शक्ति की अवधारणा | shakti ki avdharna

शक्ति की अवधारणा

विभिन्न सामाजिक शास्त्रों का अध्ययन करने से ज्ञात होता है कि सभी शास्त्रों में 'शक्ति' का अध्ययन किया जाता है किन्तु 'शक्ति' राजनीति का केन्द्रीय विषय है। प्राचीन यूनान के दार्शनिकों से लेकर आज तक के राजनीति के अनेक विद्वानों के लेखों के अध्ययन से प्रकट होता है कि उन्होंने 'शक्ति' को राजनीति का केन्द्रीय विषय माना है। जिन कुछ प्रश्नों का उत्तर खोजने का इन विद्वानों ने प्रयास किया है, वे हैं - 'शक्ति' कैसे प्राप्त की जाती है? 'शक्ति' प्राप्त करने के पश्चात् इसे कैसे बनाये रखा जा सकता है? 'शक्ति' किस प्रकार खो जाती है? 'शक्ति' का आदर्श क्या है, उद्देश्य क्या हैं? इसके क्षेत्र की सीमाएँ क्या हैं? 'शक्ति' के आधार क्या हैं? तथा 'शक्ति' के परिणाम क्या हैं? आदि।
shakti ki avdharna
प्राचीन काल में सुकरात व प्लेटो ने शक्ति का अध्ययन आदर्शवादी व मानवीय दृष्टि से किया था किन्तु थ्रैसीमेकस, अरस्तू, हॉब्स व मैकियावली ने 'शक्ति' का यथार्थ रूप में अध्ययन किया है। इन्होंने भी शक्ति का गहराई से अध्ययन नहीं किया यद्यपि 'शक्ति' को राज्य के विशिष्ट तत्व के रूप में देखा है। प्राचीन भारतीय साहित्य 'दण्ड नीति' के अन्तर्गत शक्ति का अध्ययन किया गया था। बाद में जब विश्व में राष्ट्र-राज्यों (Nation-States) का उदय हुआ तो 'शक्ति' की अवधारणा को विशेष बल प्राप्त हुआ और 'शक्ति' को राज्य के बाह्य सम्बन्धों को निर्धारित करने के लिए महत्वपूर्ण समझा जाने लगा। वर्तमान में हम जिन प्रमुख शक्तिवादियों के विचारों का अध्ययन करते हैं, उनमें लासवैल (Lasswell), मैक्स वैबर (Max Weber), कैटलिन (Catlin), मैरियम (Merriam), बर्ट्रेण्ड रसल (B. Russel), वाटकिन्स (Watkins) तथा मौरगैन्थाऊ (Morgenthau) आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। मैक्स वैबर ने 'शक्ति' के अध्ययन को नवीन रूप दिया है। उसने इसका समाजशास्त्र की पृष्ठभूमि में अध्ययन किया है और इसके क्षेत्र को व्यापक बनाया है। शक्ति सम्बन्धों का क्रमबद्ध अध्ययन मुख्यत: कैटलिन, गोल्ड हैमर (Gold Hamer) तथा शिकागो स्कूल (Chicago School) के राजनीति विज्ञान के विद्वानों ने किया है। इस सन्दर्भ में मौरगैन्थाऊ का योगदान भी महत्वपूर्ण है क्योंकि उन्होंने अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में शक्ति सम्बन्धों की भूमिका का अध्ययन किया है।

