अनुवाद के प्रकार
अनुवाद अनुशासन की व्यापकता एवं बहुआयामिता को देखते हुए इसे कई प्रकारों के रूप में बाटा गया है। अनुवाद प्रकारों पर चर्चा भारतीय विद्वानों एवं पाश्चात्य विद्वानों दोनों ही दृष्टिकोण के द्वारा की गई है। इसके अतिरिक्त अनुवाद प्रकारों को भाषा के आधार पर, पाठ के आधार पर इनके प्रयोग के आधार पर भी विभाजित किया गया है।
अनुवाद प्रकारों की चर्चा विस्तृत रूप में निम्नानुसार है...
भाषा के आधार पर अनुवाद के प्रकार
भाषा के आधार पर अनुवाद के प्रकारों की चर्चा सबसे पहले की गई थी। अनुवाद का विकास जब एक अनुशासन के रूप में हुआ तभी इसके प्रकारों पर भी चर्चा की गई। कुछ विद्वानों द्वारा प्रस्तावित अनुवाद के प्रकार निम्नलिखित रूप में हैं।
जॉन ड्रायडेन के अनुसार
अनुवाद के प्रकारों पर सर्वप्रथम चर्चा जॉन ड्रायडन ने की थी। इन्होंने अनुवाद के इन प्रकारों की चर्चा अनुवाद की परिभाषा के समय ही बताए थे। इनके अनुसार अनुवाद के तीन प्रकार हैं।
मेटाफ्रेज़
इसे स्पष्ट करते हुए ड्रायडन ने इसे अनुवाद का सबसे प्राचीन रूप माना है। पाश्चात्य परंपरा में अनुवाद का संदर्भ बाइबिल के अनुवाद से विकसित हुआ। यहाँ पर नवजागरण यानि रेनेसांस के पूर्व के काल को अंधयुग कहा जाता था। इस समय समाज में पोप के नियमों एवं कानून का प्रभुत्व था। हालांकि ये स्वयं को भगवान का प्रतिनिधि या संदेशवाहक कहते थे लेकिन इन्होंने समाज में अपने स्वार्थ के वशीभूत होकर कई वर्ग बना रखे थे। कुछ लोग बहुत अमीर थे और कुछ शोषण का शिकार। नवजागरण काल में चर्च यानि पोप का प्रभुत्व टूटता है।
धर्म, ईश्वर की फिर से नई व्याख्या दी जाती है। इसी व्याख्या में बाइबिल के अनुवाद की बात की जाती है। हालांकि बाइबिल का जो पहला अनुवाद हुआ वह चर्च के ही दिशा निर्देशन में हुआ था। चर्च का यह मानना था कि बाइबिल ईश्वर प्रसूत है। इसलिए इसकी व्याख्या नहीं की जानी है। इसमें जिस रूप में शब्द आए हैं उसी रूप में इंका अनुवाद एक भाषा से दूसरी भाषा में की जाएगी। बाइबिल का अनुवाद हिब्रू से लैटिन में और फिर लैटिन से अंग्रेजी में होता है। लेकिन यह अनुवाद शब्दानुवाद रूप में ही होता था। इससे अर्थ फिर से छुपा रहता था और पोप इस अनुवाद का भी अपने स्वार्थानुसार प्रयोग करते थे। बाइबिल के अनुवाद के संदर्भ में जिन्होंने अर्थानुवाद किए उन्हेंपोप द्वारा फांसी दिया गया, जलाकर मार दिया गया। इन लोगों का नाम अनुवाद के क्षेत्र में मशहूर भी है। बहरहाल, शब्दानुवाद की परंपरा बाइबिल के अनुवाद से संबंधित है। इसी शब्दानुवाद को जॉन ड्रायडन ने मेटाफ्रेज़ कहा है।
पाराफ्रेज़
इसका अर्थ होता है अर्थ के आधार पर अनुवाद करना। अर्थात अर्थानुवाद। अनुवाद की यह परंपरा बहुत बाद में विकसित होती है। इसके विकसित होने की कहानी भी बहुत जटिल रही है। अर्थानुवाद की परंपरा धार्मिक ग्रन्थों के अनुवाद रूप में ही विकसित होती है। अनुवाद के इस प्रकार के अंतर्गत शब्द की सीमा के बाहर निकते हुए अर्थ के आधार पर अनुवाद किया जाता है। बाइबिल, रामायण, महाभारत आदि पाठों के अनुवाद अर्थानुवाद के रूप में विश्वभर में पहुंच सके। अर्थ के आधार पर अनुवाद न केवल साहित्यिक पाठ का होता है बल्कि ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में अर्थानुवाद को ही ज़्यादा महत्त्व दिया जाता है।
