मध्य प्रदेश की मिट्टियाँ - Soil of Madhya Pradesh
चट्टानों के विघटन एवं वियोजन से उत्पन्न होने वाले ढीले एवं असंगठित पदार्थों को मिट्टी कहते हैं। इस प्रदेश के अधिकांश क्षेत्रों में प्रौढ़ मिट्टी पाई जाती है। यह मिट्टी, चट्टान व जीवाश्म के मिश्रण से बनती है।
- किसी भी प्रदेश की वनस्पति और कृषि के स्वरूप को निर्धारित करने वाले कारकों में मिट्टी सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है। मिट्टी निर्माण की प्रकृति में पाँच मुख्य कारक सहयोगी होते हैं, जैसे- स्थानीय जलवायु, जैविक पदार्थ, आधारभूत चट्टान, स्थलाकृति और मिट्टी के विकास की अवधि। जलवायु और अपक्षय, अपरदन के क्रियाशील कारक हैं।
- यह भू-पर्पटी के ऊपरी भाग में पाई जाती है जो सजीव और निर्जीव पदार्थों से युक्त होती है।
मिट्टी का स्वरूप (Nature of soil)
- मध्य प्रदेश भारत के दक्षिणी प्रायद्वीप का वह भू-भाग है, जहाँ विस्तृत भाग में अवशिष्ट मिट्टी पाई जाती है।
- मिट्टी के प्रकृति निर्धारण के लिये यहाँ की चट्टानों का महत्त्वपूर्ण योगदान है। इसलिये यहाँ की मिट्टियों में जैव पदार्थ सर्वाधिक रूप में मिलते हैं।
मिट्टी का वर्गीकरण | ||||
काली मिट्टी | लाल और पीली मिट्टी | जलोढ़ मिट्टी | कछारी मिट्टी | मिश्रित मिट्टी |
काली मिट्टी
- काली मिट्टी को रेगुर मिट्टी भी कहा जाता है। काली मिट्टी का निर्माण बेसाल्ट नामक आग्नेय चट्टान से हुआ है इस मिट्टी में लोहे और चूने की अधिकता होती है। इस मिट्टी का काला रंग लोहे की अधिकता के कारण होता है।
- काली मिट्टी में नाइट्रोजन, फॉस्फोरस तथा जैव तत्त्वों की कमी होती है।
- इस मिट्टी में पानी पड़ने पर चिपचिपी हो जाती है तथा सूखने पर दरारें पड़ जाती हैं।
- कपास की खेती के लिये यह मिट्टी सर्वाधिक उपयुक्त होती है।
रंग तथा मोटाई के आधार पर इस मिट्टी को निम्न तीन वर्गों में विभाजित किया जाता है-
1. गहरी काली मिट्टी
- इस मिट्टी का विस्तार नर्मदा घाटी, सतपुड़ा पठार और मालवा के क्षेत्रों में है।
- यह काली मिट्टी के कुल क्षेत्र का लगभग 3.5 प्रतिशत भूमि अर्थात् 35 लाख एकड़ क्षेत्रों में विस्तृत है।
- इसमें चिकनी मिट्टी की मात्रा 20% से 60% तक होती है। इस मिट्टी की गहराई 1 से 2 मी. तक है।
- यह मिट्टी गेहूँ, चने, तिलहन तथा ज्वार की खेती के लिये बहुत उपयोगी है।
2. साधारण गहरी काली मिट्टी
- काली मिट्टी का अधिकांश भाग इसी वर्ग के अंतर्गत आता है, जिसमें निमाड़ प्रदेश और मालवा के पठार का संपूर्ण उत्तरी भाग सम्मिलित है।
- प्रदेश में लगभग 400 लाख एकड़ या राज्य के लगभग 37 प्रतिशत भू-भाग पर यह मिट्टी पाई जाती है।
- यह मिट्टी 15 सेमी. से 1 मी. तक की गहराई में पाई जाती है।
- इसका रंग भूरा एवं हल्का काला होता है।
3. छिछली काली मिट्टी
- यह मिट्टी चिकनी दोमट मिट्टी होती है। सतपुड़ा श्रेणी का ज़्यादातर भाग छिछली मिट्टी से आच्छादित है। यह मिट्टी मुख्य रूप से छिंदवाड़ा, सिवनी तथा बैतूल जिलों में पाई जाती है।