शक्ति की परिभाषा

शक्ति के अध्ययन तथा उसकी व्याख्या करने में एक बहुत बड़ी कठिनाई यह है कि विभिन्न विद्वानों ने 'शक्ति' से मिलते-जुलते शब्दों को एक-दूसरे के स्थान पर प्रयोग किया है। इस प्रकार 'शक्ति' (Power) शब्द के पर्याय के रूप में 'प्रभाव' (Influence), 'बल' (Force), 'सत्ता' (Authority) तथा ‘प्रभुत्व' (Domination) आदि शब्द प्रयोग किये गये हैं। इसी कारण चार्ल्स मैरियम (Charles E. Merriam) ने परामर्श दिया है कि नित्य प्रति 'शक्ति' का विविध रूपों में प्रयोग हो रहा है, अतः हमें 'शक्ति' की परिभाषा के विवाद में नहीं पड़ना चाहिए किन्तु विषय को भली-भाँति समझने के लिए विद्वानों द्वारा शक्ति की जिस प्रकार व्याख्या की गयी है, उसका संक्षेप में अध्ययन करना अति आवश्यक है। इसके पश्चात् ही शक्ति की अवधारणा की प्रमुख विशेषताओं का विवेचन किया जा सकता है-
  • राबर्ट बीयर्सटेड (Robert Bierstedt) की दृष्टि में, “शक्ति बल प्रयोग करने की योग्यता है, न कि उसका वास्तव में प्रयोग किया जाना।"
  • इसी बात को मैकाइवर ने इन शब्दों में व्यक्त किया है कि "शक्ति होने से हमारा आशय व्यक्तियों को या व्यवहार को नियन्त्रित करने, विनियमित करने या निर्देशित करने की क्षमता से हैं। "
  • शेरवुड (Sharwood) की दृष्टि में भी शक्ति आदेश देने की क्षमता है। इस प्रकार शक्ति उस क्षमता को कहते हैं जिसमें बल प्रयोग करने की योग्यता होती है, स्वयं बल प्रयोग की इसके लिए आवश्यकता नहीं होती।
  • कैटलिन (Catlin) ने अपनी पुस्तक 'Systematic Theory' में 'शक्ति' की कल्पना को स्पष्ट करते हुए कहा है कि "प्रत्येक व्यक्ति में अपनी आकांक्षाओं को पूरा करने की प्रबल इच्छा होती है। यही इच्छा आकांक्षाओं को पूरा करने का मुख्य साधन होती है। इन आकांक्षाओं को पूरा करने के लिए स्वतन्त्रता की आवश्यकता होती है और शक्ति उस स्थिति को कहते हैं जिसके द्वारा आकांक्षाओं की पूर्ति सम्भव होती है । " कैटलिन की दृष्टि में, "शक्ति व्यक्ति की एक सामान्य प्रवृत्ति होती है। वह स्वयं में आधारभूत लक्ष्य नहीं होती।"
  • लासवैल (Lasswell) की दृष्टि में सम्पूर्ण राजनीतिक सिद्धान्त में शक्ति की अवधारणा सबसे अधिक मौलिक है। लासवैल ने इब्राहम कैपलान के साथ लिखे अपने ग्रन्थ "Power and Society' में कहा है कि "एक आनुभाविक (Empirical) अध्ययन के रूप में राजनीति राजनीतिक शक्ति के स्वरूप को बनाने तथा उसमें भाग लेने का अध्ययन है।"" लासबैल ने अपने ग्रन्थ 'Politics-Who Gets, What, When and How' में शक्ति की विस्तृत व्याख्या की है। उनकी दृष्टि में शक्ति प्रभाव का पर्यायवाची है। उनका कहना है कि समाज में प्रत्येक व्यक्ति सदैव कुछ मूल्यों व मूल्यवान वस्तुओं की प्राप्ति के लिए प्रभाव डालने का प्रयास करता रहता है जिससे उसको उसका इच्छित प्रभाव या पद आदि प्राप्त हो जाये। इस प्रकार राजनीति के अध्ययन का मुख्य उद्देश्य यह है कि कौन, क्या, कब और कैसे प्राप्त करता है?
  • मैक्स वेबर ने शक्ति की व्याख्या समाजशास्त्रीय सन्दर्भ में प्रस्तुत की है और इसे नया रूप दिया है। उसके द्वारा की गयी व्याख्या से शक्ति का स्वरूप बहुत व्यापक हो गया है।
  • वेबर के शब्दों में, "समाज-शास्त्रीय दृष्टिकोण से शक्ति की अवधारणा अत्यधिक विस्तृत है। समाज में विद्यमान सोची जा सकने वाली परिस्थितियाँ व सभी सामाजिक सम्बन्ध शक्ति रखने वाले व्यक्ति (Actor) को एक निश्चित स्थिति में अपनी इच्छा को आरोपित करने की शक्ति प्रदान करते हैं।"
  • मौरगैन्थाऊ ने शक्ति की अवधारणा की व्याख्या अन्तर्राष्ट्रीय सन्दर्भ में प्रस्तुत करते हुए कहा है कि “विभिन्न प्रकार की राजनीति के समान अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति भी शक्ति के लिए संघर्ष है। अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति का चाहे जो भी अन्तिम लक्ष्य हो, निकट भविष्य का लक्ष्य सदैव शक्ति की प्राप्ति करना ही होता है।'

