उत्तर आधुनिकतावाद क्या हैं? अर्थ एवं परिभाषा, महत्व | uttar adhuniktavad

उत्तर आधुनिकतावाद

उत्तर-आधुनिकतावाद अथवा उत्तर-आधुनिकता एक स्थिति को सूचित करने वाला शब्द है। उत्तर-आधुनिकतावाद का आविर्भाव 1960 के दशक में न्यूयार्क के कलाकारों से माना जाता है। इसके उपरान्त 1970 के दशक में उत्तर-आधुनिकतावाद विचारधारा की लहर यूरोप के सिद्धान्तवेत्ताओं में दिखायी दी। इसी सन्दर्भ में जीन फ्रेंकोज ल्योटार्ड की कृति 'द पोस्ट - मॉडर्न कण्डीशन' (The Post- Modern Condition, 1984) है, का प्रकाशन खासतौर पर उल्लेखनीय है।
uttar-adhuniktavad
उत्तर-आधुनिकतावाद का उद्गम कला के क्षेत्र से जुड़ा हुआ है खासतौर से भवन शिल्प अथवा वास्तुकला से। इसके पश्चात् कला के विभिन्न क्षेत्रों जैसे- गीत, संगीत, नृत्य, चित्रकला, नाटक, कथा साहित्य, फोटोग्राफी और फिल्मी दुनिया में भी उत्तर-आधुनिकतावाद की अत्यधिक चर्चा की जाती है। मानवशास्त्र, इतिहास, भूगोल एवं समाजशास्त्र में अनेक विचारकों व लेखकों के नाम उत्तर-आधुनिकतावादी विचारक व लेखक के नाम से जाने जाते हैं। उत्तर-आधुनिकतावाद शब्द का सबसे पहले उपयोग 1960 में लेसलि फिल्डर एवं इहाव हस्तान (Leslie Fiedler and Ihab Hastan) ने किया। वर्ष 1970 में तो इस शब्द के उपयोग की एक लहर-सी आ गई और वास्तुशास्त्र, नृत्य, रंगमंच, संगीत तथा समाज एवं संस्कृति से जुड़े विभिन्न शास्त्रों में एक फैशन के रूप में इसका उपयोग किया जाने लगा। उत्तर-आधुनिकतावाद से जुड़े कला क्षेत्र के विचारकों में रोशेनबर्ग, बोसेलिट्ज, स्नेलबेल, वारहोल और बेकन के नाम, शिल्पकला के क्षेत्र में जेन्क्स और वेन्चूरी के नाम, नाटक के क्षेत्र में अर्तोड का नाम, कथा साहित्य के क्षेत्र में बार्थ और बार्थाम के नाम, फोटोग्राफी के क्षेत्र में शेरमन का नाम, फिल्मी दुनिया में लिंच का नाम, दर्शनशास्त्र में डेरिडा, ल्योटार्ड और बोड़िलार्ड के नाम खासतौर से उल्लेखनीय हैं।
उत्तर-आधुनिकतावाद को समझने से पहले आधुनिकतावाद को समझ लेना अति महत्वपूर्ण हो जाता है, क्योंकि आधुनिकतावाद उत्तर आधुनिकतावाद की पूर्व प्रवृत्ति एवं काल रहा है। आधुनिकतावाद की वजह से ही उत्तर-आधुनिकतावाद का उदय हुआ है।


आधुनिकतावाद

'आधुनिक', वर्तमान समय में सबसे अधिक प्रचलित शब्द है। सामान्य जीवन में इस शब्द का उपयोग आम सा हो गया है। अंग्रेजी शब्द 'मॉर्डन' की उत्पत्ति लैटिन भाषा से हुई है तथा शब्दकोश में इसका अर्थ है- 'वर्तमान या हाल ही में घटित'। लैटिन भाषा में इस शब्द का अर्थ था - 'इस काल में'। लेकिन धीरे-धीरे अंग्रेजी में इस शब्द का उपयोग कुछ भिन्न अर्थ में होने लगा तथा इसका अर्थ हो गया- “सामाजिक संरचना एवं मूल्यों में परिवर्तन अथवा फिर नए मूल्यों और एक नई सोच का जन्म।" 'अर्थात् 'आधुनिक' शब्द दो अर्थों में प्रयुक्त होता है- प्रथम, काल से सम्बन्धित अर्थ एवं द्वितीय, प्रवृत्तिमूलक अर्थ। डॉ. विनयकुमार पाठक के शब्दों में, 'आधुनिक' का शाब्दिक अभिप्राय 'आजकल' या वर्तमान है जो पूर्व में घटित न हुआ हो और अब नये ढंग से अवतीर्ण हुआ है। यह अधिकतर परम्परा के विपरीतार्थक के रूप में प्रयुक्त होता है। यह वर्तमान की कोख से जन्म लेता और बृहद सीमाओं को स्पर्श करता है। यद्यपि समसामयिकता एवं आधुनिकता समय के साथ-साथ चलते हैं ...।" इस दृष्टिकोण से हर नया काल अपने आप में आधुनिक होता है। परम्परा का विरोध और नयापन इस शब्द की खासियत रही है।

आधुनिकतावाद का उदय पाश्चात्य देशों में हुआ है। पाश्चात्य 'शब्दकोश' में आधुनिकतावाद का अर्थ- स्थापित नियमों, परम्पराओं और मान्यताओं से अलग हटकर विश्व में मनुष्य की स्थिति और इसके कार्य के प्रति नवीन दृष्टिकोण अपनाना है। अर्थात् प्राचीनकाल से चली आ रही परम्पराओं, मान्यताओं और नियमों को छोड़कर नवीनता भरी दृष्टि को मान लेना आधुनिकतावाद है। आधुनिकतावाद को आत्मसात् करने वाला व्यक्ति परम्परा को स्वीकार नहीं करता। वह परम्परा को प्रगति और कार्यकुशलता में अड़चन बनने वाला दिखावा मानता है। पारम्परिक जीवन-मूल्य उसके लिए बन्धन महसूस होते हैं। इसलिए वह उसको अस्वीकार देता है। यदि उसे मजबूरीवश परम्परावादी लोगों के साथ रहना पड़ता है तो उनसे अलग अपनी एक निजी पहचान बनाने की कोशिश करता है। इस सन्दर्भ में अभिजित पाठक लिखते हैं कि "आधुनिक होने का तात्पर्य जीने के वैज्ञानिक/औद्योगिक जीवन-यापन की एकरूप / सार्वभौमिक संस्कृति को स्वीकार करना है। दूसरे शब्दों में, आधुनिक होने का अर्थ पारम्परिक, सांस्कृतिक, धार्मिक एवं प्रजातीय समुदायों के मध्य अन्तर को खत्म कर देना है। यही विश्व स्तर पर सोचने जैसा है जहाँ स्थानीय ज्ञान-पद्धतियाँ अप्रासंगिक हो जाती हैं।" इसका आशय यह है कि आधुनिकतावाद विभिन्न संस्कृतियों को एक-दूसरे के नजदीक ला खड़ा करती है और उनके मध्य रहे अन्तरों को खत्म करके विश्व-संस्कृति का निर्माण करती है। ऐसी स्थिति में परम्परा से चली आ रही सारी ज्ञान-पद्धतियाँ बेकार-सी साबित हो जाती हैं तथा नई ज्ञान -पद्धतियाँ व विचारधाराओं का उदय होता है।