इमिटेशन
इमिटेशन का अर्थ दुहराने या अनुकरण करने के अर्थ में लिया जाता है। अनुवाद के अंतर्गत अनुवादक जब एक भाषा से दूसरे भाषा में अनुवाद करता है तो वह स्रोत भाषा की कृति कालक्ष्य भाषा में अनुकरण ही करता है। इस अनुकरण में भाव को महत्त्व दिया जाता है। इसलिए इमिटेशन को भावानुवाद भी कहा जा सकता है। जॉन ड्रायडन ने इसे साहित्यिक पाठों के अनुवाद में विशेषकर काव्यनुवाद के संदर्भ में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण माना है। कविताओं का अनुवाद, सांस्कृतिक पाठों का अनुवाद इमिटेशन के रूप में बेहतर तरीके से तैयार किए जा सकते हैं। इसलिए अनुवाद के इस प्रकार का सर्वाधिक प्रयोग कविता साहित्य के अनुवाद के अंतर्गत किया जाता है।
रोमन याकोब्सन के अनुसार
जॉन ड्रायडन के बाद अनुवाद के प्रकारों पर सर्वाधिक विस्तृत रूप में चर्चा रोमन याकोब्सन ने की। अनुवाद प्रकारों के रूप में इनके द्वारा प्रस्तावित प्रारूप को सर्वाधिक स्वीकृति मिली और आज अनुवाद अनुशासन के अंतर्गत इनके द्वारा प्रस्तुत अनुवाद प्रकारों को अनिवार्य रूप से पढ़ाया जाता है। रोमन याकोब्सन से अनुवाद प्रकारों का वर्गिकरण भाषा के आधार पर किया है। इनकी दृष्टि से अनुवाद के अंतर्गत भाषा का ही कार्य कियाजाता है। अनुवाद में भाषा का पक्ष सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण होता है। इसलिए अनुवाद के प्रकारों पर चर्चा भाषा के आधार पर महत्त्वपूर्ण है। इन्होंने अनुवाद के तीन प्रकारों में बांटा है...
अंत:भाषी अनुवाद
अनुवाद के इस प्रकार के अंतर्गत स्रोत भाषा एवं लक्ष्य भाषा दोनों एक ही होती है। अर्थात एक ही भाषा के अंतर्गत किया हुआ अनुवाद अंतःभाषी अनुवाद कहलाता है। भारतीय अनुवाद परंपरा की दृष्टि से अंतःभाषी अनुवाद बहुत ही महत्त्वपूर्ण रहा है। भारत में प्राचीन काल में अनुवाद के प्रमाण इसी रूप में मिलते हैं। वैदिक पाठों पर लिए गए उपनिषद, आरण्यक, निरुक्त, निर्वचन, निघंटु आदि संस्कृत से संस्कृत में ही अनूदित किए गए हैं। इसलिए इन्हें अंतःभाषी अनुवाद कहा जाता है। इसके अतिरिक्त अनुवाद के इस प्रकार का प्रचन आधुकीन समय में भी है। उदाहरण के लिए हिंदी कथा साहित्य के प्रसिद्ध लेखक व उपन्यासकार प्रेमचंद ने अपने शुरुआती उपन्यास देवनागरी लिपि की उर्दू प्रधान शैली से हिंदी के शैली में अनूदित रूप में तैयार किए। इनके इस प्रकार के अनुवाद को अंतःभाषी अनुवाद कहा जाता है। इसके अतिरिक्त कई सारी पद्यात्मक कृतियों का उसी लिपि अथवा शैली में गद्यात्मक रूप में अथवा गद्यात्मक कृतियों का पद्य रूप में अनुवाद किया जाता है। इस तरह से किए हुए अनुवाद अंतःभाषी अनुवाद की श्रेणी में आते हैं। रोमन याकोब्सन ने अनुवाद के इस प्रकार को सर्वाधिक प्राचीन, प्रचलित और महत्त्वपूर्ण माना है।
अंतरभाषी