- इसका क्षेत्रफल लगभग 75 लाख एकड़ अथवा राज्य का 7.1 प्रतिशत है।
- इस मिट्टी के अंतर्गत रबी व खरीफ दोनों ही प्रकार की फसलें उत्पादित की जाती हैं। इनमें सिंचाई की अधिक आवश्यकता नहीं होती है। जैसे- गेहूँ, ज्वार, कपास, तिलहन एवं दालें इत्यादि।
लाल और पीली मिट्टी
- इस मिट्टी का निर्माण आर्कियन, धारवाड़ एवं गोंडवाना क्रम की चट्टानों के अपरदन के द्वारा हुआ है।
- मध्य प्रदेश का संपूर्ण पूर्वी भाग बघेलखंड क्षेत्र में स्थित है। यहाँ पर लाल तथा पीली मिट्टी पाई जाती है, इसके अंतर्गत मंडला, बालाघाट, शहडोल जिले आते हैं।
- इस मिट्टी का लाल रंग रवेदार तथा कायांतरित चट्टानों में लोहे के व्यापक विसरण के कारण होता है। जलयोजित होने के कारण यह पीली दिखाई पड़ती है।
- इस मिट्टी में नाइट्रोजन, फॉस्फोरस और हयूमस की कमी होती है, जिसके कारण यह मिट्टी अपेक्षाकृत कम उर्वर होती है।
- इस मिट्टी में धान की कृषि अधिक की जाती है।
जलोढ़ मिट्टी
- लाल मिट्टा, मध्य प्रदेश के उत्तर-पश्चिम क्षेत्रों में पाई जाती है। इस मिट्टी का निर्माण बुंदेलखंड के नीस एवं चंबल जसा नदियों द्वारा निक्षेपित पदार्थों से हुआ है, जिसका क्षेत्रफल लगभग 30 लाख एकड़ है। यह उपजाऊ मिट्टी है।
- इस मिट्टी में जैव तत्त्व, नाइटोजन एवं फॉस्फोरस की कमी होती है, परंतु पोटाश एवं चूना समुचित मात्रा में पाया जाता है।
- जलोढ़ मिट्टी में बालू की अधिकता होती है, उर्वरता अधिक होने के फलस्वरूप इस मिट्टी में गेहूँ, कपास एवं गन्ना आदि फसलें उगाई जाती हैं।
- यह मिट्टी मध्य प्रदेश के भिंड, मुरैना, शिवपुरी तथा ग्वालियर जिलों में पाई जाती है।
कछारी मिट्टी
- बाढ के दौरान नदियों द्वारा अपने अपवाह क्षेत्र में बिछाई गई मिट्टी को 'कछारी मिट्टी' कहा जाता है।
- चंबल एवं उसकी सहायक नदियों द्वारा इस मिट्टी का विस्तार मुख्य रूप से ग्वालियर, भिंड एवं मुरैना में पाया जाता है।
- कछारी मिट्टी गन्ना, गेहूँ, तिलहन तथा कपास की फसल के लिये उपयोगी होती है।
मिश्रित मिट्टी
- यह मिट्टी प्रदेश के कई क्षेत्रों में पीली, लाल एवं काली मिट्टी के मिश्रित रूप में मिलती है।
- यह मिट्टी मुख्यतः बुंदेलखंड क्षेत्र में पाई जाती है।
- मिश्रित मिट्टी में नाइट्रोजन, फॉस्फेट एवं कार्बनिक पदार्थों की कमी रहती है, जिसके परिणामस्वरूप इस मिट्टी में उर्वरता शक्ति कम होती है।
- इस मिट्टी में मोटे अनाज जैसे मक्का, ज्वार आदि फसलें उगाई जाती हैं।
मिट्टी अपरदन
- वर्षा अथवा जल बहाव एवं अपरदन के भिन्न-भिन्न कारकों द्वारा मिट्टी के बारीक कणों का कट-कटकर बहना मिट्टी अपरदन कहलाता है।
- अपरदन द्वारा नष्ट हुई मिट्टी में वनस्पति व कृषि के लिये उर्वरा शक्ति में कमी हो जाती है। इसके परिणामस्वरूप इन क्षेत्रों में उर्वरता एवं उत्पादन में काफी गिरावट देखी जाती है।