आधुनिकतावाद का अर्थ एवं परिभाषा

अनेक विद्वानों ने आधुनिकतावाद के अर्थ को परिभाषित करने का प्रयास किया। मैक्स वेबर के शब्दों में, "आधुनिकतावाद व्यक्ति और समाज के सदा से चले आ रहे स्वरूप को मिलने वाली स्पष्ट स्वीकृति है। आधुनिक अस्मिता अतीत में की गई अस्मिता की संरचनाओं की श्रृंखला में मात्र अगली कड़ी नहीं है, बल्कि यह इन संरचनाओं के मूल में उपस्थित कारणों पर से पर्दा उठाने की प्रक्रिया है।" मैक्स वेबर की परिभाषा से दो बातें साफ तौर पर स्पष्ट हो जाती हैं कि आधुनिकतावाद व्यक्ति और समाज के द्वारा की गई स्वीकृति है और आधुनिकतावाद अतीत की संरचनाओं के कारणों पर से परदा उठाने की प्रक्रिया है।
पीटर बर्जर आधुनिक समाज को केन्द्र में रखकर कहते हैं कि - "आधुनिक समाज व्यक्तिगत स्वतन्त्रता का कुछ ऐसा आश्वासन देता है कि इस समाज में जीने वाला आधुनिक व्यक्ति स्वयं को पारम्परिक समाज में जीने वाले लोगों से भिन्न समझता है। आधुनिक व्यक्ति, जो सामाजिक भूमिकाओं और संस्थाओं की पारम्परिक संरचनाओं से स्वयं को मुक्त कर चुका है, एक नग्न व्यक्तित्व की तरह होता है जो संस्थागत भूमिकाओं से स्वतन्त्र है।" आधुनिकतावाद की ओर इंगित करने वाली आधुनिक समाज की इस परिभाषा में पीटर बर्जर ने व्यक्तिगत स्वतन्त्रता और पारम्परिक समाज से अलगाव जैसी आधुनिक समाज की विशेषताओं को परिभाषित किया है।

आधुनिकतावाद को परिभाषित करते हुए शील्स ने आधुनिक व्यक्ति का सांसारिक रूप निरूपित किया है, यथा- "आधुनिक होने का अर्थ है 'एडवांस' होना, अर्थात् धनी होना, पारिवारिक एवं धार्मिक सत्ता की समस्याओं से मुक्त होना। इसका अर्थ है - तार्किक एवं बुद्धिवादी होना। अगर कोई ऐसा बुद्धिवादी हो जाता है तो उसके लिए सांसारिकता, वैज्ञानिकतावाद व सुखवाद को छोड़कर और कोई परम्परा नहीं रह जाती।" आधुनिकतावाद की इस परिभाषा में व्यक्ति का एक नया रूप सामने आता है। वह वैज्ञानिक आविष्कारों का प्रयोग करके सांसारिक सुख को महत्व देता है। पारिवारिक एवं धार्मिक सत्ता-बोध से वह दूर रहता है। तार्किकता और बौद्धिकता के माध्यम से वह पारम्परिक जीवन-पद्धति से स्वयं को स्वतन्त्र कर लेता है। सुखपूर्ण भावी जीवन के लिए वह वर्तमान में ही आयोजन कर लेता है।
डॉ. योगेन्द्र सिंह के अनुसार साधारणतः आधुनिक होने का अर्थ फैशनेबल से लिया जाता है। वे आधुनिकतावाद को एक सांस्कृतिक प्रयत्न मानते हैं जिसमें तर्क सम्बन्धी मनोवृत्ति, दृष्टिकोण, संवेदना, वैज्ञानिक विश्व दृष्टि, मानवता, प्रौद्योगिक प्रगति इत्यादि शामिल हैं। ये आधुनिकतावाद पर किसी एक ही जातीय समूह या सांस्कृतिक समूह का स्वामित्व नहीं मानते वरन् सम्पूर्ण मानव समाज का अधिकार मानते हैं।

अतः आधुनिकतावाद एक प्रवृत्ति, विचारधारा एवं चिन्तन के रूप में परम्परागत मान्यताओं और परम्परागत नियमों के विपरीत एक नवीन बौद्धिक व तार्किक जीवन-शैली। ज्ञान की नई शाखाओं के उदय की वजह से समाज में आया परिवर्तन आधुनिकतावाद है। आधुनिकतावाद की वजह से समाज दो स्वरूपों में दिखायी पड़ता है- पहला, परम्परा से मुक्त समाज तथा दूसरा, परम्परा से आबद्ध समाज। पारम्परिक समाज एक ऐसा समाज होता है जिसने परम्परा से चले आ रहे सामाजिक मूल्यों, मान्यताओं और विचारों से लिप्त जीवन-शैली को मान्यता दी है। पारम्परिक समाज के लोग किसी तरह के बदलाव की जरूरत ही नहीं समझते और न ही कल्पना कर सकते हैं। सम्पूर्ण समाज पुरानी प्रथाओं के अनुरूप ही जीता है। जिसके अन्तर्गत व्यक्ति को स्वतन्त्र रूप से निर्णय लेने का किसी प्रकार का अधिकार नहीं होता। इस तरह का उदाहरण हम भारतीय समाज की वर्ण-व्यवस्था के तहत् देख सकते हैं। परम्परा से मुक्त जो आधुनिक समाज है, वह पुरानी मान्यताओं, प्रथाओं और नियमों का त्याग करता है। आधुनिक समाज के व्यक्ति स्वतन्त्र रूप से निर्णय लेने का अधिकार होता है एवं उसकी अपनी एक अलग जीवन-शैली होती है। पारम्परिक बंदिशों से मुक्त होकर अपनी जीवन-शैली में बदलाव लाने के लिए वह पूर्णतः स्वतन्त्र होता है।
इस प्रकार आधुनिकतावाद परिवर्तन की प्रक्रिया है अर्थात् जब समाज आधुनिक होता है तो प्राचीन व्यवस्थाओं से उसका सम्बन्ध विच्छेद हो जाता है तथा नयी व्यवस्था का निर्माण होता है। आधुनिकतावाद एक क्रमिक, मन्द गति वाली, निरन्तर चलने वाली प्रक्रिया है। आधुनिकतावाद का प्रमुख लक्षण विज्ञान व तकनीकी का विकास है। वैज्ञानिक आविष्कार और औद्योगिक क्रान्ति के फलस्वरूप मानव जीवन में आया हुआ परिवर्तन आधुनिकतावाद का बोध कराता है। मानवीय आवश्यकताओं को पूर्ण करना आधुनिकतावाद का लक्ष्य है। 18वीं सदी में यूरोप में उत्पन्न होने वाले आधुनिकतावाद ने समस्त जगत् पर अपना प्रभाव छोड़ा। मानव जीवन में आने वाली सुविधाओं को लेकर समस्त जगत् इससे आकर्षित था। लेकिन दो विश्व-युद्ध, सामाजिक विभाजन और अन्तर्विरोधों को लेकर आधुनिकतावाद के प्रति मोहभंग हुआ।