अंतरभाषी अनुवाद के अंतर्गत अनुवाद कार्य दो अलग-अलग भाषाओं के बीच किया जाता है। इसमें एक भाषा से दूसरी भाषा के बीच अंतर होता है। इसीलिए इसे अंतरभाषी अनुवाद कहा जाता है। इस अनुवाद को अनुवाद का वास्तविकप्रकर भी कहा जाता है। क्योंकि साधारण रूप में अनुवाद शब्द का अर्थ एक भाषा से दूसरी भाषा में किया हुआ अनुवाद ही समझा जाता है। अंतरभाषी अनुवाद के अंतर्गत एक स्रोत भाषा होती है और कोई दूसरी भाषा लक्ष्य भाषा होती है। इस अनुवाद के अंतर्गत स्रोत भाषा के पाठ को चाहे वह साहित्यिक पाठ हो या साहित्येतर उसकी भाषा, संरचना, अर्थ, भाव एवं शैली आदि जैसे महत्त्वपूर्ण बिंदुओं को लक्ष्य भाषा में समान गुण-धर्म के अनुसार अनूदित किया जाता है। आधुनिक समय में अंतरभाषी अनुवाद का क्षेत्र सर्वाधिक समृद्ध है।
अंतरप्रतीकात्मक
अंतरप्रतीकात्मक अनुवाद प्रकार के अंतर्गत प्रतीकों के स्तर पर अंतरण किया जाता है। यह स्पष्ट है कि भाषा वादृच्छिक ध्वनि प्रतीकों के व्यवस्था है। जिसमें प्रत्येक शब्द एक प्रतीक से जुड़ा होता है। वे भाषिक प्रतीक अपने भाषा के समाज एवं समुदाय द्वारा स्वीकृत, निर्धारित एवं निर्मित होते हैं। इसलिए इन भाषिक प्रतीकों को जब किसी दूसरे प्रतीक के रूप में बदल दिया जाता है तो उस अनुवाद को अंतरप्रतीकात्मक अनुवाद कहा जाता है। जैसे किसी लिखित नाटक का अभिनय होना, मंचन होना, फिल्मांकन किया जाना, किसी लिखित पाठ की कहानी पर कोई चित्र बनाना, कोई गीत या संगीत बनाना आदि अंतरप्रतीकात्मक अनुवाद के उदाहरण हैं। इसके अंतर्गत लिखित पाठ की प्रतीक व्यवस्था को दूसरे प्रतीकों में अनूदित कर दिया जाता है। इस अनुवाद के दो रूप हैं।
- अंत:भाषी अंतरप्रतीकात्मक अनुवाद : इसके अंतर्गत केवल भाषिक प्रतीक बदलते हैं लेकिन भाषा एक ही होती है। जैसे प्रेमचंद के उपन्यास गोदान अथवा इनकी ही कहानी कफन का फिल्म रूप में चित्रण। इन दोनों ही अनुवादों का स्रोत हिंदी भाषा है और इंका रूपांतरण भी हिंदी भाषा में किया गया है। लेकिन इसमें लिखित प्रतीकों को दृश्य-श्रव्य रूप में अनूदित कर दिया गया है। इसलिए इस रूपांतरण को एक ही भाषा में किया गया अंतरप्रतीकात्मक रूपांतरण कहा जाएगा।
- अंतरभाषी अंतरप्रतीकात्मक अनुवाद : इसके अंतर्गत न केवल भाषिक प्रतीकों का रूपांतरण किया जाता है बल्कि भाषा का भी दूसरी भाषा में रूपांतरण कर दिया जाता है। उदाहरण के लिए शेक्सपियर के नाटक हैमलेट पर बनी हिंदी फिल्म हैदर, शेक्सपियर के ही अन्य नाटकों जैसे ओथेल्लो और मैकबेथ नाटकों पर हिंदी में बनी फिल्में ओंकारा और मकबूल भी उल्लेखनीय हैं। इस रूपांतरण के अंतर्गत स्रोत भाषा का पाठ अंग्रेजी भाषा से है और इसका रूपांतरण हिंदी भाषा में किया गया है। यहां पर तो भाषा के स्तर पर बदलाव हुआ। दूसरा लिखित नाटक का फिल्मांकन रूप में दृश्य-श्रव्य माध्यम रूपांतरण किया गया है। इसमें प्रतीकों के स्तर पर रूपांतरण किया गया है। इसलिए इसमें दो स्तरीय रूपांतरण किया गया है।
डॉ. सुरेश कुमार के अनुसार
हिंदी भाषा में अनुवाद के प्रकारों पर विस्तृत रूप में चर्चा करने वालों में डॉ. सुरेश कुमार का नाम प्रसिद्ध है। इन्होंने अनुवाद के प्रकारों का विभाजन कई स्तरों पर किया है। इनकी चर्चा निम्नलिखित है-