शक्ति की विशेषताएँ

शक्ति की अवधारणा से सम्बन्धित उपर्युक्त परिभाषाओं का अध्ययन करने से स्पष्ट होता है कि शक्ति की निम्नांकित विशेषताएँ होती हैं-
  • शक्ति की अवधारणा सम्बन्धात्मक है (The concept of power is relational) - शक्ति की अवधारणा सम्बन्धात्मक है। इसका आशय यह है कि शक्ति उन दो पक्षों के सम्बन्धों को प्रकट करती है जिनमें से एक के पास शक्ति होती है और दूसरा वह जिस पर शक्ति का प्रयोग किया जाता है। शक्ति को धारण करने वाले पक्ष की स्थिति को अनुभव करने के लिए यह आवश्यक है कि जिन पर शक्ति का प्रयोग किया जाये, वे धारक की शक्ति से परिचित हों। इस प्रकार शक्ति की अवधारणा में एक पक्ष शक्ति रखने वाला होता है तथा अन्य पक्ष वे होते हैं जो उस शक्ति से प्रभावित होते हैं।
  • शक्ति परिस्थितियों पर निर्भर होती है (Power depends upon situations) - शक्ति परिस्थितियों पर निर्भर करती है। परिस्थितियों के बदलने पर शक्ति का अनुभव कम या अधिक हो सकता है। लोकतान्त्रिक व अधिनायकवादी परिस्थितियों की समीक्षा से इसे भली प्रकार समझा जा सकता है। सन् 1975 के आपातकाल की स्थिति और उससे पूर्व की लोकतान्त्रिक परिस्थितियों में शक्ति का भारतवासियों ने भिन्न-भिन्न प्रकार का अनुभव किया है यद्यपि शक्ति - धारक दोनों परिस्थितियों में समान थे। दूसरे, शक्ति निश्चित पदों व भूमिकाओं में भी निहित होती है। इतना ही नहीं, एक ही पद पर दो भिन्न-भिन्न प्रतिभा वाले व्यक्तियों के पदासीन होने पर वास्तविक शक्ति व प्रभाव का पृथक्-पृथक् अनुभव होता है। अमेरिका के किन्हीं दो राष्ट्रपतियों की तुलना से यह स्पष्ट हो सकता है।
  • शक्ति के पीछे अनुशक्तियाँ विद्यमान होती हैं (There are sanctions behind power) - शक्ति की अवधारणा अनुशक्तियों (Sanctions) के अभाव में अकल्पनीय है। यद्यपि शक्ति के पीछे अन्तिम अनुशक्तियों का स्वरूप दमनात्मक व उत्पीड़क (Coercive) होता है किन्तु वास्तविक अनुशक्तियाँ हैं- प्रभाव, प्रोत्साहन व बल आदि। दमनात्मक अनुशक्ति का प्रयोग अन्तिम शक्ति के रूप में ही होता है। जब कभी दानवी प्रवृत्ति के लोगों के हाथ में शक्ति हस्तान्तरित हो जाती है तो वे दमन व उत्पीड़न को अन्य प्रकार की अनुशक्तियों की तुलना में अधिक उपयुक्त समझते हैं। महमूद गजनवी व मुहम्मद गौरी ऐसे ही व्यक्ति थे जिन्होंने दमन व उत्पीड़न को ही अपनी शक्ति का आधार बनाया था। लोकतन्त्र में शक्ति के धारकों को जनसेवक समझा जाता है। अतः यहाँ शक्ति का आधार बल या दमन न होकर प्रभाव (Influence) तथा प्रोत्साहन (Persuation) होता है।
  • शक्ति के लक्ष्य भी समान नहीं होते (The ends are not always the same) - शक्ति का आदर्श व उसके लक्ष्य सदैव बदलते रहते हैं। प्राचीन यूनानी दार्शनिकों की दृष्टि में शक्ति का लक्ष्य सामूहिक हित था, जबकि यथार्थवादी दार्शनिकों (Realists) की दृष्टि में शक्ति का लक्ष्य सदैव व्यक्तिगत हित (Individual Interest) या स्वहित (Self-interests) रहा है। वर्तमान में भी कल्याणकारी राज्यों का आदर्श जनहित ही माना जाता है यद्यपि शक्ति धारक अनेक बार स्व-हित की पूर्ति करते हुए दिखाई देते हैं।
  • यह सैनिक शक्ति से भिन्न है (It is different from military power) - जब हम सैनिक शक्ति की बात करते हैं तो हम हिंसा पर आधारित उस शक्ति की कल्पना करते हैं जो वास्तविक बल प्रयोग से सम्बन्धित है किन्तु शक्ति से आशय वास्तविक बल-प्रयोग से न होकर बल-प्रयोग करने की क्षमता से है। अतः सैनिक शक्ति राजनीतिक शक्ति की अवधारणा से भिन्न होती है। राजनीतिक शक्ति मुख्यतः मनोवैज्ञानिक है। इसकी यह मान्यता है कि कुछ व्यक्ति अन्यों की क्रियाओं व उनके मस्तिष्कों को नियन्त्रित करते हैं। अतः उन्हें वास्तविक बल-प्रयोग की आवश्यकता नहीं पड़ती।
  • वास्तविक शक्तिधारकों को पहचानना कठिन होता है (It is difficult to identify those who yield real power) - प्रत्येक समाज में ऐसे व्यक्ति होते हैं जो वास्तविक शक्ति रखते हैं और नीति निर्धारण आदि में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका होती है किन्तु वे पर्दे के पीछे छिपे हुए होते हैं और उनको पहचानना कठिन होता है। चुनावों में राजनीतिक दलों को चन्दा देकर व अनेक प्रत्याशियों को विभिन्न प्रकार की सहायता देकर पूँजीपति विधायिकाओं में अपना प्रभाव स्थापित कर लेते हैं और बाद में पर्दे के पीछे बैठे सरकारी नीतियों के निर्धारण को प्रभावित करते हैं। इसी कारण स्टीफन एल. वास्बी (Stephen L. Wasby) का कथन है कि "समाज के अत्यधिक शक्तिशाली लोग वे हो सकते हैं जो पर्दे के पीछे रहते हैं या जो वातावरण को तथा समय-समय पर उठने वाले प्रश्नों को नियन्त्रित करते हैं, वे नहीं जो प्रत्यक्ष प्रश्नों को सुलझाने में भाग लेते हैं।

