स्वतंत्रता क्या है? अर्थ एवं परिभाषा, प्रकार, नकारात्मक व सकारात्मक सिद्धान्त | swatantrata kya hai

स्वतंत्रता

यूनान, रोम, इंग्लैण्ड व अन्य देशों का इतिहास 'स्वतन्त्रता' (Liberty) और 'राजसत्ता' (Authority) के बीच संघर्ष का इतिहास रहा है। प्रसिद्ध अंग्रेज विचारक हरबर्ट स्पेंसर ने अपने एक ग्रन्थ का शीर्षक 'व्यक्ति बनाम राज्य' (Man Versus the State) रखा है जिसका अर्थ यह हुआ कि व्यक्ति और राज्य, ये दो परस्पर विरोधी शिविर हैं और दोनों के बीच निरन्तर संघर्ष चलता रहता है।

राज्य का लक्ष्य निःसंदेह 'मानव की भलाई' करना है किन्तु फिर भी ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न हो सकती हैं जिनसे राज्य के कार्यों की इस आधार पर आलोचना की जाये कि वे मनुष्यों की स्वतन्त्रता व उनके अधिकारों के विरुद्ध हैं। अतएव स्वतन्त्रता के स्वरूप, उसके विभिन्न पहलुओं तथा स्वतन्त्रता सम्बन्धी उदार व मार्क्सवादी धारणाओं का विस्तार से अध्ययन करने की आवश्यकता है।

स्वतन्त्रता का अर्थ एवं परिभाषा

स्वतन्त्रता का अंग्रेजी पर्याय 'लिबर्टी' (Liberty) है जिसकी व्युत्पत्ति लैटिन भाषा के शब्द 'लिबर' (Liber) से हुई। 'लिबर' का उस भाषा में अर्थ होता है- 'सभी प्रकार के बंधनों का अभाव' (Absence of Restraints)। इसका आशय यह हुआ कि प्रत्येक व्यक्ति को बिना किसी रोक-टोक के अपनी इच्छानुसार कार्य करने की स्वतन्त्रता प्राप्त है। स्वतन्त्रता की यह परिभाषा भ्रमपूर्ण है। बड़े से बड़ा स्वतन्त्रतावादी भी यह नहीं कहेगा कि लोगों के कार्यों पर किसी भी प्रकार का प्रतिबन्ध नहीं होना चाहिए। सामाजिक जीवन प्रतिबन्धों के बिना चल ही नहीं सकता। यदि प्रत्येक बन्धन को एक बुराई मान लिया जाये तो 'स्वतन्त्रता' और 'निरंकुश व्यवहार' के बीच कोई अन्तर नहीं रह जायेगा। सभ्य समाज की पहली शर्त यही है कि किसी भी व्यक्ति को सदैव मनचाहा कार्य करने की स्वतन्त्रता नहीं मिल सकती।
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तो फिर स्वतन्त्रता से क्या आशय है? प्राचीन और अर्वाचीन अनेक विद्वानों ने स्वतन्त्रता की परिभाषाएँ दी हैं। कुछ विद्वानों के मतानुसार स्वतन्त्रता का अर्थ केवल 'शासन की नीतियों को प्रभावित 'करने की शक्ति' (Power to exercise an effective influence on the decision of government) है, जबकि कुछ अन्य लोगों ने 'विचारों की स्वतन्त्रता' (Freedom of Expression) को ही स्वतन्त्रता माना है। कुछ विद्वानों के मतानुसार, “अतिशासन का विपरीत ही स्वतन्त्रता है (Liberty is the opposite of over-government – Seeley)।" "अतिशासन' से आशय है- जीवन के सभी पक्षों पर सरकार का कठोर नियन्त्रण। दूसरे शब्दों में, पारिवारिक, धार्मिक, सांस्कृतिक और आर्थिक मामलों में अत्यधिक सरकारी नियन्त्रण का न होना ही स्वतन्त्रता है। कार्ल मार्क्स के मित्र एंजिल्स ने उस आदर्श परिस्थिति की कल्पना की थी जिसमें पुलिस, अदालत, सेना व अन्य दमनकारी संस्थाओं की आवश्यकता न रहे। उसके मतानुसार पूर्ण स्वतन्त्रता उसी स्थिति में सम्भव होगी।
व्यावहारिक दृष्टि से प्रो. अर्नेस्ट बार्कर (Ernest Barker) की परिभाषा बहुत उपयुक्त है। उसके कथनानुसार, "स्वतन्त्रता के सिद्धान्त का अर्थ है कि राज्य प्रत्येक सदाचारी व्यक्ति को स्वतन्त्र मानव के रूप में देखे और यह मानकर चले कि वह अपने ढंग से अपनी योग्यताओं का विकास करने की क्षमता रखता है। चूँकि वह इस प्रकार की क्षमता रखता है, इसलिए उसे उन अधिकारों के उपभोग का अवसर दिया जाये जिनके बिना योग्यताओं का विकास सम्भव नहीं है।" यह परिभाषा तीन बातों पर प्रकाश डालती है। प्रथम, केवल सदाचारी व्यक्ति को ही एक स्वतन्त्र व्यक्ति का दर्जा दिया जा सकता है। इसका आशय यह है कि केवल नैतिक इच्छाओं को ही पूरा करने की स्वतन्त्रता दी जा सकती है। मनुष्य की वे माँगें जो नैतिक आदर्शों के अनुकूल नहीं है, किसी भी दशा में स्वीकार नहीं की जा सकतीं। उदाहरणार्थ, कोई व्यक्ति दूसरों के अपहरण की स्वतन्त्रता की माँग नहीं कर सकता। इस प्रकार की माँग अनैतिक होने के साथ-साथ असामाजिक भी है। वह 'व्यक्ति' और 'समाज' दोनों के लिए बुरी है। द्वितीय, प्रत्येक व्यक्ति की अपनी पृथक्-पृथक् योग्यता व आवश्यकताएँ होती हैं। उनका पृथक्-पृथक् ढंग से विकास हो सकता है। लोगों को अपनी योग्यताओं के विकास का अवसर प्राप्त होना चाहिए। तृतीय, इन अवसरों को जुटाने के लिए राज्य द्वारा मनुष्य को कुछ अधिकार प्रदान किये जाने चाहिए।
लास्की (Laski) ने भी अपनी परिभाषा में लगभग इन्हीं तत्वों पर प्रकाश डाला है। लास्की कहता है कि "स्वतन्त्रता से मेरा आशय है- यत्नपूर्वक ऐसा वातावरण बनाये रखना जिसमें व्यक्तियों को अपने सर्वोच्च विकास का अवसर मिले। स्वतन्त्रता की उत्पत्ति अधिकारों से होती है।"