भाषा बाह्य अनुवाद प्रकार
इसके अंतर्गत अनुवाद प्रकारों की चर्चा भाषा से अलग हटकर की गई है। इसमें भाषा का पक्ष द्वितीयक हो जाता है। इसे सुरेश कुमार ने दो भागों में बाटा है:-
- आकार की दृष्टि से : सुरेश कुमार के अनुसार अनुवाद के प्रकार को आकार की दृष्टि से भी देखा जा सकता है। आकार की दृष्टि से इन्होंने अनुवाद के दो रूप बताए हैं। पूर्ण अनुवाद और आशिक अनुवाद। अनुवाद के प्रकार जिनके अंतर्गत पाठ का पूरा का पूरा अनुवाद किया जाता है वह पूर्ण अनुवाद कहलाता है। इस तरह के अनुवादों के अंतर्गत पत्रों का अनुवाद, कार्यालयी दस्तावेजों का अनुवाद, वैज्ञानिक पाठों का अनुवाद आदि किया जाता है। इसमें स्रोत भाषा से लक्ष्य भाषा के बीच पाठ में निहित प्रत्येक शब्द और अर्थ का अनुवाद किया जाना अनिवार्य होता है। इसलिए इस अनुवाद को पूर्ण अनुवाद कहा जाता है। आंशिक अनुवाद के अंतर्गत स्रोत भाषा से लक्ष्य भाषा के बीच पाठ के कुछ हिस्से का ही अनुवाद किया जाना संभव होता है। साहित्यिक पाठ विशेषकर कविताओं के अनुवाद में कविता के कुछ हिस्से का ही अनुवाद संभव होता है। जैसे- हिंदी के कवि मतिराम, बिहारी, भूषण, केशवदास आदि के दोहों का पूर्ण अनुवाद असंभव है। यदि इनके दोहों का अंग्रेजी भाषा में अनुवाद करने की कोशिश की जाए तो हिंदी कविता की तरह रस, छंद, अलंकार, बिम्ब, प्रतीक आदि काव्यात्मक कोटियों का अंग्रेजी भाषा में पुनर्निर्माण या पुनर्सजन असंभव है। इन दोहों के अनुवाद में या तो अर्थ या भाव अनूदित हो सकता है या काव्यात्मक गुण। इसलिए इस तरह के अनुवाद को आंशिक अनुवाद कहा जा सकता है।
- अभिव्यक्ति की दृष्टि से : डॉ सुरेश कुमार ने अभिव्यक्ति की दृष्टि से अनुवाद के प्रकारों का पुनः दो रूपों में विभाजन करते हैं। मानव अनुवाद और मशीन अनुवाद। अनुवाद के इन प्रकारों के अंतर्गत अनुवाद को अभिव्यक्त करने वाले दो माध्यम रूप हैं। एक मानव और दूसरा मशीन। मानव अनुवाद के अंतर्गत पाठ का अनुवादक मानव होता है। मानव द्वारा स्रोतभाषा से लक्ष्य भाषा के बीच में अनुवाद किया जाता है। मशीन अनुवाद के अंतर्गत अनुवादक की भूमिका में मशीन होती है। जिसमें किसी भी पाठ का इनपुट दिया जाता हौर आउटपुट मशीन द्वारा प्रस्तुत किया जाता है। आधुनिक समय में अशीन अनुवाद के क्षेत्र में बहुत तेजी से काम किया जा रहा है। विश्व भर में मशीनी अनुवाद की दृष्टि से बड़े बड़े शोध कार्य एवं परियोजनाएं संचालित हो रही हैं। बहरहाल, वह अनुवाद जिसमें अनुवादक की भूमिका में मशीन कार्यरत रहती है उसे मशीनी अनुवाद कहा जाता है।
भाषिक संरचना के आधार पर
भाषाविज्ञान के अंतर्गत भाषा का अध्ययन कई इकाइयों में किया गया है। अनुवाद का आधार चूंकि भाषा ही है इसलिए भाषा की इकाइयों के आधार पर भी अनुवाद का कार्य किया जाता है। स्रोतभाषा की इकाइयों का लक्ष्य भाषा की इकाइयों के रूप में किया हुआ अंतरण भाषिक इकाइयों का अनुवाद कहलाता है। भाषा इकाई के आधार पर डॉ. सुरेश कुमार ने अनुवाद को कई प्रकारों में बांटा है। जिनका अध्ययन निम्नलिखित है।
