिटलर ने इसे अपने अधीन बनाने का यत्न किया।"

7. लक्ष्य की प्राप्ति के हेतु जन-सम्पर्क में विश्वास - सर्वाधिकारवादी अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए जन-सम्पर्क में विश्वास करते हैं। यह ठीक से नहीं कहा जा सकता है कि इटली में फासीवाद और जर्मनी में नाजीवाद के सम्बन्ध में राज्य को जनता का कितना समर्थन प्राप्त था परन्तु सर्वाधिकारवादी कहते यही हैं कि इस प्रकार की राजकीय व्यवस्था को जनता का पूर्ण समर्थन प्राप्त होता है। यही कारण था कि इटली और जर्मनी में जन सहयोग को प्राप्त करने हेतु मनोविज्ञान, सीधी कार्यवाही और अधिनायकवाद का श्रेय लिया गया।

सर्वाधिकारवाद की आलोचना

  • मनुष्य के सर्वांगीण विकास में बाधक - सर्वाधिकारवादी विचारधारा की आलोचना यह कहकर की जाती है कि यह विचारधार मनुष्य के सर्वांगीण विकास में बाधक होती है। इसमें उसके विचार स्वातन्त्र्य का अन्त होता है और मनुष्य एक संकुचित विचारधारा में बँधकर रह जाता है।
  • व्यक्तिगत स्वतन्त्रता का हनन उचित नहीं - सर्वाधिकारवाद व्यक्ति की व्यक्तिगत स्वतन्त्रता को पूरी तरीके से कुचल देता है और व्यक्तियों को राज्य की इच्छानुसार ही सोचने और कार्य करने के लिए विवश करता है।
  • लोकतन्त्रीय विचारधारा के विरुद्ध - आधुनिक युग लोकतन्त्र का युग है और इस युग में सर्वाधिकारवाद राज्य के तानाशाही रूप की कल्पना करना मूर्खतापूर्ण है।
  • अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति को खतरा - सर्वाधिकारवादी विचारधारा को मानने से अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति और सुरक्षा को खतरा उत्पन्न होता है। सर्वाधिकारवादी उग्र राष्ट्रवाद के समर्थक हैं और युद्धों में उनका दृढ़ विश्वास है। यह बात इतनी भयावह है कि उसकी कल्पना करते ही आँखों के सामने अँधेरा छा जाता है।
  • मानवतावादी विचारधारा के प्रतिकूल - आधुनिक युग में विश्व-बन्धुत्व और मानव-प्रेम के विचारों का प्रसार करने का हर जगह प्रयास किया जा रहा है। इसी में मानव का कल्याण है। सर्वाधिकारवादी विचारधारा मानव-प्रेम और विश्वबन्धुत्व में विश्वास नहीं करती और इसलिए त्याज्य है।
  • उन्नति के मार्ग में बाधक - सर्वाधिकारियों का मत है कि इस विचारधारा को मान्यता प्रदान करके ही कोई राष्ट्र उन्नति कर सकता है। पहले यह बात भले ही ठीक हो परन्तु आधुनिक युग में यह ठीक प्रतीत नहीं होती। आज कोई भी देश सैनिक शक्ति के बल पर नहीं पनप सकता। संकुचित राष्ट्रीयता की भावना से उत्प्रेरित व्यक्ति राष्ट्र की उन्नति में सहायक न बनकर बाधक बनता है। कोई भी राष्ट्र आर्थिक क्षेत्र में पूर्ण रूप से स्वावलम्बी होने की बात नहीं सोच सकता क्योंकि कुछ-न-कुछ माल उसे विदेशों से मँगाना पड़ता है। सर्वाधिकारवादी विचारधारा आधुनिक युग में त्याज्य है।