स्वतन्त्रता का स्वरूप

विभिन्न विद्वानों द्वारा दी गयी उपर्युक्त परिभाषाओं के आधार पर स्वतन्त्रता की निम्नांकित विशेषताओं का विवेचन किया जा सकता है-
  1. स्वतन्त्रता का सही अर्थ केवल प्रतिबन्धों का अभाव नहीं है (Liberty does not merely mean absence of restraints) - अनुचित प्रतिबन्धों का न होना बहुत आवश्यक है किन्तु साथ ही उन परिस्थितियों का होना (Eager maintenance of that atmosphere) भी बहुत आवश्यक है। जिनके बिना व्यक्तित्व का विकास समभव नहीं है। उदाहरणार्थ, यही आवश्यक नहीं है कि रोजगार प्राप्त करने पर प्रतिबन्ध न हो बल्कि यह भी आवश्यक है कि रोटी, वस्त्र और आवास की सुविधाएँ उपलब्ध हों तथा बेरोजगारी, बीमारी या वृद्धावस्था की स्थिति में व्यक्ति को भूखों न मरना पड़े।
  2. किसी की भी स्वतन्त्रता पूर्ण या असीम नहीं हो सकती (Liberty is never absolute) - समाज में और भी अनेक व्यक्ति निवास करते हैं, अतः उनकी स्वतन्त्रता के लिए मेरी स्वतन्त्रता पर प्रतिबन्ध लगाया जाना अति आवश्यक है। उद्योगपति का यह अधिकार है कि वह यह निर्णय ले सके कि उसके कारखानो में कौन-सा माल कितनी मात्रा में बनेगा किन्तु मजदूरों के भी अपने कुछ अधिकार हैं। इसलिए उद्योगपति को यह स्वतन्त्रता नहीं दी जा सकती कि वह मजदूरों सें चाहे जितने घण्टे काम ले और उन्हें जब चाहे नौकरी से निकाल दे। विचार और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का अपना एक विशेष महत्व है किन्तु मनुष्यों को अपनी इच्छानुसार कुछ भी कहने या करने की स्वतन्त्रता नहीं दी जा सकती ।
  3. स्वतन्त्रता और कानून एक-दूसरे के प्रतिद्वन्द्वी नहीं हैं (Liberty and Law do not quarrel) - यह कानून कि कोई भी व्यक्ति आत्महत्या नहीं करेगा, वास्तव में, व्यक्ति की स्वतन्त्रता पर प्रतिबन्ध नहीं माना जा सकता। इसी प्रकार यह व्यवस्था कि एक निश्चित आयु तक बच्चों को अनिवार्य रूप से शिक्षा देनी होगी, बच्चों के माता-पिता की स्वतन्त्रता पर प्रतिबन्ध नहीं है किन्तु इसका यह अर्थ भी नहीं है कि प्रत्येक कानून स्वतन्त्रता का पोषण ही करता है। ऐसे अनेक उदाहरण दिये जा सकते हैं। कि राज्यों ने अन्यायपूर्ण कानून बनाये अथवा न्यायसंगत कानूनों को अन्यायपूर्ण ढंग से लागू किया।
  4. स्वतन्त्रता के अनेक प्रकार हैं (Liberty is plural) - मनुष्य जीवन के अनेक पहलू हैं, और उसके विकास के लिए अनेक बातें आवश्यक हैं। इसलिए स्वतन्त्रता के अनेक प्रकार होते हैं, जैसे - नागरिक स्वतन्त्रता, राजनीतिक स्वतन्त्रता तथा आर्थिक स्वतन्त्रता आदि । नीचे इन स्वतन्त्रताओं का संक्षिप्त विवेचन किया गया है।

स्वतन्त्रता के विभिन्न प्रकार

मोटे रूप से स्वतन्त्रता के निम्नलिखित तीन प्रकार हैं-

1. नागरिक स्वतन्त्रता (Civil Liberty)
बार्कर के मतानुसार नागरिक स्वतंत्रता के अन्तर्गत पाँच तरह की स्वतन्त्रताएँ आती हैं - (क) हत्या, चोट तथा हत्या की धमकी से शरीर की सुरक्षा (Freedom from Injury or Threat to the Life); (ख) इच्छानुसार घूमने-फिरने की स्वतन्त्रता (Freedom of Movement); (ग) विचारों और विश्वासों की स्वतन्त्रता (Freedom for the Expression of Thought and Belief); (घ) धर्म-पालन की स्वतन्त्रता (Religious Liberty) तथा (ङ) अन्य व्यक्तियों से करार व सम्बन्ध बनाये रखने की स्वतन्त्रता (Freedom in the Field of Contractual Action and Relations with other Persons।

2. राजनीतिक स्वतन्त्रता (Political Liberty)
लास्की के मतानुसार, “राज्य के मामलों में सक्रिय रूप से भाग लेने की शक्ति को राजनीतिक स्वतन्त्रता कहते हैं।" इस स्वतन्त्रता के अन्तर्गत ये अधिकार सम्मिलित हैं- (क) मत प्रदान करने का अधिकार, (ख) विधानमण्डल की सदस्यता प्राप्त करने का अधिकार, (ग) राजनीतिक दलों के गठन का अधिकार, (घ) सभा व सम्मेलन की स्वतन्त्रता आदि तथा (ङ) राजनीतिक विषयों पर मत व्यक्त करने की स्वतन्त्रता। राजनीतिक स्वतन्त्रता लोकतान्त्रिक प्रणाली में ही सम्भव है। दक्षिण अफ्रीका में जहाँ गोरों का शासन है तथा उन देशों में जहाँ सैनिक तानाशाही या अन्य किसी तरह की निरंकुश शासन-प्रणाली विद्यमान है, राजनीतिक स्वतन्त्रता की कोई सम्भावना नहीं होती। राजनीतिक स्वतन्त्रता के अन्तर्गत "राज्य का विरोध करने का अधिकार" (Right to resist State) भी सम्मिलित है।