- भाषा संरचना की दृष्टि से : भाषा की संरचना ध्वनि, स्वन, पद, वाक्य, अर्थ, प्रोक्ति आदि के रूप में है। इस दृष्टि से किया हुआ अनुवाद भाषा की संरचना का अनुवाद कहलाता है। स्रोत भाषा से संबंधित किसी भी पाठ का अनुवाद करते समय अनुवादक भले ही प्रत्येक शब्द या वाक्य का अनुवाद न करे लेकिन इन स्तरों का ज्ञान होना, इनका बोध होना और इनके अर्थ को समझने की क्षमता होना अनिवार्य होता है। क्योंकि कुछ पाठ ऐसे होते हैं जिनमें स्वनिमिक अनुवाद, लेखिमिक अनुवाद, व्याकरणिक अनुवाद, शब्दकोषीय अनुवाद आदि के रूप में अनुवाद किया जाता है। कुछ पाठों में ध्वनियों का भी अनुवाद करना पड़ता है। कुछ पाठ ऐसे होते हैं जिनकी ध्वनियों का समतुल्य अनुवाद मिलता ही नहीं है फिर उनका लेखिमिक अनुवाद यानि लिप्यंतरण आदि का सहारा लेते हुए अनुवाद करना पड़ता है। कुछ पाठ ऐसे होते हैं जिनके व्याकरण का अनुवाद करना अनिवार्य होता है। जैसे किसी व्याकरणिक पाठ के अनुवाद के संदर्भ में व्याकरण का पक्ष महत्त्वपूर्ण हो जाता है। कुछ पाठ ऐसे होते हैं जिनका अनुवाद शब्दकोश के स्तर पर महत्त्वपूर्ण होता है। जैसे कुछ वैज्ञानिक पाठों के अनुवाद के संदर्भ में इन्हें देखा जा सकता है। इस लिए अनुवादक के लिए इन सभी स्तरों का अनुवाद किया जाना आवश्यक होता है। इसलिए अनुवादक को स्रोत भाषा एवं लक्ष्य भाषा की संरचनात्मक व्यवस्था और भाषिक इकाइयों का ज्ञान होना अनिवार्य होता है। तभी वह इनका सफल अनुवाद एक भाषा से दूसरी भाषा में कर सकता है।
भाषा शैली के आधार पर
भाषा शैली की दृष्टि से पाठों के कई प्रकार होते हैं। केवल साहित्य में साहित्य लेखन की शैलियाँ हर काल में अलग-अलग रही है। इसके अतिरिक्त प्रत्येक लेखक, कवि, नाटककार की लेखन शैली दूसरे से अलग होती है। ऐसे में अनुवादक के लिए यह आवश्यक होता है कि वह भाषा की शैली से भी परिचित हो। साहित्य के कुछ पाठ ऐसे हैं जिसमें एक ही पाठ में कई शैलयों का प्रयोग करते हुए लेखन किया गया है। इसका बेहतरीन उदाहरण श्रीलाल शुक्ल का उपन्यास रागदरबारी है। इस उपन्यास में भाषा के स्तर पर, बोली के स्तर पर, पात्र के स्तर पर, पात्रों की आयु वर्ग के स्तर पर, जाति के स्तर पर, शिक्षा के स्तर पर शैलियों का प्रयोग किया गया है। अब अंग्रेजी में जो अनुवाद इस उपन्यास का मिलता है उसमें इन शैलियों का अनुवाद असंभव है। इसलिए शैली के स्तर पर अनुवादक को पता होना चाहिए कि अनुवाद के कितनी संभावनाएं हैं और कितनी चुनौतियां। सुरेश कुमार ने शैलियों के आधार पर पाठ को चार रूपों में बांटा है। साहित्यिक शैली के अंतर्गत साहित्य का लेखन किया जाता है। इसमें भी कई उपवर्ग या उपप्रकार हो सकते हैं। शास्त्रीय शैली के अंतर्गत विविध प्रकार के शास्त्रीय ज्ञान-विज्ञान के शाखाओं एवं कलाओं से संबंधित पाठों का लेखन मिलता है। तकनीकी शैली के अंतर्गत वर्तमान समय के कई अनुशासन विकसित हो चुके हैं और अभी भी हो रहे हैं। आज का युग तकनीकी का युग है। यही कारण है कि तकनीकी से संबंधित शब्दावली और भाषा की शैली भी निर्मित होती जा रही है। जनसंपर्कीय शैली के अंतर्गत आज की बातचीत की शैली का उदाहरण लिया जा सकता है। जिसमें न केवल सामान्य बातचीत है बल्कि आज की मिडया, विज्ञापन आदि भी शामिल हैं। जो आज किसी एक भाषा के प्रयोग तक सीमित नहीं है। इसने एक ही वाक्य में हिंदी, अंग्रेजी, पंजाबी, बंगाली आदि कई भाषाओं, बोलियों को मिश्रित करना सीख लिया है। यह आज की शैली का उदाहरण है। इसलिए अनुवादक को इस शैली से भी परिचित होना आवश्यक है।