सर्वाधिकारवाद की सफलता

सर्वाधिकारवाद की चाहे जितनी अधिक आलोचना की जाय परन्तु इसमें किंचित् मात्र भी सन्देह नहीं कि इस विचारधारा ने इटली और जर्मनी की उन्नति में महान् योगदान दिया था। फासीवाद और नाजीवाद के युग में इटली और जर्मनी अपने गौरव के चरम शिखर पर पहुँच गये। जनता ने अपने लक्ष्यों की प्राप्ति हेतु इतने अधिक कष्ट उठाये कि उनकी प्राप्ति ही लोगों का एकमात्र उद्देश्य हो गया। वे अपने आदर्शों की प्राप्ति के लिए अपना सब कुछ अर्पित कर देने के लिए तैयार हो गये। सर्वाधिकारवादी विचारधारा ने जनता को एकता के सूत्र में बाँधने का कार्य किया। उससे राष्ट्र की अत्यधिक उन्नति हुई। फासिस्ट इटली और नाजी जर्मनी की सर्वाधिकारवादी विचारधारा ने जनता की भौतिक उन्नति तो की परन्तु उसके बदले में जनता को अपनी स्वतन्त्रता खोनी पड़ी। जनता को अपनी उन्नति हेतु सैनिक शक्ति एवं युद्ध का आश्रय लेना पड़ा। सर्वाधिकारवादी विचारधारा के युग में इन देशों में जो कुछ भी उन्नति हुई, यह अल्पकालीन सिद्ध हुई और जितनी तेजी से इटली एवं जर्मनी ने उन्नति की थी, उतनी ही तेजी से उनका पतन हुआ। इसमें किंचित् मात्र भी सन्देह नहीं है कि यद्यपि आधुनिक युग में जर्मनी और इटली में भी सर्वाधिकारवादी विचारधारा समाप्त हो गई है परन्तु सर्वाधिकारवादी अपना सिर न उठायेंगे, इस सम्बन्ध में कुछ नहीं कहा जा सकता। जर्मन जैसी बुद्धिमान जाति ने सब सर्वाधिकारवादी विचारधारा को अपना लिया तो अन्य जातियाँ इसे अपनाने के लिए तैयार न होंगी, ऐसा नहीं कहा जा सकता । सर्वाधिकारवादी की सफलता यह सिद्ध करती है कि मनुष्य में नेतृत्व और अधिकार सत्ता का अनुगमन करने तथा कार्य करने के लिए प्रबल इच्छा होती है और यदि इस इच्छा का समुचित उपयोग किया जाय तो सभी राष्ट्रों का कल्याण हो सकता है।

सर्वाधिकारवाद का भविष्य

सर्वाधिकारवादी राज्यों में जनता की जो भी उन्नति हुई, उसका अधिक मूल्य जनता को चुकाना पड़ा। उसकी व्यक्तिगत स्वतन्त्रता का अन्त हुआ, मानव व्यक्तित्व का दमन हुआ और सर्वत्र हिंसा का साम्राज्य स्थापित हुआ। सम्पूर्ण जाति के सैन्यीकरण ने पशुता को अपने नग्न रूप में ला दिया। इस सर्वाधिकारी विचारधारा के परिणामस्वरूप ही जनता को भयानक युद्धों का सामना करना पड़ा।
आधुनिक स्थिति यह है कि जनता युद्धों से इतना घबड़ा गई है कि वह सर्वाधिकारवाद को अपनाने के लिए तत्पर नहीं है। यदि सर्वाधिकारवादी विचारधारा को अपना लिया जाय तो कल ही तृतीय महायुद्ध शुरू हो जायेगा, इसमें किंचित् मात्र भी सन्देह नहीं है। इस युद्ध का परिणाम होगा, सम्पूर्ण मानवता का नाश । यही कारण है कि संसार का बुद्धिमान् वर्ग सर्वाधिकारवादी विचारधारा का प्रबल विरोधी है। यह ठीक है कि बुद्धिमान लोग सर्वाधिकारवादी विचारधारा का विरोध कर रहे हैं परन्तु कितने ही व्यक्ति अपने राजनीतिक स्वार्थों की सिद्धि हेतु इस व्यवस्था को अपनाने के लिए तत्पर हो जाते हैं। चीन में माओ का तानाशाही सर्वाधिकारवाद का ही एक रूप है। आधुनिक युग में जब मानव-प्रेम व विश्व बन्धुत्व की दुहाई दी जा रही है तो सर्वाधिकारवाद की कल्पना करना भी मूर्खतापूर्ण होगा । स्वतन्त्रता और समानता के सिद्धान्तों का विरोधी सर्वाधिकारवाद पूर्णतया त्याज्य है, इसमें किंचित् मात्र भी सन्देह नहीं ।

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