3. आर्थिक स्वतन्त्रता (Economic Liberty)
आर्थिक स्वतन्त्रता के अनेक पहलू हैं। यदि एक ओर इसका यह आशय है कि व्यक्ति को व्यवसाय चुनने, सम्पत्ति अर्जित करने और उसका उपभोग करने की स्वतन्त्रता प्राप्त हो तो दूसरी ओर, इसका यह अर्थ भी है कि लोग आर्थिक अभावों से मुक्त हों (Freedom from Want)। मानव अधिकारों की घोषणा (Universal Declaration of Human Rights) में आर्थिक स्वतन्त्रता के अन्तर्गत निम्नलिखित अधिकार सम्मिलित किये गये हैं- (क) काम पाने का अधिकार, (ख) उचित पारिश्रमिक अथवा वेतन प्राप्त करने का अधिकार, (ग) ट्रेड यूनियन के गठन का अधिकार तथा (घ) आराम व विश्राम का अधिकार अर्थात् कार्य करने के घण्टे निश्चित हों तथा नियमित रूप से सवेतन अवकाश की व्यवस्था हो।
अठारहवीं व उन्नीसवीं शताब्दी में उदार लोकतन्त्र के समर्थकों ने नागरिक व राजनीतिक अधिकारों के प्रति जितना उत्साह प्रदर्शित किया था, उतना आर्थिक स्वतन्त्रता के प्रति उत्साह प्रदर्शित नहीं किया गया था। इसके ठीक विपरीत मार्क्सवादियों ने आर्थिक स्वतन्त्रता को प्राथमिकता दी है।
हैराल्ड लास्की ने आर्थिक स्वतन्त्रता को 'औद्योगिक स्वशासन' (Industrial Self-Government) के साथ सम्बद्ध कर दिया है। इससे लास्की का आशय यह है कि कारखानों का प्रबन्ध श्रमिकों के हाथों में होना चाहिए। आधुनिक युग के सभी उदारवादी विचारक लास्की की इस धारणा से शत-प्रतिशत सहमत नहीं हैं। फिर भी, कारखानों के संचालन में मजदूरों का सहयोग लेने की योजनाएँ अवश्य बनायी जानी चाहिए, ताकि उद्योगपति उनका शोषण न कर सकें।

4. राष्ट्रीय स्वतन्त्रता (National Liberty)
राष्ट्रीय स्वतन्त्रता का आशय है कि प्रत्येक राष्ट्र को 'स्वशासन' का अधिकार प्राप्त होना चाहिए (Every man and every body of men on earth, possess the right of self-government. Jefferson)। जन-साधारण को यह निर्णय करने का अधिकार प्राप्त है कि उनकी सरकार कैसी हो। कोई भी राष्ट्र किसी अन्य राष्ट्र को गुलाम बनाने का अधिकार नहीं रखता। स्वतन्त्रता का सिद्धान्त साम्राज्यवाद का विरोधी है। द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान एटलांटिक चार्टर (Atlantic Charter) नामक घोषणा पत्र में यह कहा गया था कि सभी राष्ट्र अपनी इच्छानुसार अपनी सरकार का स्वरूप निर्धारित करने के लिए स्वतन्त्र हैं।
स्वतन्त्रता का सिद्धान्त वास्तव में अत्यधिक पेचीदा और उलझा हुआ है। विभिन्न प्रकार की स्वतन्त्रताओं का यदि एक ओर आपस में सम्बन्ध है तो दूसरी ओर, उनमें परस्पर अन्तर्विरोध भी है। उदाहरणार्थ, नागरिक व आर्थिक स्वतन्त्रताओं का टकराव सम्भव है। नागरिक स्वतन्त्रता के अन्तर्गत मालिक को यह अधिकार प्राप्त है कि वह मजदूरों से उनके वेतन के विषय में चाहे जैसा करार या अनुबन्ध (Contract) करे किन्तु आर्थिक स्वतन्त्रता के अन्तर्गत मजदूर एक न्यूनतम वेतन की माँग कर सकते हैं। अनेक बार नागरिक व राजनीतिक स्वतन्त्रताओं के बीच भी परस्पर संघर्ष हो जाता है, क्योंकि प्रत्येक पक्ष अपनी माँग को न्यायोचित ठहराता है, इसीलिए यह निर्णय कर पाना कठिन हो जाता है कि अमुक स्थिति में क्या किया जाये।

स्वतन्त्रता के नकारात्मक व सकारात्मक सिद्धान्त

शब्दार्थ की दृष्टि से 'स्वतन्त्रता' का अर्थ होता है ' बन्धनों का अभाव'। इसका आशय यह है कि मनुष्य के विचारों और उसके कार्यों पर किसी प्रकार का प्रतिबन्ध न हो। निश्चय ही यह परिभाषा अपूर्ण है किन्तु फिर भी अनेक ऐसे विचारक हैं जिन्होंने स्वतन्त्रता के नकारात्मक पहलू पर अधिक बल दिया है। दूसरी ओर, ऐसे विचारक भी हैं जो स्वतन्त्रता को प्रतिबन्धों का अभाव नहीं बल्कि सुअवसरों की उपस्थिति मानते हैं। यहाँ हम इन दोनों विचारधाराओं का विस्तार से विवेचन करेंगे।