भाषा माध्यम के आधार पर
डॉ. सुरेश कुमार ने भाषा के माध्यम के आधार पर अनुवाद को दो रूपों में बांटा है। मौखिक और लिखित। मौखिक माध्यम के अंतर्गत अनुवाद का कार्य मौखिक स्तर पर किया जाता है। इसमें विविध देशों के बीच किए जाने वाले राजनीतिक वार्ता आदि में जो व्यक्ति दुभाषिए या इंटरप्रेटर के रूप में कार्य करता है उसके द्वारा किया गया अनुवाद मौखिक अनुवाद कहलाता है। इसके अतिरिक्त नेताओं द्वारा दिए जाने वाले भाषणों का अनुवाद, संविधान, संसद की बैठकों का अनुवाद आदि इस श्रेणी के अंतर्गत आता है। लिखित अनुवाद के अंतर्गत विविध प्रकार की साहित्यिक विधाओं, साहित्यिक कृतियों, ज्ञान-विज्ञान की शाखाओं से संबंधित कृतियों का लिखित पाठ के रूप में किया अनुवाद लिखित अनुवाद कहलाता है।
भाषा प्रतीक के आधार पर
भाषा प्रतीकों के आधार पर भी अनुवादों का वर्गिकरण किया है। यह अनुवाद तीन प्रकार का होता है। समभाषिक अनुवाद अर्थात एक ही भाषा में किया हुआ अनुवाद। अन्यभाषिक अनुवाद अर्थात दो भाषाओं में किया हुआ अनुवाद। अंतरप्रतीकात्मक अनुवाद अर्थात एक भाषिक प्रतीक से अन्य प्रतीक व्यवस्था के बीच में किया हुआ अनुवाद।
भाषा पाठ के आधार पर
भाषा पाठ के आधार पर अनुवाद को दो रूपों में बांटा गया है। गद्यनुवाद और पद्यानुवाद।
- गद्यनुवाद के अंतर्गत किसी भी पाठ का गद्य रूप में अनुवाद किया जाता है। इसमें भाषा एक ही हो सकती या दो भाषाएं भी हो सकती हैं। इसमें गद्य पाठ का गद्य रूप में अनुवाद हो सकता है अथवा किसी पद्य पाठ का भी गद्य रूप में अनुवाद किया जा सकता है।
- पद्यानुवाद के अंतर्गत भी किसी एक ही भाषा के बीच में अनुवाद किया जा सकता है अथवा दो भाषाओं के बीच भी। इसमें पद्य से पद्य में या गद्य से पद्य में अनुवाद किया जा सकता है।
पाठ की प्रकृति के आधार पर
पाठ की प्रकृति के आधार पर भी अनुवाद के प्रकारों की चर्चा की गई है। इसके अंतर्गत अनुवाद के लिए पाठों को दो रूपों में विभाजित किया गया है। पाठ की प्रकृति के आधार पर अनुवाद के प्रकार
निम्नलिखित हैं-
- सृजनात्मक साहित्य के आधार पर : सृजनात्मक साहित्य से अर्थ है वह पाठ जिसके अंतर्गत सृजन की आवश्यकता होती है। अनुवाद के इस प्रकार का संबंध पूर्णतः साहित्य से होता है। साहित्य की विविध विधाओं जैसे कविता, कहानी, उपन्यास, नाटक, एकांकी, रेखाचित्र, संस्मरण, डायरी लेखन, रिपोतार्ज़ लेखन आदि का अनुवाद इस श्रेणी में आता है। इन सभी तरह के साहित्य की विशेषताएं, गुण, भाव, शैली, व्याकरण, कलात्मक सौंदर्य आदि अलग-अलग होता है। इसलिए इन पाठों का अनुवाद करने से पूर्व अनुवादक को न केवल इन पाठों एवं विधाओं की समझ होनी चाहिए बल्कि लक्ष्य भाषा में इस सभी बिंदुओं को अनूदित करने की विशेष क्षमता भी होनी चाहिए। अनुवाद के क्षेत्र में इन पाठों के अनुवाद के लिए अनुवादक में सृजनात्मकता का होना अतिअनिवार्य होता है। इसलिए इसे सृजनात्मक साहित्य कहा गया है।