शक्ति के विविध रूप

शक्ति के विभिन्न पक्षों का अध्ययन करने के पश्चात् समाज में विद्यमान इसके विभिन्न रूपों को समझना भी आवश्यक है। सामान्यतः शक्ति तीन रूपों में प्रकट होती है। ये रूप हैं- आर्थिक, राजनीतिक तथा वैचारिक। नीचे इन्हीं तीनों रूपों का वर्णन किया गया है-

1. आर्थिक शक्ति (Economic Power)
आधुनिक युग में आर्थिक शक्ति तथा राजनीतिक शक्ति को पूर्णतः पृथक् नहीं किया जा सकता। एक ओर पूँजीवादी देश हैं जहाँ पूँजीवादी वर्ग अपने हितों की पूर्ति के लिए राजनीतिक शक्ति पर परोक्ष रूप से प्रभाव डालता है और इस प्रकार इन देशों में नीति निर्धारण व पदों के वितरण पर आर्थिक शक्ति का प्रभाव स्थापित रहता है। दूसरी ओर, साम्यवादी देशों में राजनीतिक व आर्थिक दोनों प्रकार की शक्तियों का कुछ हाथों में केन्द्रीकरण हो जाता है। जो लोग राजनीतिक निर्णय लेने की शक्ति रखते हैं, उन्हीं के हाथों में सम्पूर्ण आर्थिक शक्ति भी निहित होती है। अनुभव ने यह सिद्ध कर दिया है कि सामान्यतः सभी साम्यवादी देशों में तानाशाही शासन स्थापित है और उन देशों में जहाँ थोड़े-से पूँजीपतियों को देश की सम्पूर्ण अर्थव्यवस्था पर अधिकार स्थापित करने का अवसर मिल जाता है, वहाँ वे न केवल राजनीतिक शक्ति पर भी अपना परोक्ष रूप में प्रभाव स्थापित कर लेते हैं बल्कि अपने हित साधन करने के लिए राजनीतिक शक्ति का निरंकुश रूप में प्रयोग भी करते हैं। इस प्रकार यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि किसी समाज में जितना अधिक राजनीतिक व आर्थिक शक्ति का केन्द्रीकरण होता जायेगा, वहाँ उतना ही अधिक निरंकुश व तानाशाही शासन स्थापित होता जायेगा।
आर्थिक शक्ति के प्रभाव को एक अन्य प्रकार से भी स्पष्ट किया जा सकता है। जिन देशों में उत्पादन के साधन कुछ थोड़े-से लोगों के हाथों में केन्द्रित होते हैं और अधिकांश जनता गरीब व दरिद्र होती है, वहाँ सामान्यतः निरंकुश शासन की स्थापना की अधिक सम्भावना होती है। इसका कारण यह है कि ऐसे देश की सरकार यदि गरीबों की सहायता करना चाहेगी और उनके जीवन स्तर को ऊँचा उठाना चाहेगी तो उसे पूँजीपतियों के विरुद्ध कठोर कदम उठाने पड़ेंगे और उनकी सम्पत्ति को छीनकर गरीबों में वितरित करना होगा। दूसरी ओर, यदि सरकार पूँजीपतियों के हितों की सुरक्षा करेगी तो उसे गरीबों के विरोध को समाप्त करने के लिए कठोर कदम उठाने होंगे। दोनों परिस्थितियों में सरकार का स्वरूप निरंकुश ही रहेगा।