स्वतन्त्रता का नकारात्मक सिद्धान्त
स्वतन्त्रता के नकारात्मक सिद्धान्त का प्रतिपादन करने वाले विचारक यह नहीं कहते कि मनुष्य की इच्छा और उसके कार्यों पर किसी भी प्रकार का प्रतिबन्ध नहीं होना चाहिए। सामाजिक जीवन प्रतिबन्धों के बिना तो चल ही नहीं सकता। इसलिए कोई भी विचारशील व्यक्ति यह कैसे कह सकता है कि मनुष्य के कार्यों पर किसी प्रकार का प्रतिबन्ध न हो। “जिसे चाहो लूट लो और जिसे चाहो उसकी हत्या कर दो" यह तो केवल अराजक स्थिति में ही सम्भव है। अतएव यह मानना भूल होगी कि नकारात्मक सिद्धान्त के समर्थक अराजकता को प्रोत्साहन देते हैं। इतना अवश्य है कि ये विद्वान राज्य के कार्यों को बहुत सीमित रखने के पक्ष में हैं और कहते हैं कि कानून जितने अधिक होंगे, व्यक्ति की स्वतन्त्रता उतनी ही कम होगी। नकारात्मक सिद्धान्त के प्रतिपादकों में विशेष रूप से निम्नलिखित विचारकों की चर्चा की जा सकती है-

1. लॉक का व्यक्तिवाद
लॉक के मतानुसार जीवन, स्वतन्त्रता और सम्पत्ति का अधिकार, मनुष्य के प्राकृतिक अधिकार हैं। सम्पत्ति और स्वतन्त्रता पर लॉक ने इतना अधिक बल दिया है कि मानो ये अधिकार असीम हों। उसने कहा है कि राज्य का गठन इन अधिकारों की रक्षा के लिए ही किया गया है। लॉक बार-बार इस बात का आग्रह करता है कि राज्य स्वयं 'साध्य' (End) नहीं है, उसका अस्तित्व तो जनता के लिए है। इसलिए नागरिकों के हितों से भिन्न किसी राज्य की कल्पना करना सर्वथा अनुचित बात होगी। सरकार का कोई ऐसा कानून न्यायसंगत नहीं माना जा सकता जो जन-अधिकारों पर प्रतिबन्ध लगाता हो । दूसरे शब्दों में, पूँजीपति द्वारा अथाह धनराशि के संचित किये जाने को लॉक उचित मानता था। लॉक ने धार्मिक सहिष्णुता (Religious Tolerance) व विचारों की स्वतन्त्रता पर अत्यधिक बल दिया है। उसके मतानुसार धार्मिक क्षेत्र में राज्य के हस्तक्षेप का कोई औचित्य नहीं है।
धार्मिक जगत में बल-प्रयोग धर्म के उद्देश्य को ही नष्ट कर देता है। सरकार 'स्वामी' के नाते नहीं 'जनता के ट्रस्टी' के रूप में कार्य कर सकती है। लॉक के मतानुसार राज्य के केवल कुछ गिने-चुने कर्तव्य हैं, जैसे- बाह्य आक्रमणों से रक्षा, शान्ति और व्यवस्था की स्थापना तथा जीवन व सम्पत्ति की सुरक्षा के लिए कानून बनाना।
प्रो. वॉहन के शब्दों में, “लॉक के राजदर्शन में प्रत्येक वस्तु व्यक्ति के चारों ओर घूमती है। प्रत्येक नियम का उद्देश्य केवल व्यक्ति की सर्वोच्चता की रक्षा करना है।"
यहाँ यह उल्लेखनीय है कि लॉक का सिद्धान्त उस युग में उतना ही लोकप्रिय था जितना कि उन्नीसवीं शताब्दी में डार्विन का विकासवादी सिद्धान्त तथा बीसवीं शताब्दी में कार्ल मार्क्स का द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद (Dialectical Materialism) का सिद्धान्त। अमेरिका की स्वतन्त्रता की घोषणा मानो लॉक के विचारों का ही रूपान्तर है।

2. एडम स्मिथ और रिकार्डो का लेसे फेयरे का सिद्धान्त
एडम स्मिथ और रिकार्डो भूमि, श्रम और पूँजी पर निजी स्वामित्व का समर्थन करते हैं। उनके मतानुसार आर्थिक क्रियाओं के परिचालन में राज्य यदि हस्तक्षेप न करे तो उससे न केवल मनुष्य की स्वतन्त्रता की ही रक्षा होगी बल्कि समाज की भी उन्नति होगी। प्रत्येक व्यक्ति अधिक-से-अधिक धन अर्जित करने का प्रयास करेगा और समाज क्योंकि 'मनुष्यों का समूह' है, इसलिए मनुष्यों की उन्नति से समाज स्वयं भी सम्पन्न बनेगा। इस प्रकार राज्य को मजदूरों के कार्य करने के घण्टे, उनके वेतनमान, उत्पादन की मात्रा तथा वस्तुओं के लाने-ले जाने पर प्रतिबन्ध लगाने का कोई अधिकार नहीं।

3. स्पेंसर और मैकाले का व्यक्तिवाद
स्वतन्त्रता के नकारात्मक सिद्धान्त का सबसे प्रबल समर्थक स्पेंसर (1820-1903) था। उसके ग्रन्थ का शीर्षक 'व्यक्ति बनाम राज्य' (Man Versus the State) इस बात का परिचायक है कि उसने राज्य को मानव स्वतन्त्रता का विरोधी माना है। स्पेंसर का राज्य मात्र पुलिस राज्य है। उसके केवल दो कार्य हैं - बाह्य आक्रमणों से सुरक्षा तथा आन्तरिक व्यवस्था बनाये रखना। इनके अतिरिक्त, राज्य अन्य जो भी कार्य करेगा, उनसे व्यक्तिगत स्वतन्त्रता का हनन होगा। राज्य के हस्तक्षेप का स्पेंसर इतना घोर विरोधी था कि डाक, तार, टेलीफोन या रेल की व्यवस्था जैसे कार्य भी उसने निजी हाथों में ही रहने देने का तर्क प्रस्तुत किया था। वह नहीं चाहता था कि राज्य के पास ये कार्य रहें। इससे स्पष्ट है कि शिक्षा, स्वास्थ्य, मुद्रा या चिकित्सा जैसे कार्यों को तो स्पेंसर राज्य को सौंप ही नहीं सकता था । सम्पत्ति, धर्म व पारिवारिक स्वतन्त्रता को उसने मनुष्य के निजी अधिकार (Private Rights) माना है। स्पेंसर के मतानुसार, "व्यक्तिगत स्वतन्त्रता व सम्पत्ति अर्जन की स्वतन्त्रता दोनों एक-दूसरे से सम्बद्ध हैं। (Personal freedoms and property are one and inseparable)।"
मैकाले (Macaulay) भी पूँजीवादी व्यवस्था का प्रबल समर्थक था। उसका विचार था कि पूँजीवाद ही मानव विकास की चरम सीमा है। आर्थिक प्रगति का सर्वोत्तम उपाय यह है कि आर्थिक गतिविधियों में राज्य किसी भी तरह का हस्तक्षेप न करे, सम्पूर्ण संसार एक 'मुक्त बाजार' (Free Market) का रूप ग्रहण कर ले तथा वस्तुओं के उत्पादन और लाने-ले जाने पर कोई रोक-टोक न हो। लोगों को स्वतन्त्रता होनी चाहिए कि वे अपनी पूँजी उन कार्यों में लगायें जिन्हें वे सबसे अधिक लाभप्रद समझते हैं।