उत्तर-आधुनिकतावाद

आधुनिकतावाद की वजह से आज विश्वभर में युद्ध की स्थिति बनी रहती है। प्रकृति के सतत् दोहन के कारण मानव-जीवन पर कुदरती आपत्तियों का खतरा निरन्तर मँडरा रहा है। पूर्व में हुए दो विश्व-युद्ध इसी आधुनिकतावाद का परिणाम हैं। आधुनिकतावाद में जो हिंसा एवं बर्बरता छिपी रही थी उसे दोनों विश्वयुद्धों ने उजागर कर दिया है। दोनों विश्व युद्धों के पश्चात् उत्पन्न परिस्थिति के परिणामस्वरूप, प्रत्येक क्षेत्र में पतन, आधुनिकतावाद से उत्पन्न केन्द्रीयतावाद का आतंक, प्रत्येक जगह सांस्कृतिक संशय, मूल्यांधता, बौद्धिक नपुंसकता का असहाय- आत्मनिर्वासन, आत्म-परायेपन का बोध इत्यादि का बोलवाला रहा है। अर्थात् आधुनिकतावाद ने विश्व-युद्धों का निर्माण किया। युद्धों के पीछे सत्ता स्थापित करने की मानसिकता थी। वैज्ञानिक आविष्कारों का प्रयोग करके एक राष्ट्र दूसरे राष्ट्र को पराजित करने की कोशिश करता था। युद्धों का परिणाम यह हुआ कि लाखों लोगों की हिंसा के पश्चात् महासत्ताएँ अस्तित्व में आयीं अर्थात् आधुनिकतावाद ने केन्द्रवाद को जन्म दिया। विज्ञान के इस खतरनाक स्वरूप से मानव अस्मिता तहस-नहस हो गई। इस प्रकार आधुनिकतावाद की बौद्धिकता अचानक बेकार साबित हुई।
कृष्णदत्त पालीवाल भारतीय सन्दर्भ में आधुनिकतावाद के प्रभाव को लेकर अपने विचार प्रकट करते हुए कहते हैं कि- "आधुनिकतावाद ने भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति को केले के पत्तों की तरह अपनी आवारा हवाओं से चीर दिया। परन्तु विडम्बना यह है कि इस यूरोपीय आधुनिकतावाद ने 'प्रगति' एवं 'विकास' के सुनहरे सपने दिखाए और 'सेकुलर' जैसे दर्शन का पाठ पढ़ाया और ऐसे कौशल से पढ़ाया कि उसके अन्दर से जातिवाद, प्रदेशवाद, साम्प्रदायिकतावाद, व्यक्तिवाद एवं अधिनायकवाद के अंकुर फूटकर वृक्ष बने।” अर्थात् सन् 1850 के पश्चात् भारत में आई हुई आधुनिकतावाद ने भारतीय समाज पर गहरा असर छोड़ा। आधुनिकतावाद ने प्रगति एवं विकास के नाम पर भारतीय समाज को सुख-सुविधा के लिए प्रसाधनों की आपूर्ति की।
शिक्षा के द्वारा समाज में जागृति फैलाने की कोशिश की। सभी का विकास करने का स्वप्न दिखाया। लेकिन भारत में आधुनिकतावाद का परिणाम यह निकला कि सम्पूर्ण राष्ट्र जातिवाद, प्रान्तवाद, साम्प्रदायिकतावाद जैसी समस्याओं से घिर गया। मुख्यतः जातिवाद जैसी समस्या भारत की प्राचीन समस्या रही है, लेकिन आधुनिकतावाद ने इसे और ज्यादा मजबूत किया है। उत्तर-आधुनिकतावाद का विकास आधुनिकतावाद की इन्हीं प्रवृत्तियों के विरोध में हुआ। उत्तर-आधुनिकतावाद ने हाशिए की आवाज को केन्द्र में लाने का प्रयास किया।

"उत्तर-आधुनिकतावाद शब्द के अनेक मायने हैं, किन्तु ये इतने विस्तृत हैं कि उन्हें परिभाषाओं में समेटा नहीं जा सकता। इस सम्बन्ध में विद्वानों ने खूब सोचकर इतना ही कहा है कि उत्तर-आधुनिकतावाद सन् साठ के दशक के उन मुक्ति आन्दोलनों, स्वाधीनता खोजी विचारधाराओं, निरंकुश यौन-प्रवृत्तियों से निकला है जिसने समस्त पुरानी विचारधाराओं को समाप्त कर दिया है। प्रत्येक विचार पर बैठा अनुशासन टूट गया है और चिन्तन की स्वाधीनता का उफनता हुआ सागर इस नई संस्कृति में मौजूद है।" अर्थात् उत्तर-आधुनिकतावाद मानव जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में आये हुए बदलाव को प्रस्तुत करती है तथा यह बदलाव इतने विस्तृत हैं कि उत्तर-आधुनिकतावाद खुद में अनेक अर्थ समेटे हुए है। इस कारण उसकी कोई निश्चित परिभाषा करना सम्भव नहीं हो पाया है। केवल उसके भिन्न-भिन्न दृष्टि-बिन्दुओं को परिभाषित किया जा सका है।
सुधीश पचौरी ने भी इस सम्बन्ध में माना है कि - "उत्तर-आधुनिकतावाद पर जिस गति से विचार हो रहा है, जिस रफ्तार से साहित्य आ रहा है उसे देखकर लगता है कि कोई भी अध्ययन योजना उसकी सम्पूर्ण तस्वीर नहीं खींच सकती। जब तक आप एक रेखा खीचेंगे तब तक वह आगे चली जाएगी। उत्तर-आधुनिकतावाद अपनी सम्पूर्ण व्याख्या खुद बनाया करती है। इसलिए उसकी कोई मुकम्मल व्याख्या एवं सम्पूर्ण पुस्तक कहीं नहीं लिखी जा सकती । हरेक की अपनी उत्तर- आधुनिकतावाद है और हो सकती है।"