राबर्ट ए. डहल (Robert A. Dahl) ने ठीक ही कहा है कि “जिन देशों में अधिकांश जनता दरिद्र होती है, वहाँ की सरकार को बल प्रयोग करने के अधिक अवसर प्राप्त होते हैं और दूसरी ओर, जिन देशों में साधारण जनता खुशहाल व सुखी होती है, वहाँ लोकतन्त्र की सफलता की अधिक सम्भावना होती है।”
एस. एम. लिपसेट (S. M. Lipset) ने यूरोप व दक्षिण अमेरिका के अनेक देशों का तुलनात्मक अध्ययन करके डहल के कथन की पुष्टि करते हुए अपना मत व्यक्त किया है कि जिन देशों में अधिकांश लोग गरीब हैं, वहाँ तानाशाही की स्थापना की अधिक सम्भावनाएँ होती हैं।
शक्ति का समर्थन करने वाले लेखकों ने आर्थिक शक्ति को अधिक महत्व नहीं दिया है। वे यह तो मानते हैं कि आर्थिक शक्ति राजनीतिक शक्ति को प्रभावित करती है किन्तु वे यह नहीं मानते कि आर्थिक शक्ति ही राजनीतिक शक्ति का स्वरूप ले लेती है। उन्होंने पूँजीवाद के अधिक विकसित रूप का विश्लेषण करते हुए एक नया दृष्टिकोण प्रस्तुत किया है। गालब्रेथ (Galbraith), जे. चाइल्ड (J. Child) व स्ट्रैची (Strachey), बर्नहम (Burnham), क्रॉसलैण्ड (Crosland) तथा आर. डहरेनड्रोफ (R. Dahrendrof) आदि लेखकों ने यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि आधुनिक युग में पूँजी के मालिक (Capitalist) स्वयं पूँजी का नियन्त्रण (Control of Capital) नहीं करते। पूँजी के नियन्त्रण का कार्य एक-दूसरे 'प्रबन्धक' वर्ग के पास होता है। इस प्रकार उन्होंने पूँजी के मालिकों व पूँजी के नियन्त्रकों (Ownership of Capital and Controller of Capital) को पृथक् करने का प्रयास किया है। आधुनिक युग में बड़े-बड़े आर्थिक प्रतिष्ठानों में पूँजी के असली मालिक शेयरधारी (Shareholders) होते हैं। वे स्वयं इन प्रतिष्ठानों का प्रबन्ध नहीं सँभालते बल्कि उनके द्वारा नियुक्त प्रबन्धक (Managers) यह कार्य करते हैं। उन्होंने निष्कर्ष निकाला है कि पूँजी के असली मालिकों (Shareholders) के हाथों में आर्थिक शक्ति नहीं होती; इनके स्थान पर यह शक्ति अब प्रबन्धकों के हाथों में चली गयी है। इसे वे प्रबन्धवाद (Managerialism) या प्रबन्धकीय क्रान्ति (Managerial Revolution) के नाम से पुकारते हैं। उनका कहना है कि पूँजीवाद के इस परिवर्तित स्वरूप का परिणाम यह निकला है कि प्रबन्धक वर्ग केवल पूँजीपतियों के हितों की पूर्ति ही नहीं करते बल्कि उत्पादन में लगे अन्य वर्गों के हितों के साथ-साथ सामान्य जनता के हितों की पूर्ति भी करते हैं। यही कारण है कि पूँजीवादी देशों में श्रमिकों का व साधारण जनता का जीवन-स्तर ऊँचा उठा है।