4. बीसवीं शताब्दी के प्रबल स्वतन्त्रतावादी-कोइंग तथा हेयक
बीसवीं शताब्दी के अधिकांश विचारक स्वतन्त्रता के नकारात्मक सिद्धान्त में विश्वास नहीं रखते थे। वे स्वतन्त्रता से भी अधिक आर्थिक समानता को महत्व देते हैं। फिर भी, कुछ ऐसे विचारक हैं जिनके अनुसार स्वतन्त्रता का सिद्धान्त समानता से ऊपर है। प्रो. कोइंग ने अपनी रचनाओं में स्वन्त्रता को प्राथमिकता दी है। जैसा कि आनोल्ड बैश्ट ने कहा है "कोइंग के राजदर्शन में समानता की अपेक्षा स्वतन्त्रता का पलड़ा भारी है।" (The liberty takes precedence over equality)। इसी प्रकार फ्रेडरिक हेयक (Frederick Hayek) भी महारानी विक्टोरिया के युग की पूँजीवादी व्यवस्था को मानव- इतिहास का 'स्वर्णयुग' (Golden Age) मानते हैं। हेयक के मतानुसार आधुनिक कल्याणकारी राज्य (Welfare States) वास्तव में जनता का कल्याण नहीं कर रहे हैं। शिक्षा, स्वास्थ्य, आवास, रोजगार और सामाजिक सुरक्षा के नाम पर ये राज्य मानव जीवन में बहुत अधिक हस्तक्षेप करने लगे हैं, जबकि अच्छा यह होता कि लोगों को उनके हाल पर छोड़ दिया जाता, क्योंकि वे स्वयं अपने हितों के सर्वोत्तम रक्षक हैं। साम्यवादी व्यवस्था में राज्य की तुलना में व्यक्ति का कोई मूल्य नहीं होता; वह केवल एक 'जीवित यन्त्र' (Living Tool) बनकर रह जाता है। हेयक (Hayek) के शब्दों में, “पूर्ण नियोजित अर्थव्यवस्था का आशय है-पूर्ण दासता (Total Planning is Total serfdom)।"
ऊपर हमने स्वतन्त्रता के नकारात्मक सिद्धान्त का प्रतिपादन करने वाले कुछ प्रमुख विद्वानों के विचारों की चर्चा की है। उनके विचारों का विश्लेषण करने पर हम निम्नांकित परिणामों पर पहुँचते हैं-
प्रथम, ये विचारक राज्य के कानूनों और व्यक्ति की स्वतन्त्रता में स्वाभाविक विरोध बताते हैं।
दूसरे, इनमें से अधिकांश विद्वानों ने सम्पत्ति व अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता को असीम माना है। इन स्वतन्त्रताओं पर किसी भी तरह का प्रतिबन्ध उन्हें तनिक भी पसन्द नहीं है।
तीसरे, ये सभी विचारक समानता की अपेक्षा स्वतन्त्रता को प्राथमिकता देते हैं । स्वतन्त्रता के अन्तर्गत भी उन्हें नागरिक व राजनीतिक स्वतन्त्रता अधिक प्रिय है।
चौथे, ये विचारक मनुष्य के अधिकारों पर ही बल देते हैं, उनके कर्तव्यों की ओर संकेत नहीं करते।
पाँचवें, स्वतन्त्रता के नकारात्मक सिद्धान्त के अनुयायी राज्य के कार्यों को बहुत अधिक सीमित रखने के पक्ष में हैं। उनके मतानुसार, "वह सरकार सबसे अच्छी है जो सबसे कम शासन करती है।"

स्वतन्त्रता का सकारात्मक सिद्धान्त
इसमें कोई संदेह नहीं कि लॉक, एडम स्मिथ व स्पेंसर के विचारों का अठारहवीं व उन्नीसवीं शताब्दी की राजनीति और अर्थनीति पर बहुत व्यापक प्रभाव पड़ा है किन्तु इन विद्वानों के विचारों में कुछ असंगतियाँ भी थीं। उन्होंने प्राकृतिक अधिकारों की आड़ में स्वतन्त्रता का कुछ ऐसा ताना-बाना बुना है जो बुद्धिवाद से मेल नहीं खाता। उनके लिए समाज एक ऐसा समूह है जिसका प्रत्येक सदस्य बहुत बुद्धिमान व न्यायप्रिय है। व्यक्ति जो भी कार्य करेगा, उससे न केवल उसका बल्कि समाज का भी कल्याण होगा। दूसरी ओर, राज्य एक कृत्रिम व अनैतिक समुदाय है। वह जो भी कार्य करेगा या जो भी कानून बनायेगा, वह व्यक्ति की स्वतन्त्रता के विरुद्ध होगा।
उग्र व्यक्तिवाद के उपर्युक्त दोषों के कारण स्वतन्त्रता की एक सकारात्मक धारणा विकसित हुई। उपयोगितावादी, आदर्शवादी, मार्क्सवादी तथा बीसवीं शताब्दी के कुछ उदारवादी विचारकों ने यह कहा कि स्वतन्त्रता केवल प्रतिबन्धों का अभाव नहीं है वरन् वह तो इन अवसरों की उपस्थिति का नाम है जिनके बिना व्यक्ति का शारीरिक और बौद्धिक विकास नहीं हो सकता। स्वतन्त्रता के सकारात्मक पहलू को दर्शाने वाली विचारधाराओं का विवेचन निम्नानुसार है-