उत्तर आधुनिकतावाद का अर्थ

'उत्तर-आधुनिकतावाद' के अर्थ को समझाने के लिए विद्वानों के द्वारा उसके अर्थ के सन्दर्भ में निम्न धारणाएँ प्रस्तुत की गई हैं-
अभिजित पाठक लिखते हैं- "उत्तर-आधुनिकतावाद उस विश्ववादी आधुनिकतावादी के प्रति एक प्रतिक्रिया है जो सामान्यतः प्रत्यक्षवादी, प्रौद्योगिकी प्रधान एवं तार्किक मानी जाती है। इसे और सरलता से समझना चाहें तो कह सकते हैं कि उत्तर-आधुनिकतावाद एक मनःस्थिति है। ध्यान देने की बात यह है कि ध्वंसात्मक प्रवृत्ति इसकी एक खासियत मानी जा रही है। यह एक सत्य को दूसरे सत्य से, सौन्दर्य के एक मापदण्ड को दूसरे मापदण्ड से, एक जीवन आदर्श को दूसरे जीवन - आदर्श से विस्थापित नहीं करती है। विरचना इसका एकमात्र कार्य जान पड़ता है।" 'उत्तर-आधुनिकतावाद' शब्द वर्तमान में चर्चा का एक नया केन्द्र है। साधारणतः उत्तर-आधुनिकतावाद शब्द 'आधुनिकतावाद' के अर्थ- सन्दर्भ की ओर इंगित करता है। यथा-' 'पूर्ण मध्यकाल' एवं 'उत्तर मध्यकाल' वैसे ही 'आधुनिकतावाद' 'और 'उत्तर-आधुनिकतावाद'। मुख्यतः 'आधुनिकतावाद' शब्द से पूर्व 'उत्तर' शब्द जुड़कर बना है- 'उत्तर-आधुनिकतावाद' शब्द।
डॉ. विनयकुमार पाठक के शब्दों में, “इसका (उत्तर-आधुनिकतावाद का) एक अर्थ 'आधुनिक के बाद का आधुनिक' अथवा 'अत्याधुनिक' भी माना जा सकता है। जहाँ आधुनिकतावाद रुकता है, वहाँ से उत्तर-आधुनिकतावाद की यात्रा शुरू होती है। आरम्भ में तो यह शब्द चौंकाने वाला साबित हुआ, परन्तु साहित्य में इसके व्यवहार एवं विमर्श से यह अनजान नहीं रहा ।" इस आशय से ‘उत्तर-आधुनिकतावाद' अर्थात् 'आधुनिकतावाद' के बाद आने वाला काल माना जाता है। अर्थात् 'उत्तर-आधुनिकतावाद' काल-विशेष के रूप में अर्थ जाहिर करता है।
कृष्णदत्त पालीवाल के अनुसार, “पोस्ट के लिए उत्तर शब्द चल पड़ा है जिसका मूल आशय ध्वनि है। हम एक ऐसे काल- विशेष में रह रहे हैं जहाँ सब कुछ 'पोस्ट' हो चुका है अथवा होने की तैयारी कर उठा है।" इस नजरिये से 'उत्तर-आधुनिकतावाद' शब्द एक प्रवृत्ति की ओर इंगित करता है। संक्षेप में, 'उत्तर- आधुनिकतावाद' शब्द एक काल के रूप में और एक विचारधारा के रूप में अपना अर्थ प्रकट करता है।
उत्तर-आधुनिकतावाद वर्तमान में आये हुए बदलावों का उल्लेख करता है। वह मानव-जीवन की संरचना को रेखांकित और नये मार्ग को प्रदर्शित करती है। जैसे-जैसे उत्तर-आधुनिकतावाद की 'लाक्षणिकताएँ सामने आती गईं वैसे-वैसे लोगों में मान्यताएँ उभरने लगीं। अनेक लोगों ने उसे दर्शन के क्षेत्र से उत्पन्न विचार माना। अनेक लोगों ने आधुनिकतावाद की प्रतिक्रिया को स्वीकार किया। अनेक लोगों ने उसे पुनरुत्थान कहा। अनेक लोगों ने तकनीक के दबाव के आगे मानव का पराजय-बोध माना। बहुतों ने उसे उपनिवेशवाद का अस्त्र मानकर विरोध किया। वास्तव में, नई उत्पन्न परिस्थितियाँ हमें उत्तर-आधुनिकतावाद की ओर ले जाती हैं।

उत्तर-आधुनिकतावाद की परिभाषा

उत्तर-आधुनिकतावाद की परिभाषा देने की कोशिश अनेक विद्वानों ने की, परन्तु अभी तक उचित परिभाषा नहीं दे पाये। उत्तर-आधुनिकतावाद का स्वरूप ही ऐसा रहा है कि उसे परिभाषित करना विद्वानों के लिए कठिन रहा है।
अर्नाल्ड टॉयनबी, जो उत्तर-आधुनिकतावादी विचारक हैं, ने आधुनिकतावाद की समाप्ति की घोषणा करते हुए उत्तर-आधुनिकतावाद को उसके बाद की स्थिति स्वीकार करते हैं उन्होंने अपनी कृति 'ए स्टडी ऑफ हिस्ट्री' में बताया कि आज से लगभग 120 वर्ष पूर्व सन् 1850 से 1875 के मध्य आधुनिक युग समाप्त हो गया। जब तक टॉयनबी अपनी पुस्तक के पाँचवें भाग पहुँचे (जिसका प्रकाशन सन् 1939 में हुआ) उन्होंने दो यूरोपीय युद्धों के सन् 1918 से सन् 1939 के मध्य के काल के लिए उत्तर-आधुनिक शब्द का उपयोग आरम्भ कर दिया था ।

टॉयनबी के अनुसार उत्तर-आधुनिकतावाद के मसीहा फ्रेडरिक नीत्शे थे। यद्यपि उनके विचार उनकी असमय मृत्यु के दो दशक पश्चात् दोनों विश्व युद्धों के मध्य के काल में यूरोप में फैले। टॉयनबी लिखते हैं कि आधुनिकतावाद के पश्चात् उत्तर-आधुनिकतावाद तब आरम्भ होता है जब लोग अनेक अर्थों में अपने जीवन, विचार और भावनाओं में अपोलोनियन तार्किकता एवं संगति को त्यागकर डायोनिसियन अतार्किकता एवं असंगतियों को ग्रहण कर लेते हैं। उनके अनुसार उत्तर-आधुनिकतावाद की चेतना विगत को और विगत के प्रतिमानों को भुला देने के सक्रिय उत्साह में दिखाई पड़ती है। यह एक तरह का अभिप्राय और निजप्रेरित स्मृति लोप है जो क्रमबद्ध समाज तथा तार्किक अकादमीय-संस्थानों के आदर्शों को भुला देती है।

एस. एल. दोषी उत्तर-आधुनिकतावाद में अन्तर्निहित 'उत्तर' शब्द की व्याख्या आधुनिकतावाद के अन्त के विषय में करते हैं। उत्तर आधुनिकतावाद के आरम्भिक विचारक 'ल्योतार' इसे आधुनिकतावाद का विस्तार स्वीकार करते हैं।

सुधीश पचौरी की कृति 'उत्तर आधुनिक साहित्यिक विमर्श' में इस तथ्य का विवरण मिलता है - "उत्तर-आधुनिकतावाद आधुनिकतावाद का अन्तिम बिन्दु नहीं है, बल्कि उसमें मौजूद एक नया बिन्दु है तथा यह दशा सतत् रूप से जारी है। उत्तर-आधुनिकता की सातत्व-मूलक छवि महत्वपूर्ण है।”