- वैज्ञानिक साहित्य के आधार पर : वैज्ञानिक साहित्य जैसे ज्ञान-विज्ञान से संबंधित विविध अनुशासन, अनुशासन की शाखाएं आदि इस तरह के साहित्य के अंतर्गत आती है। इनमें विज्ञान के विविध प्रकार जैसे जीव विज्ञान, रसायन विज्ञान, भौतिक विज्ञान, मानव विज्ञान, जैव विज्ञान, वनस्पति विज्ञान आदि, खगोल, भूगोल, सामाजिक विज्ञान, इतिहास, वाणिज्य, विज्ञापन, कार्यालय, प्रशासन, बैंकिंग, कानून, स्वास्थ्य, चिकित्सा, तकनीकी, सूचना, मीडिया, कृषि आदि से संबंधित साहित्य का या पाठों का अनुवाद एक भाषा से दूसरी भाषा में किया जाता है। इसके लिए अनिवार्य होता है अनुवादक को इन पाठों की पारिभाषिक शब्दावली, शब्दकोश, व्याकरण, भाषा की संरचना आदि का बेहतर ज्ञान हो। तभी वह एक भाषा से दूसरी भाषा में अनुवाद करने में सफल हो सकता है।
अनुवाद के अन्य प्रकार
उपरोक्त अनुवाद प्रकारों के अतिरिक्त अन्य प्रकारों के रूप में अनुवाद के कुछ विशेष प्रकारों की चर्चा की गई है। अनुवाद के ये प्रकार अनुवाद के क्षेत्र में विशेष स्थान रखते हैं। इन प्रकारों का एक
अलग दृष्टि से भी अध्ययन-अध्यापन किया जाता है। इनकी चर्चा निम्नलिखित है-
- शब्दानुवाद : इस अनुवाद के अंतर्गत स्रोत भाषा पाठ में आए शब्दों के क्रम में ही लक्ष्य भाषा में अनूदित किया जात है। इसमें शब्दों का अनुवाद महत्त्वपूर्ण होता है। इसलिए इसे शब्दानुवाद कहा जाता है। पारिभाषिक शब्दावली के निर्माण के क्षेत्र में शब्दानुवाद ही महत्त्वपूर्ण है। इसके अतिरिक्त किसी भी नए ज्ञानुनशासन का किसी एक भाषा से दूसरी भाषा में परिचय कराया जाता है तो उसके अनुवाद रूप में पहले शब्दानुवाद करके उसका शब्दकोश तैयार किया जाता है। उस विषय का शब्दकोश या पारिभाषिक शब्द निर्मित हो जाने के बाद ही अर्थ के स्तर पर उसका अनुवाद किया जाता है। शब्द के आधार पर किया जाने वाला अनुवाद शब्दानुवाद कहलाता है।
- भावानुवाद : अनुवाद का वह प्रकार जो भाव आधारित हो। स्रोत भाषा के पाठ का अनुवाद जब भाव के आधार पर लक्ष्य भाषा में किया जाता है तो उस अनुवाद को भावानुवाद कहते हैं। भावानुवाद के रूप में साहित्यिक पाठों का अनुवाद विशेष रूप से किया जाता है।
- छायानुवाद: किसी कृति की छाया का अनुवाद यदि एक भाषा से दूसरी भाषा में किया जाता है तो उस अनुवाद को छायानुवाद कहा कहा जाता है। उमर खैयाम की रुबाइयत का अनुवाद फिट्जेराल्ड द्वारा किया गया और फिर हरिवंश राय बच्चन ने इन पाठों के माध्यम से मधुशाला की रचना की। इन्होंने खैयाम की रुबाइयत के छायानुवाद के रूप में मधुशाला की रचना की। इसलिए इस अनुवाद को यानि मधुशाला को छायानवाद माना जा सकता है।
- व्याख्यानुवाद : विविध प्रकार के धार्मिक पाठों का अनुवाद विविध भाषाओं में व्याख्या रूप में किया गया है। जैसे- गीता का व्याख्यानुवाद न केवल संस्कृत में किया गया है अपितु हिंदी, अंग्रेजी एवं विश्व की लगभग सभी भाषाओं में इसका जो अनुवाद प्रस्तुत है वह व्याख्यानुवाद ही है। इसके अतिरिक्त हिंदी साहित्य के विविध भक्ति कालीन कवियों, रितिकालीन कवियों आदि के दोहों आदि का अनुवाद व्याख्यानुवाद के रूप में ही एक भाषा से दूसरी भाषा में किया गया है।