1. बेंथम व मिल का उपयोगितावाद
अठारहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में औद्योगिक क्रान्ति के कारण न्याय, कानून, शिक्षा, स्वास्थ्य व चिकित्सा के क्षेत्र में कुछ नई समस्याएँ उत्पन्न हुईं। पूँजीपतियों द्वारा मजदूरों का जो शोषण हो रहा था, उसके कारण लोगों का ध्यान इस तथ्य की ओर गया कि धन के न्यायोचित वितरण की व्यवस्था होनी चाहिए। बेंथम और मिल यद्यपि व्यक्ति की स्वतन्त्रता के प्रबल समर्थक थे किन्तु फिर भी वे शिक्षा, स्वास्थ्य, चिकित्सा तथा मजदूरों और महिलाओं की रक्षा के लिए राज्य के हस्तक्षेप को उचित मानते थे। लेसे फेयरे के समर्थकों का यह कहना था कि कानून कम-से-कम बनाये जायें, जबकि बेंथम कानूनों के माध्यम से ही सुधार लाना चाहता था। उसने काननों को स्वतन्त्रता का विरोधी नहीं अपितु सुधारों का माध्यम माना है। जहाँ तक जे. एस. मिल का प्रश्न है, आइवर ब्राउन (Ivour Brown) ले लिखा है कि “मिल एक दुराग्रही व्यक्तिवादी नहीं था; इतना तो निश्चित है कि वह प्राकृतिक अधिकारों में विश्वास नहीं रखता था।" (Mill was not a bigoted individualist and certainly not believer in natural rights)।

2. काण्ट, फिक्टे और ग्रीन का आदर्शवाद
उन्नीसवीं शताब्दी के आदर्शवादी विचारकों ने स्वतन्त्रता के सकारात्मक सिद्धान्त पर बल दिया था। इसका आशय यह है कि उन्होंने व्यक्ति के हित को प्राथमिकता न देकर समाज या समुदाय के हितों को प्राथमिकता दी थी। आदर्शवादी विचारकों में काण्ट, फिक्टे और ग्रीन के नाम उल्लेखनीय हैं।
जर्मन विचारक काण्ट को आधुनिक युग के आदर्शवाद का जनक कहा जाता है। मैक्गवर्न (McGovern) ने लिखा है कि "परम्परावादी उदारवादियों ने स्वतन्त्रता की जो परिभाषा दी है, उसके अनुसार प्रत्येक व्यक्ति अपनी इच्छानुसार कार्य करने को स्वतन्त्र है. परन्तु काण्ट के मतानुसार वह व्यक्ति जो बे-रोकटोक कुछ भी करता रहता है, 'स्वतन्त्र' न होकर 'गुलाम' है। गुलाम इसलिए क्योंकि वह अपनी निम्न प्रवृत्तियों को भी अपने नियन्त्रण में नहीं रख सकेगा। स्वतन्त्र तो केवल उसी व्यक्ति को माना जा सकता है जो 'सार्वलौकिक बुद्धि' के अनुसार कार्य करे।" यहाँ 'सार्वलौकिक बुद्धि' से उसका आशय 'राज्य के नियमों' से है। काण्ट के मतानुसार राज्य एक आवश्यक बुराई (Necessary Evil) न होकर 'भलाई का एक आवश्यक उपकरण' (Necessary Good) है। राज्य के कानून स्वतन्त्रता के विरोधी नहीं हैं वरन् स्वतन्त्रता के पोषक हैं। यदि राज्य और कानून न हों तो जीवन, सम्पत्ति व अधिकारों की रक्षा ही नहीं होगी।
आदर्शवादी विचारधारा को पुष्ट करने वालों में एक अन्य जर्मन विचारक फिक्टे (J. G. Fichte) का नाम उल्लेखनीय है। उसके मतानुसार राज्य के कार्य सच्ची स्वतन्त्रता की अनुभूति में बाधक नहीं होते। फिक्टे का मत है कि राज्य संस्था का विकास इसलिए हुआ है, ताकि मनुष्य को 'जंगल की आजादी' (Wild Lawless Freedom) से छुटकारा प्राप्त हो सके। दूसरे शब्दों में, यदि व्यक्ति मनमानी करने लगे तो जंगल का नियम लागू हो जायेगा अर्थात् 'जिसकी लाठी उसकी भैंस' वाली कहावत चरितार्थ होगी। व्यक्ति को केवल उन कार्यों को करने की स्वतन्त्रता प्राप्त होनी चाहिए जो नीति व विवेक के अनुकूल हों।
अंग्रेज विद्वानों में आदर्शवादी परम्परा का निर्वाह टी. एच. ग्रीन (T.H.Green) ने किया है। उसने भी स्वतन्त्रता की सकारात्मक व्याख्या प्रस्तुत की है। ग्रीन के मतानुसार स्वतन्त्रता से आशय 'प्रतिबन्धों का अभाव' (Absence of Restraints) नहीं है। प्रतिबन्ध या हस्तक्षेप का अभाव एक नकारात्मक वस्तु है। केवल नकारात्मक विवेचन से हम स्वतन्त्रता के वास्तविक स्वरूप को स्पष्ट नहीं कर सकते। जिस प्रकार कुरूपता का अभाव सौन्दर्य नहीं कहला सकता, वैसे ही प्रतिबन्धों का अभाव स्वतन्त्रता नहीं कहा जा सकता। बार्कर ने शब्दों में, "ग्रीन के मतानुसार स्वतन्त्रता का सही अर्थ है-उन कार्यों को करने या उन सुखों को भोग सकने की क्षमता जो वास्तव में भोगने योग्य हों।" 'भोगने योग्य' से उसका आशय है- वे कार्य या सुख जो नैतिक दृष्टि से वांछनीय हों। चोरी करने या श्रमिकों का शोषण करने की सुविधा को स्वतन्त्रता नहीं कहा जा सकता क्योंकि ये बातें नैतिक दृष्टि से उचित नहीं है।
संक्षेप में, आदर्शवादियों का दृष्टिकोण नकारात्मक नहीं, सकारात्मक था। उनके मतानुसार राज्य के कानून स्वतन्त्रता का विरोध नहीं करते। ग्रीन के मतानुसार बच्चों को शिक्षा, दरिद्रता व मद्यपान की समाप्ति, जमींदारी को समाप्त करने तथा श्रमिकों को उचित सुविधाएँ दिलाने के लिए राज्य यदि कानून बनाये तो उन्हें स्वतन्त्रता का विरोधी नहीं कहा जा सकता।