जेमेसन अपनी कृति 'पोस्ट माडर्निज्म द कल्चरल लॉजिक ऑफ लेट कैपिटलिज्म' के अन्तर्गत उत्तर-आधुनिकतावाद को पूँजीवाद के विकास की विशेष अवस्था के निर्माण की वजह स्वीकार करते हैं। उन्होंने पूँजीवाद की अवस्थाएँ - बाजार, पूँजीवाद और एकाधिकारवादी पूँजीवाद, बहुराष्ट्रीय या उपभोक्ता पूँजीवाद (वृद्ध पूँजीवाद) स्वीकार किया है।

उत्तर-आधुनिकतावाद को स्थापित करने वाले उसके सबसे पहले प्रवक्ता जां-फ्रांस्वा ल्योतार ने बताया है कि - "यह पद (उत्तर आधुनिकता) 19वीं शताब्दी के पश्चात् बहुत-से बदलावों के परिणामस्वरूप बनी उस सांस्कृतिक अवस्था को इंगित करता है कि जिसने विज्ञान, साहित्य एवं कलाओं के लिए लगभग अन्तिम से मान लिए गए खेल के नियमों को पलट दिया है।"

उत्तर-आधुनिकतावाद को जार्ज रिट्जर - ' मॉडर्निटी एण्ड पोस्ट-मॉडर्निटी' नामक अपनी कृति में परिभाषित करते हुए कहते हैं- “उत्तर-आधुनिकतावाद का आशय एक ऐतिहासिक काल से है यह काल आधुनिकतावाद के काल की समाप्ति के उपरान्त शुरू होता है। इतिहास के एक काल ने करवट ली और दूसरा काल आ गया। उत्तर-आधुनिकतावाद का सन्दर्भ सांस्कृतिक तत्वों से है। इसका तात्पर्य कला, फिल्म, पुरातत्व तथा इसी तरह की सांस्कृतिक वस्तुओं से है। यह सम्पूर्ण अवधारणा सांस्कृतिक है और इसके पश्चात् उत्तर-आधुनिक सामाजिक सिद्धान्त का आशय उस सिद्धान्त से है जो सामान्य समाजशास्त्रीय सिद्धान्त से भिन्न है।"

कृष्णदत्त पालीवाल अपनी पुस्तक 'उत्तर-आधुनिकतावाद की ओर' में मिशेल फूको एवं टाफलर की मान्यताओं का उल्लेख करते हैं।

“मिशेल फूको ने अपनी पुस्तक 'मैडनेस एण्ड सिविलाइजेशन' में तर्कों से यह साबित किया कि समाज-विज्ञान एवं आधुनिक विज्ञान सभी त्रासकारी दमनकारी हैं। इस पूरी स्थिति-परिस्थिति के बौद्धिक पर्यावरण, भूमण्डलीकरण, साहित्य-कला-संस्कृति, समाज-दर्शन-धर्म-राजनीति से जुड़े मुक्ति-आन्दोलनों, कम्प्यूटर तकनीकी, संचार-मीडिया-जन-संस्कृति, सूचना-संचार क्रान्ति, विखण्डनवाद-विकेन्द्रीयतावाद ने जो नवीन वातावरण निर्मित किया उसे एक व्यापक नाम 'उत्तर-आधुनिकतावाद' दिया गया।"

गोपीचन्द नारंग के शब्दों में, “उत्तर-आधुनिकतावादी किसी एक सिद्धान्त का नहीं, वरन् अनेक सिद्धान्तों अथवा बौद्धिक अभिवृत्तियों का नाम है और इन सबके मूल में बुनियादी बात सृजन की आजादी एवं अर्थ पर बैठाए हुए पहरे अर्थात् अन्तर्वर्ती एवं बहिर्वर्ती प्रदत्त लीक को रद्द करना है। ये नव्य बौद्धिक, अभिवृत्तियाँ अभिनव सांस्कृतिक एवं ऐतिहासिक स्थिति से उपजी हैं और नूतन दार्शनिक समस्याओं पर भी आधृत है। उत्तर-आधुनिकतावादी एक नई सांस्कृतिक अवस्था भी है, अर्थात् आधुनिकतावाद के बाद का युग उत्तर-आधुनिक कहलाएगा।"

जगदीश्वर चतुर्वेदी 'उत्तर आधुनिकतावाद' को नए युग के रूप में मानते हैं- "उत्तर आधुनिकतावाद पृथ्वी पर एक नए युग का आरम्भ है। यह ऐसा युग है जो आधुनिक का अतिक्रमण कर चुका है। व्यवहार या रवैया के मामले में हम एकदम नए किस्म के अनुभव, व्यवहार और जिन्दगी से गुजर रहे हैं। उत्तर-आधुनिकतावाद बदलाव के प्रति सचेत हैं।"

डॉ. मीना खतार उत्तर-आधुनिकतावाद के विषय में स्पष्ट करती हुई लिखती हैं- "उत्तर-आधुनिकतावाद मुख्यत: एक निश्चित विचार अथवा दर्शन से अधिक एक प्रवृत्ति का नाम है। जिसका जन्म 20वीं शताब्दी के यूरोप में हुआ। साहित्य, समाज, विज्ञान और आम जीवन में इस प्रवृत्ति के लक्षण दिखने लगे। वैसे हर क्षेत्र में इसके अलग-अलग रूप हैं।"

उपरोक्त इन परिभाषाओं एवं अवधारणाओं से यह साफ हो जाता है कि उत्तर-आधुनिकतावाद स्वयं में विस्तृत अर्थ समेटे हुए है। 20वीं सदी के बीच से समाज में आया हुआ नया बदलाव उत्तर-आधुनिकतावाद को जन्म देता है और यह उत्तर-आधुनिकता समाज के परिवर्तित संरचना को व्याख्यायित भी करती है और बदलाव की प्रक्रिया को तीव्र भी करती है। आधुनिकतावाद के दौरान आये हुए बदलाव पर उत्तर-आधुनिकतावाद ने सीधा अपना असर छोड़ा है। आधुनिकतावाद ने केन्द्रवाद, पूँजीवाद इत्यादि को जन्म दिया है।
उत्तर-आधुनिकतावाद केन्द्रवाद एवं पूँजीवाद को नकारने को पूरी कोशिश करता है। उत्तर-आधुनिकतावाद ने पूरी जीवन-शैलियों को बदल दिया है। मानवीय जीवन से जुड़े प्रत्येक क्षेत्र नये ढाँचे में अपना आकार ग्रहण कर रहे हैं। समस्त जगत् एक 'विश्व-ग्राम' बनने की ओर अग्रसर हो रहा है।