- सारानुवाद : स्रोत भाषा के पाठ का लक्ष्य भाषा में जब सार रूप में अनुवाद किया जाता है तो वह सारानुवाद कहलाता है। सारानुवाद का प्रयोग न केवल साहित्यिक पाठों के अनुवाद में किया जाता है बल्कि साहित्येतर अनुवाद के क्षेत्र में भी किया जाता है। विविध प्रकार के साहित्यिक पाठों पर लिखी जाने वाली समीक्षाएं, या सारांश आदि सारानुवाद के उदाहरण हैं। इसके अतिरिक्त कार्यालयी कार्यव्यवहार में, दुभाषिए द्वारा किए जाने वाले अनुवाद, विभिन्न बैठकों पर तैयार की जाने वाली मिनट्स आदि सारानुवाद का उदाहरण हैं।
- रूपांतरण : रूपांतरण अनुवाद के अंतर्गत पाठ का पूरा रूप ही बदल जाता है। इस अनुवाद का प्रयोग साहित्य के अनुवाद में किया जाता है। कई साहित्यिक पाठों के अनुवाद अपनी गुणवत्ता और रूपांतरण की सफलता के कारण मूल पाठ की तुलना में ज़्यादा चर्चित रहें हैं। साहित्य में इसके कई उदाहरण हैं।
- मशीनी अनुवाद : मशीनी अनुवाद का संदर्भ कुछ दशकों पूर्व विकसित हुआ है। लेकिन तकनीकी विकास के कारण इस क्षेत्र में अभूतपूर्ण तेजी आई है। विश्व के सभी देश मशीनी अनुवाद के क्षेत्र में शोध कार्य एवं परियोजनाएं संचालित कर रहे हैं। मशीनी अनुवाद के माध्यम से विश्व ज्ञान-विज्ञान और साहित्य को सभी भाषाओं में उपलब्ध कराया जा सकता। यही कारण है कि भारत में भी इस दिशा में बहुत बड़े पैमाने पर काम किया जा रहा है। भारत के सभी भाषाओं में कार्पस निर्माण का काम बड़ी तेजी से हो रहा। जिसके माध्यम से अनुवाद की शुद्धता को बढ़ाया जा सके। भारत में बोलियों के विस्तार, अनेकार्थकता, शब्द सौंदर्य, अभिधा, लक्षणा, व्यंजना, लेखन शैलियाँ आदि की दृष्टि से मशीनी अनुवाद कठिन है लेकिन ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में कॉर्पस की संख्या बढ़ने के साथ-साथ गुणवत्ता भी बढ़ती जा रही है। इसलिए मशीनी अनुवाद की दिशा में प्राकृतिक भाषा संसाधन, कृत्रिम भाषा, कृत्रिम बुद्धि आदि के माध्यम से नए-नए आयामों को जोड़ा जा रहा है। तकनीकी क्रांति की दृष्टि से मशीनी अनुवाद का भविष्य अपर संभावनाओं से भरा हुआ है।
सारांश
अनुवाद के आयाम की तरह ही अनुवाद प्रकार भी बहुत विस्तृत हैं। आज अनुवाद का क्षेत्र मनुष्य के जीवन के सभी पहलुओं से जुड़ा हुआ है। कुछ बिंदुओं को हम प्रत्यक्षतः समझ लेते हैं लेकिन कुछ बिंदु ऐसे हैं जो हमारी समझ में नहीं आते लेकिन वो भी अनुवाद से जुड़े होते हैं। यही कारण है कि अनुवाद के प्रकार दिन-प्रतिदिन हमारी आवश्यकताओं की दृष्टि से बढ़ते जा रहे हैं। आज अनुवाद एक ऐसा अनुशासन या अध्ययन का क्षेत्र है जहां पर नौकरियों की दृष्टि से भी अपर संभावनाएं हैं।
साहित्यिक अनुवाद के क्षेत्र में यदि भाषा ज्ञान सुदृढ़ है और यदि आपकी रुचि भी है तो अपर साहित्य अनुवाद के लिए पड़ा हुआ है। इस लिए वर्तमान जरूरत को देखते हुए कहा जा सकता है अनुवाद के प्रकारों को सीमित नहीं किया जा सकता।
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