3. मार्क्सवादी लेखक
मार्क्सवादी विचारकों ने 'व्यक्तिवाद' (Individualism) की अपेक्षा 'समष्टिवाद' (Collectivism) पर अधिक बल दिया है। समष्टिवाद की मूल मान्यता यह है कि राज्य व्यक्तियों को आर्थिक व अन्य विषयों में स्वतन्त्र नहीं छोड़ सकता। सामूहिक हितों की रक्षा के लिए व्यक्ति की स्वतन्त्रता पर प्रतिबन्ध लगाया जाना आवश्यक है। मार्क्सवादी विचारक ‘लेसे फेयरे' या पूँजीवादी व्यवस्था का पूर्णतया खण्डन करते हैं। उनके मतानुसार उत्पादन के साधन - भूमि, श्रम, पूँजी इत्यादि - किसी व्यक्ति विशेष की सम्पत्ति न होकर समाज की सम्पत्ति हैं। धन के न्यायोचित वितरण के लिए आवश्यक है कि उद्योग तथा वाणिज्य राज्य के हाथों में रहना चाहिए, निजी व्यक्तियों के हाथों में नहीं रहना चाहिए। एक मानव द्वारा दूसरे मानव के शोषण की कोई स्थिति नहीं रहनी चाहिए। तभी लोगों की स्वतन्त्रता सुरक्षित रह सकती है और तभी समाज की प्रगति सम्भव है। साम्यवादी देशों में आर्थिक शोषण से मुक्ति को ही स्वतन्त्रता का नाम दिया गया है।

4. स्वतन्त्रता के विषय में मैकाइवर, लास्की व बार्कर के विचार
बीसवीं शताब्दी के प्रमुख उदारवादी विचारकों ने स्वतन्त्रता के सकारात्मक पक्ष पर विशेष बल दिया है। मैकाइवर ने राज्य के कार्यों का जो विवरण दिया है, उससे यह स्पष्ट हो जाता है कि वह राज्य को मानव की भलाई का साधन मानता है। वह 'लोकहितकारी राज्य' के आदर्श से प्रभावित है। 'लोकहितकारी राज्य' निश्चय ही लोगों को मनमानी करने की स्वतन्त्रता नहीं दे सकता। शिक्षा, धर्म, चिकित्सा, सामाजिक प्रगति और आर्थिक सुरक्षा को प्रोत्साहन देने के लिए राज्य को भाँति-भाँति के कानून बनाने होंगे।
प्रसिद्ध अंग्रेज विचारक हैरोल्ड लास्की तो समाजवाद में गहरी निष्ठा रखता था। उसने स्पष्टतया यह कहा है कि "स्वतन्त्रता एक सकारात्मक वस्तु है। वह मात्र प्रतिबन्धों का अभाव नहीं है। ' स्वतन्त्रता के सकारात्मक पहलू से लास्की का आशय 'अवसरों की उपस्थिति' से है। लास्की के मतानुसार राज्य या समाज अधिक-से-अधिक यही कर सकता है कि वह लोगों के लिए उनके विकास के अवसर जुटा दे। इन अवसरों से लाभ उठाना लोगों का अपना कर्तव्य है। लास्की ने स्वतन्त्रता के तीन पक्षों पर बल दिया है। प्रथम, निजी स्वतन्त्रता (Private Liberty) अर्थात् उन विषयों में अपनी पसन्द के अनुसार कार्य करने का अधिकार जो पूर्णतया निजी मामले हैं, जैसे- इच्छानुसार किसी भी धर्म का पालन करना। द्वितीय, राजनीतिक स्वतन्त्रता (Political Liberty) अर्थात् राज्य या सरकार के कार्यों में सक्रिय रूप से भाग लेना। तृतीय, आर्थिक स्वतन्त्रता (Economic Liberty) जिससे उसका आशय है- औद्योगिक मामलों में लोकतन्त्रवाद (Democracy in Industry)। लास्की के मतानुसार उद्योग-धन्धों का संचालन श्रमिकों या उनके प्रतिनिधियों की ही इच्छानुसार किया जाना चाहिए। उसका विचार है कि 'स्वतन्त्रता' (Liberty) और 'समानता' (Equality) के आदर्शों में कोई स्वाभाविक विरोध नहीं है। आर्थिक विषमताओं को समाप्त किये बिना स्वतन्त्रता की रक्षा सम्भव नहीं है। आर्थिक विषमताएँ समाजवाद द्वारा समाप्त की जा सकती हैं। इस प्रकार लास्की के मतानुसार 'स्वतन्त्रता' और 'समाजवाद' दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं, उनमें कोई मौलिक अन्तर्विरोध नहीं है।
लास्की ने 'स्वतन्त्रता की सुरक्षा' (Safeguards of Liberty) के लिए कुछ व्यवस्थाओं की ओर संकेत किया है। उसके मतानुसार पहली आवश्यक सुरक्षा यह है कि विशेषाधिकारों (Privileges ) को समाप्त कर दिया जाये। उसके अनुसार, जिस व्यक्ति या वर्ग को कुछ विशेषाधिकार प्राप्त होते हैं, वह अहंकारी और दम्भी बन जाता है तथा वह वर्ग जिसके विरुद्ध विशेषाधिकारों का उपयोग किया जाता है, हीन और दीन बन जाता है । स्वतन्त्रता के लिए दूसरी सुरक्षा यह है कि बहुसंख्यक लोगों के अधिकार कुछ थोड़े-से लोगों की इच्छा पर निर्भर नहीं होने चाहिए। ऐसा न हो कि वे लोग जिनके हाथों में नियुक्ति करने व सेवाएँ समाप्त करने की शक्तियाँ हैं, वह जब चाहे श्रमिकों या कर्मचारियों की नौकरी समाप्त कर दें। तीसरे, लास्की ने यह भी चेतावनी दी है कि राज्य का प्रत्येक कानून स्वतन्त्रता का पोषण नहीं कर सकता। उसने प्राचीन ग्रीक विचारक पेरिक्लीज (Pericles) के इन शब्दों को उद्धृत किया है- "स्वतन्त्रता का सार साहस है (The secret of liberty is courage)”। इसका आशय यह है कि व्यक्ति को अत्याचार का साहस के साथ प्रतिकार करना चाहिए।
बीसवीं शताब्दी के एक अन्य प्रथम विद्वान अर्नेस्ट बार्कर ने भी स्वतन्त्रता के सकारात्मक पक्ष पर बल दिया है। उसके मतानुसार स्वतन्त्रता, समानता और न्याय, इन तीनों का आपस में घनिष्ठ सम्बन्ध है। कार्य करने की स्वतन्त्रता के साथ ही यह बात भी जुड़ी हुई है कि हम उत्तरदायित्व के साथ कार्य करें। समाज में मेरे अतिरिक्त और भी अनेक व्यक्ति हैं, इसलिए किसी भी व्यक्ति को अनुत्तरदायित्व के साथ कार्य करने की स्वतन्त्रता प्राप्त नहीं है। बार्कर के शब्दों में, “स्वतन्त्रता और उत्तरदायित्व सदैव साथ-साथ चलते हैं (Liberty and responsibility always go hand in hand)।”