भारत में उत्तर-आधुनिकतावाद

उत्तर-आधुनिकतावाद ने सम्पूर्ण संसार पर अपना व्यापक प्रभाव छोड़ा है। भारत भी उसके प्रभाव से अछूता नहीं रहा है। जैसे - आधुनिकतावाद भारत में पहुँची वैसे ही उत्तर-आधुनिकतावाद भी भारत में पहुँची। भारत में आधुनिकतावाद को लाने का श्रेय अंग्रेजों को जाता है। अंग्रेजों के समय भारतीय समाज-व्यवस्था में जो परिवर्तन आया वह आधुनिकतावाद का परिणाम है। अंग्रेजों ने अपनी सुशासन व्यवस्था के लिए भारत में कई प्रकार के उद्योगों को स्थापित किया। सुख-सुविधा के वैज्ञानिक उपकरणों का विस्तार तत्कालीन समय में हो गया था।
अंग्रेजों के शासन काल में ही गाँवों के टूटने की और नगरों के विकसित होने की प्रक्रिया तेज हो गयी थी। उल्लेखनीय है कि जब आधुनिक आविष्कारों का प्रयोग होने लगता है तब उसके साथ-साथ चलने वाली विचारधारा भी स्वयं स्थापित हो जाती है। इस प्रकार सन् 1850 के उपरान्त आधुनिकतावाद भारत में आयी। लेकिन आधुनिकतावाद का लाभ केवल प्रभावशाली लोगों को ही हुआ। परम्परागत वर्ण-व्यवस्था और समाज-व्यवस्था में विशेष परिवर्तन नहीं हुआ। भारत में केन्द्रवाद अधिक प्रगाढ़ हुआ।
भारत में आधुनिकतावाद ने जातिवाद, क्षेत्रवाद, कोमवाद इत्यादि को अधिक मजबूत किया। आधुनिकता के कारण जो परिवर्तन पाश्चात्य देशों में आया वह भारत में नहीं आ सका। परम्परागत मान्यताओं, कुप्रथाओं, कुरूढ़ियों एवं आपसी भेद-भाव ने नया रूप ग्रहण किया और अपनी जड़ें जमाए रखीं। जैसे ही उत्तर-आधुनिकतावाद भारत में आयी तो उसने भारतीय समाज व्यवस्था की जड़ें हिला दीं। इन्द्रनाथ चौधरी भारत में उत्तर आधुनिकतावाद के आरम्भ को लेकर लिखते हैं कि- “भारतीय सन्दर्भ में उत्तर-आधुनिकतावाद मीडिया संचालित एवं बाजार-निर्देशित तथ्यों की प्रतिक्रियास्वरूप में सामने आयी है।" अर्थात् मीडिया और बाजारवाद का जो प्रभाव भारतीय समाज पर पड़ा इसी प्रभाव में उत्तर-आधुनिकतावाद प्रतिबिम्बित होती है। भारतीय समाज में उत्तर-आधुनिकतावाद की उपस्थिति की ओर इंगित करते हुए सुधीश पचौरी लिखते हैं-"अपने समाज में मौजूद उपद्रव काफी कुछ आधुनिक और उत्तर-आधुनिक की टकराहटों का परिणाम है। अपने यहाँ बहुत कुछ पूर्व- आधुनिक स्थितियाँ भी मौजूद हैं। इसलिए यह तिहरी गाँठ है जो खुल रही है।" अर्थात् भारत में तीन तरह की स्थितियाँ मौजूद हैं- प्रथम, पूर्व- आधुनिक, दूसरी, आधुनिक एवं तीसरी, उत्तर - आधुनिक।
आधुनिकतावाद आने पर वर्चस्ववादियों ने आधुनिकतावाद का लाभ भी उठाया तथा अपने वर्चस्व को कायम रखने वाली परम्पराओं, कुप्रथाओं, कु-रूढ़ियों को भी न छोड़ा। अर्थात् भारत में आधुनिकतावाद वर्चस्ववादियों के हाथ का खिलौना बनकर रह गयी। उत्तर-आधुनिकतावाद आने पर उसने सीधा वर्चस्ववाद पर ही प्रहार किया। फलस्वरूप आधुनिकतावाद और उत्तर-आधुनिकतावाद के मध्य टकराहटें उत्पन्न हो रही हैं। वर्चस्ववादियों ने ही पूर्व-आधुनिक स्थितियों को अभी तक जीवित रखा है, परन्तु उत्तर-आधुनिकतावाद आधुनिक एवं पूर्व-आधुनिक दोनों ही स्थितियों को समाप्त करती जा रही है। अतः यह 'तीहरी गाँठ' अब खुल रही है।
वैश्विक धरातल पर बने रहने के लिए एवं वैश्विक स्तर पर समायोजन स्थापित करने के लिए न चाहते हुए भी वैश्विक स्थितियों को मान्यता देना अनिवार्य हो जाता है। सूचना व प्रौद्योगिकी भी एक अनिवार्य जरूरत बन गयी है। अतः इन नवीन आविष्कारों को स्वीकार करना भी जरूरी हो जाता है। यही वजह है कि न चाहते हुए भी सम्पूर्ण भारतीय समाज को उत्तर-आधुनिकतावाद का स्वीकार करना ही पड़ा। अनचाहे भी आज उत्तर-आधुनिकतावाद सम्पूर्ण भारत में अपने चरम उत्कर्ष पर है।
कृष्ण दत्त पालीवाल के शब्दों में, “भारत के मॉडर्न बौद्धिकों ने उत्तर-आधुनिकतावाद की विभेदीय, विकेन्द्रित, विखण्डनवादी विचारधारा को मान लिया है। विखण्डनवादी विचारधारा से ही हम पूर्व और पश्चिम के समाज-साहित्य-व्यापार को समझ रहे हैं। यही दृष्टि विभिन्न भारतीय जातियों-संस्कृतियों के मध्य सक्रिय है।” भारत के प्रत्येक क्षेत्र में उत्तर-आधुनिकतावाद का विस्तृत प्रभाव आज दिखायी पड़ता है। साहित्य, कला, संस्कृति, राजनीति, समाजशास्त्र, अर्थशास्त्र सभी विषय क्षेत्रों में आज उत्तर-आधुनिकतावाद केन्द्रीय मुद्दा बनी हुई है। विशेषकर उत्तर-आधुनिकतावाद की विखण्डनवादी प्रवृत्ति ने पूरे भारतीय समाज में उथल-पुथल मचा दी है। केन्द्रीय सत्ता अब विस्थापित हो रही है और हाशिए के लोग केन्द्र में आ रहे हैं। भारत में उत्तर-आधुनिकतावाद के प्रभाव को परिभाषित करते हुए कृष्णदत्त पालीवाल ने माना है कि - " भारत की सांस्कृतिक-राजनीतिक स्थिति में ऐसी परिस्थिति पैदा हुई है कि उच्च जातियों का वर्चस्ववाद कमजोर पड़ा है और राजनीति शक्ति सत्ता के क्षेत्र में पिछड़ी, दलित जातियाँ उभरकर सामने आयी हैं। उत्तर-आधुनिकतावाद की पूरी सोच 'सबाल्टर्न' पिछड़े, दलित वर्ग के साथ है। "
अतः उत्तर-आधुनिकता के फलस्वरूप भारत में आज वर्चस्ववाद टूटता जा रहा है, केन्द्रीय सत्ता कमजोर पड़ती जा रही है, हाशिए के लोगों की आवाज ऊँची उठी हुई है, सूचना व प्रौद्योगिकी अपना चरम प्रभाव दिखा रही है, परम्परागत, मान्यताएँ, प्रथाएँ अपनी जड़ों से समाप्त हो रही हैं।