2. राजनीतिक शक्ति (Political Power)
राजनीतिक शक्ति से आशय उस शक्ति से है जिसके द्वारा शासकीय निर्णय लिये जाते हैं; उन्हें लागू किया जाता है और इन निर्णयों का उल्लंघन करने वालों को दण्ड दिये जाने की व्यवस्था की जाती है। इन कार्यों के लिए राजनीतिक शक्ति नागरिकों को प्रभावित करती है और उन्हें राजनीतिक शक्ति के निर्णयों के अनुसार व्यवहार करने का अभ्यस्त बनाती है।
यद्यपि उपर्युक्त कार्य समाज में विद्यमान विभिन्न समुदायों द्वारा सम्पन्न होते रहते हैं किन्तु राज्य इन समुदायों में सर्वाधिक सुसंगठित होने के कारण अपने निर्णयों को अधिक प्रभावपूर्ण ढंग से लागू करवा सकता है, क्योंकि उसके पास अपनी आज्ञाओं को मनवाने की शक्ति भी होती है, यद्यपि इन निर्णयों को राजनीतिक दल व दबाव समूह आदि संगठन भी प्रभावित करते हैं। राज्य का स्वरूप अनेक प्रकार का हो सकता है, जैसे- नेपाल के समान वंशानुगत राजतन्त्र जहाँ राजा वंशानुगत राज्य करता है, भारत जैसे देश के समान लोकतन्त्र जहाँ जनता अपने शासकों को पाँच वर्ष के लिए चुनती है, रूस जैसे देश के समान साम्यवादी शासन जहाँ साम्यवादी दल का अधिनायकवाद स्थापित है तथा पाकिस्तान जैसे देशों में जहाँ सैनिक शासन की स्थापना सामान्य बात है आदि।
राज्य के विभिन्न स्वरूपों के होते हुए भी जहाँ तक राजनीतिक शक्ति के उपयोग करने का प्रश्न है, सभी शासनों में कुछ विशिष्ट वर्ग के लोग ही शक्ति का प्रयोग करते हैं, इनमें प्रशासनिक अधिकारी (Administrators), कानून निर्माता (Law-makers), पुलिस, सेना, न्यायालय, राजनीतिज्ञ, राजनीतिक दल व दबाव समूह आदि सम्मिलित होते हैं।

3. वैचारिक शक्ति (Ideological Power)
वैचारिक शक्ति से आशय उस शक्ति से है जिसके माध्यम से शासक जनता को अपने पक्ष का बनाकर उस पर अपने शासन को स्थायी बनाने का प्रयास करता है। यह मान्यता प्रत्येक युग में रही है कि हिंसा व बल प्रयोग के माध्यम से जनता पर स्थायी शासन स्थापित नहीं किया जा सकता। अतः प्रत्येक युग में शासकों ने अपनी-अपनी परिस्थितियों के अनुसार जनता के विचारों को इस प्रकार बदलने का प्रयास किया है कि उनके शासन को वैचारिक समर्थन प्राप्त हो सके। इतिहास इस बात का साक्षी है कि जिन शासकों ने हिंसा व बल प्रयोग के माध्यम से शासन करने का प्रयास किया है, उनको जन समर्थन प्राप्त नहीं हुआ है और वे स्थायी नहीं रहे हैं। इस प्रकार वैचारिक शक्ति का राजनीति में महत्वपूर्ण स्थान है। यह सत्य है कि इस वैचारिक युग में विचारों की शक्ति ने और अधिक महत्व प्राप्त कर लिया है।

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