5. हॉबहाउस के अनुसार 'स्वतन्त्रता' का अर्थ
हॉबहाउस के मतानुसार व्यक्ति के आन्तरिक जीवन पर प्रतिबन्ध नहीं होने चाहिए। (Internally the life of a man is free as far as it is harmonious)। जब तक एक व्यक्ति समाज के हितों को हानि न पहुँचाये, तब तक वह इस बात के लिए स्वतन्त्र है कि वह क्या करता है, कहाँ जाता है, क्या खाता है और कहाँ रहता है लेकिन एक सीमा के बाद उसे स्वतन्त्र नहीं छोड़ा जा सकता। हॉबहाउस 'व्यक्ति की स्वतन्त्रता' (Liberty) और 'जनसाधारण की स्वतन्त्रताओं' (Liberties) के बीच उचित सामंजस्य स्थापित करने के पक्ष में हैं। उसके मतानुसार 'सामाजिक समरसता' (Social Harmony) बनाये रखने के लिए राज्य को 'पाश्विक बल' (Force) का भी प्रयोग करना पड़ता है।

निष्कर्ष - ऊपर हमने स्वतन्त्रता के सकारात्मक सिद्धान्त का प्रतिपादन करने वाले कुछ प्रमुख विद्वानों के विचारों की विवेचना की है। उनके विचारों की समीक्षा करने पर हम निम्नांकित परिमाणों पर पहुँचते हैं-

प्रथम, कानून स्वतन्त्रता के विरोधी नहीं होते। जितनी अधिक स्वतन्त्रताएँ होंगी, उतने अधिक अधिकार होंगे तथा जितने अधिक अधिकार प्रदान किये जायेंगे, उतने ही अधिक कानूनों की आवश्यकता होगी। उदाहरण के लिए, यदि हम चाहते हैं कि नागरिकों को 'आर्थिक सुरक्षा' प्राप्त रहे तो राज्य को यह कानून अवश्य बनाना पड़ेगा कि मालिक अपने कर्मचारियों को मनमाने ढंग से नौकरी से पृथक् नहीं कर सकते।
द्वितीय, स्वतन्त्रता का उपभोग करने के लिए हमें दोहरी कीमत चुकानी पड़ेगी- एक भौतिक (Material) और दूसरी आध्यात्मिक (Spiritual)। बार्कर के मतानुसार भौतिक कीमत से आशय है कि सम्पत्ति के अधिकार को सीमित करना पड़ेगा और आध्यात्मिक कीमत का तात्पर्य है कि लोगों को कानून का बन्धन स्वीकार करना पड़ेगा।
तृतीय, बहुसंख्यकों की स्वतन्त्रता के लिए अल्पसंख्यकों (पूँजी के स्वामियों) को अपनी स्वतन्त्रता का त्याग करना पड़ेगा। इतना अवश्य है कि पूँजीपतियों व उद्योगपतियों पर इतने अधिक नियन्त्रण भी न लगाये जायें कि वे उद्योग-धन्धों का कुशलतापूर्वक संचालन न कर सकें। आर्थिक व्यवस्था ऐसी होनी चाहिए कि उद्योगपतियों को नये-नये प्रयोग करने तथा पूँजी से लाभ उठाने के अवसर भी उपलब्ध रहें और श्रमिकों के हितों को भी आघात न पहुँचे।
चतुर्थ, स्वतन्त्रता की सकारात्मक परिभाषा, नकारात्मक परिभाषा की अपेक्षा बहुत अधिक व्यापक है । स्वतन्त्रता के अन्तर्गत केवल राजनीतिक व नागरिक स्वतन्त्रताएँ ही सम्मिलित नहीं हैं। इनसे भी अधिक महत्व ' आर्थिक स्वतन्त्रता' यानी आर्थिक सुरक्षा का है। जैसा कि हूबरमैन (Huberman) और पॉलस्वेजी (Paulsweezy) ने लिखा है कि "स्वतन्त्रता का अर्थ है- जीवन का भरपूर किया जाना। इसके लिए यह आवश्यक है कि मनुष्य की शारीरिक आवश्यकताओं, खाना, कपड़ा और मकान की पूर्ति की जाए। साथ ही, मस्तिष्क और व्यक्तित्व के विकास के भी अवसर प्राप्त होने चाहिए। भौतिक आवश्यकताओं को जुटाने के लिए 'व्यक्तिगत स्वतन्त्रता का दमन' किया जा सकता है।" इसका आशय यह है कि राज्य को आर्थिक जीवन में व्यापक हस्तक्षेप करना चाहिए।
पंचम्, आर्थिक विषयों में भले ही स्वतन्त्रता का क्षेत्र बहुत सीमित रह गया हो किन्तु शिक्षा, धर्म-पालन व विचारों की अभिव्यक्ति के क्षेत्र में उदारवादी विचारक आज भी राज्य के व्यापक हस्तक्षेप के विरोधी हैं।

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