उत्तर-आधुनिकतावाद का महत्व

प्रौद्योगिकी व तकनीकी विकास और आधुनिकतावाद की प्रतिक्रिया स्वरूप उद्भवित होने वाली उत्तर-आधुनिकतावाद का समसामयिक परिस्थितियों में खास महत्व रहा है। आधुनिकतावाद से उत्पन्न समस्याओं से निपटने में उत्तर-आधुनिकतावाद सहायक साबित होती है। आधुनिकतावाद की खण्डनात्मक प्रवृत्तियों की प्रतिक्रिया स्वरूप ही इसका उद्भव हुआ है। वह मनुष्य को भविष्य के लिए सजग करती है। उचित न्याय-प्रणाली और औचित्य भरी दृष्टि उसकी मुख्य खासियत रही है। उत्तर-आधुनिकतावाद के महत्व को स्थापित करते हुए कृष्णदत्त पालीवाल नये समाज-तन्त्र के विषय में लिखते हैं- "यह वह नया समाज-तन्त्र है, जो पुरानी राजनीति, संस्कृति, परम्परा, सभी को पीछे छोड़ते हुए अपना प्रभुत्व कायम करता है। नए प्रबन्धन के नाम पर 'उपेक्षित जनों' को नई राजनीतिक चेतना देता है तथा वे अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करते हैं। इसमें समाज वस्तु उत्पादक अर्थव्यवस्था (उत्पादक व्यवस्था) में परिवर्तित हो जाता है। इसमें तकनीक - प्रवीण लोग उभरते हैं, और यही लोग समाज की गति को तय करते हैं। " अर्थात् उत्तर-आधुनिकतावाद असमानता को दूर करती है तथा बौद्धिकता एवं योग्यता को महत्व देती है।
इससे आडम्बरपूर्ण जैसी पम्पराओं की समाप्ति होती है। वह आने वाली समस्याओं के प्रति जागरुक करती है और जीवन के महत्वपूर्ण सवालों के प्रति हमारा ध्यान आकर्षित करती है। इस दृष्टि से उत्तर-आधुनिकतावाद का महत्व और अधिक बढ़ जाता है कि वह असमानता को दूर करके मानवीयता को स्थापित करने की कोशिश करती है। वह एकाधिकार एवं केन्द्रवाद को नकारती है, इसमें ही उसका महत्व है।
डॉ. मीना खेरात के अनुसार, “पश्चिम के एकाधिकार को भी चुनौती मिल रही है। साथ ही वर्गवादी एवं सामन्तशाही व्यवस्था को भी नकार दिया गया है। जिससे प्रत्येक वर्ग का व्यक्ति वैश्विक मानव के रूप में अपनी स्वतन्त्र अस्मिता को स्थापित करने की कोशिश कर रहा है। यही उत्तर-आधुनिकतावाद का महत्व है। दलित, पिछड़े, समलैंगिक, स्त्रियाँ एवं उपेक्षित लोगों को केन्द्र में लाने का उत्तर आधुनिक प्रयास निःसन्देह प्रशंसनीय है।"
अतः आधुनिकतावाद ने पूँजीवाद को जन्म दिया तथा पूरी तरह से विकसित किया। समस्त विश्व पर पूँजीपतियों का साम्राज्य स्थापित हुआ, जिसमें सामान्य मनुष्य दबता जा रहा था। उत्तर-आधुनिकतावाद पूँजीवाद का विरोध करती है तथा पूँजीवाद को सर्वभक्षी मानकर उसे नकारने की कोशिश करती है। अतः इस दृष्टि से भी उत्तर-आधुनिकतावाद का महत्व कम नहीं है।
जॉन मैकगोवान के अनुसार, "उत्तर-आधुनिकतावाद का लक्ष्य इसी पूँजीवाद समग्रता को विखण्डित करता है।" इस तरह वर्तमान की समस्याओं को उजागर करने वाली, समाज के नव-निर्माण के लिए कोशिश करने वाली और मानवीय पहलुओं को साथ लेकर चलने वाली उत्तर-आधुनिकतावाद का महत्व कम नहीं है। वह वर्तमान की माँग और जरूरत रही है।

आधुनिकतावाद और उत्तर-आधुनिकतावाद में अन्तर

उत्तर-आधुनिकतावाद को स्पष्ट रूप से समझने के लिए आधुनिकतावाद से इसके अन्तर को जान लेना जरूरी है। आधुनिकतावाद का विकास सत्रहवीं एवं अठारहवीं सदी में यूरोप में हुआ। इसी युग में यूरोप में पुनर्जागरण हुआ और सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक एवं राजनीतिक सभी क्षेत्रों में क्रान्तिकारी बदलाव हुए। इसी युग में भाप के इन्जन का आविष्कार हुआ, उत्पादन में मशीनों का उपयोग हुआ जिसने औद्योगीकरण को जन्म दिया। अब उत्पादन अधिक मात्रा में तथा तेज गति से होने लगा। नए-नए द्वीपों और महाद्वीपों की खोज हुई। व्यापार एवं वाणिज्य का क्षेत्र बढ़ा, बैंक, साख, मुद्रा की सुविधाएँ बढ़ीं। यातायात और संचार के साधनों का विकास हुआ। दर्शन, शिक्षा और बौद्धिक क्षेत्र में तर्क का विकास हुआ। सभी क्षेत्रों में तर्क को मान्यता दी गयी। शासन में प्रजातन्त्र एवं उसके मूल्यों को माना गया। आधुनिकतावाद की व्याख्या पुरातन व्यवस्था के सन्दर्भ में की गयी। आधुनिकतावाद का सम्बन्ध पुनर्जागरण से जोड़ा गया। इस तरह से पुनर्जागरण के साथ यूरोप में आधुनिकतावाद का उद्भव हुआ।
उत्तर-आधुनिकतावाद को आधुनिकतावाद से जोड़कर देखा गया। उत्तर-आधुनिकता का जन्म आधुनिकतावाद के पश्चात् हुआ। यह आधुनिकतावाद की समाज व्यवस्था को तोड़ती है, उसे ध्वस्त करती है, खारिज करती है। उत्तर-आधुनिकतावाद विविधता को बढ़ावा देती है, यह जीवन में आनन्द एवं खाओ-पीओ और मौज करो पर बल देती है।
उत्तर-आधुनिकतावाद की विशेषताएँ आधुनिकता के विपरीत हैं। कुछ विद्वानों का विचार है कि उत्तर-आधुनिकतावाद आधुनिकतावाद की ही अगली कड़ी है। आधुनिकतावाद की कमियों ने ही उत्तर-आधुनिक समाज की संकल्पना दी है। 
आधुनिकतावाद और उत्तर-आधुनिकतावाद में अन्तर निम्नवत् है-
आधुनिकतावाद में विज्ञान को महत्व दिया जाता है जबकि उत्तर-आधुनिकतावाद में मानवतावाद को। विज्ञान ने उत्पादन की नवीन तकनीकी और आविष्कारों को जन्म दिया। नई तकनीकी और प्रौद्योगिकी ने समाज एवं संस्कृति के विभिन्न पक्षों को विकृत किया है। विज्ञान और नवीन तकनीकी ने ही विनाशकारी बम्बों के निर्माण को सम्भव बनाया, अस्त्र-शस्त्र बनाए जो कुछ ही क्षणों में समस्त संसार का अन्त कर सकते हैं। मशीनों ने प्रदूषण और ख़तरनाक रोगों को जन्म दिया है। विज्ञान व प्रौद्योगिकी ने ही आधुनिक उपभोगवादी मनोवृत्ति एवं संस्कृति और भौतिकवाद को जन्म दिया।
आधुनिकतावाद के तहत् विज्ञान को ही ज्ञान प्राप्ति का एकमात्र साधन स्वीकार किया गया और अन्य साधनों को खारिज किया गया। आधुनिक युग के विज्ञान व प्रौद्योगिकी ने अमानवीकरण की प्रक्रिया को बढ़ावा दिया जबकि उत्तर- -आधुनिकतावाद मानव को वस्तु के रूप में देखने (वस्तुकरण) को सिरे से खारिज करती है। वह व्यक्ति को व्यक्ति के रूप में देखती है। यह मानवीय सम्बन्धों के प्रति अत्यधिक संवेदनशील है। यह मानवीय सम्बन्धों में शालीनता, स्नेह, प्रेम, नैतिकता, आत्मीयता पर बल देता है ।
आधुनिकतावाद में तर्क को प्राथमिकता दी गई थी जबकि उत्तर-आधुनिकतावाद में भावना को प्राथमिकता दी जाती है। तार्किकता यान्त्रिक और बौद्धिक होती है जबकि मानव जीवन के कई पक्ष भावनाओं पर आधारित हैं। बच्चों, वृद्धों एवं रोगियों की सेवा-सुश्रुषा, अनाथ, बेबस, शोषित एवं विकलांग के प्रति संवेदनशीलता, सहृदयता एवं प्रेम के भाव भावना पर ही निर्भर हैं।
आधुनिकतावाद ने प्रतिस्पर्द्धा को महत्व दिया है, यह न केवल आर्थिक प्रतिस्पर्द्धा वरन् जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में प्रतिस्पर्द्धा को महत्व देती है। व्यवसायियों, व्यापारियों, मिल मालिकों सभी में प्रतिस्पर्द्धा पायी जाती है। शैक्षणिक क्षेत्र में भी प्रवेश से लेकर मैरिट लिस्ट में प्रथम स्थान प्राप्त करने हेतु प्रतिस्पर्द्धा दिखायी देती है। खेल-कूद, राजनीति, सौन्दर्य प्रदर्शन, धर्म, सामाजिक जीवन सभी में प्रतिस्पर्द्धा पायी में जाती है। विदित है कि यह प्रतिस्पर्द्धा ही आगे चलकर संघर्ष को जन्म देती है। इसकी तुलना उत्तर-आधुनिकतावाद सहयोग को महत्व देती है। सहयोग पारस्परिकता को बढ़ावा देता है। यही प्रेम का आधार है। यह सामूहिक जीवन का पक्षधर है। सहयोग विभिन्न जातियों, प्रजातियों, धर्मों, भाषा-भाषियों, संस्कृतियों से सम्बन्धित लोगों को एकता के सूत्र में बाँधती है।
आधुनिकतावाद में विशेषीकरण को महत्व दिया जाता है जबकि उत्तर-आधुनिकतावाद में सम्पूर्णतावाद को। आधुनिकतावाद मानव जीवन के हर क्षेत्र चाहे वह आर्थिक, शैक्षणिक, न्यायिक, सामाजिक, औषधि, कला, कानून हो सभी के बारे में विशेषज्ञता दृष्टिगोचर होती है। प्रत्येक विज्ञान के क्षेत्र में विशेषज्ञता पायी जाती है। लेकिन सम्पूर्णता को समझे बिना विशेषज्ञता का वर्णन, विश्लेषण अपूर्ण है, इसी वजह से उत्तर-आधुनिकतावाद संश्लेषणता पर जोर देती है।
आधुनिकतावाद व्यक्तिवाद पर जोर देती है जबकि उत्तर-आधुनिकतावाद सामूहिकता को महत्व देती है। यदि परिवार के सदस्य व्यक्तिवाद अर्थात् स्वार्थों को ही महत्व देने लगे तो पारिवारिक जीवन तनावपूर्ण हो जाएगा। सामूहिकता में व्यक्ति को विश्वास सुरक्षा प्राप्त होती है तथा उसकी क्षमताओं का पूर्ण विकास होता है। संयुक्त परिवार में बयोवृद्ध लोगों की देख-रेख में बच्चों के स्वास्थ्य विकास की सम्भावना अधिक होती है।
उपरोक्त चर्चाओं से साफ हो जाता है कि उत्तर-आधुनिक समाज की विशेषताएँ आधुनिक समाज से भिन्न तरह की हैं। इसी कारण ये दो विचारधाराएँ विभिन्न तरह के समाज का निर्माण करती हैं जो एक-दूसरे से बिल्कुल विपरीत हैं।

निष्कर्ष

यह कहा जा सकता है कि आधुनिकतावाद और उत्तर-आधुनिकतावाद दोनों के मानव-जीवन को पूरी तरह से प्रभावित किया है। बौद्धिक क्रान्ति ने आधुनिकतावाद को जन्म दिया। एक नवीन सोच ने पुरातन सोच को प्रभावित किया। आधुनिक उपकरणों ने जीवन-प्रणाली को बदल दिया। आधुनिकतावाद की विकृतियों ने मानव समाज पर भौतिक और अभौतिक समस्या उत्पन्न की जिससे पूँजीवाद, वर्चस्ववाद, केन्द्रवाद प्रगाढ़ हुए। सामान्य मनुष्य की आवाज और अस्मिता दब गई। आधुनिकतावाद की इन परिस्थितियों के खिलाफ प्रतिक्रिया स्वरूप उत्तर-आधुनिकतावाद का उदय हुआ। सूचना व प्रौद्योगिकी को साथ लेकर चलने वाली उत्तर-आधुनिकतावाद ने मानवतावादी बिन्दुओं पर अपना प्रभाव छोड़ा। इसकी वजह से केन्द्रवाद, पूँजीवाद, वर्चस्ववाद अपनी जगह से विस्थापित हो रहे हैं। अत: उत्तर-आधुनिकतावाद मानव-मानव के मध्य की दूरी समाप्त करके एक विश्व - संस्कृति का निर्माण कर रही है।

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