- चंबल एवं नर्मदा घाटी में मिट्टी अपरदन की समस्या है। चंबल नदी भिंड, मुरैना, श्योपुर जिलों में अवनालिका अपरदन द्वारा मिट्टी का अपरदन करती है।
- मुरैना जिला सर्वाधिक मिट्टी अपरदन से प्रभावित है।
- मिट्टी अपरदन को रोकने हेतु राज्य के कृषि विभाग एवं विश्व बैंक द्वारा नई नीति का क्रियान्वयन किया जा रहा है।
- मिट्टी के अपक्षरण को रेंगती हुई मृत्यु कहते हैं।
मिट्टियाँ एवं संबंधित क्षेत्र | |||
मिट्टी | क्षेत्र | जिले | मुख्य फसल |
जलोढ़ मिट्टी | उत्तरी-पश्चिमी मध्य प्रदेश | मुरैना, ग्वालियर, भिंड, शिवपुरी, श्योपुर | गेहूँ, गन्ना, कपास |
लाल-पीली मिट्टी | बुंदेलखंड पठार का पूर्वी भाग | मंडला, बालाघाट, शहडोल आदि हिस्सा | गेहूँ, चावल, कपास |
गहरी काली मिट्टी | मालवा पठार, सतपुड़ा क्षेत्र | होशंगाबाद, हरदा | तिलहन, चना |
छिछली काली मिट्टी | सतपुड़ा क्षेत्र | सिवनी, छिंदवाड़ा, बैतूल | गेहूँ, चावल |
साधारण गहरी काली मिट्टी | उत्तरी मालवा पठार, निमाड | गुना, सीहोर, शाजापुर, उज्जैन, विदिशा, भोपाल, रायसेन आदि | गेहूँ, मूंगफली, कपास, ज्वार |
कछारी मिट्टी | पठारी क्षेत्रों में | ग्वालियर, भिंड, मुरैना | गेहूँ, गन्ना, कपास |
मिश्रित मिट्टी | पठारी क्षेत्रों में | पन्ना, टीकमगढ़, सतना, रीवा, सीधी आदि। | ज्वार, बाजरा (मोटे अनाज) |
मध्यप्रदेश में मृदा अपरदन
- प्राकृतिक कारक
- मानवजनित कारक
मृदा अपरदन के प्राकृतिक कारक
प्राकृतिक की शक्तियां जब भूमि के ऊपरी आवरण को नष्ट कर देती हैं तो इसे भूमि अपरदन कहते हैं। मिट्टी की उपजाऊ परत वायु और जल द्वारा बह या उड़ाकर ले जाई जाती है तथा इसका प्रभाव प्रत्यक्ष रूप से कृषि व्यवस्था पर पड़ता है।
ये कारक इस प्रकार हैं
जलवायु
- अतिगहन एवं दीर्घकालिक वर्षा मृदा के भारी अपरदन का कारण बनती हैं। खाद्य एवं कृषि संगठन के अनुसार, वर्षा की मात्रा, सघनता, ऊर्जा एवं वितरण तथा तापमान में परिवर्तन इत्यादि महत्त्वपूर्ण निर्धारक कारक हैं। वर्षा की गतिक ऊर्जा मृदा की प्रकृति के साथ गहरा संबंध रखती है
- तापमान मृदा अपरदन की दर एवं प्रकृति को अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करता है।
- मृदा की बदलती हुई शुष्क एवं नम स्थितियों का परिणाम मृदा के पतले आवरण के निर्जलीकरण और जलीकरण के रूप में सामने आता हैं इससे मृदा कणों का विस्तार होता हैं और मृदा में दरारें पड़ जाती है।
- भू-स्थलाकृतिक कारक : इनमें सापेक्षिक उच्चावच, प्रवणता, ढाल इत्यादि पहलू शामिल हैं। सतही जल का प्रवाह वेग तथा गतिक ऊर्जा गहन प्रवणता में बदल जाती है। अधिक लम्बाई वाले ढालों पर कम लम्बाई वाले ढालों की तुलना में मृदा अपरदन भूगर्भिक अपरदन से ज्यादा निकटता रखते हैं।
प्राकृतिक वनस्पति
- यह एक प्रभावी नियंत्रक कारक है, क्योंकि -
- वनस्पति वर्षा को अवरोधित करके भूपर्पटी को वर्षा बूंदों के प्रत्यक्ष प्रभाव से बचाती है।
- वर्षा जल के प्रवाह को नियंत्रित करके वनस्पति उसे भू- सतह के भीतर रिसने का अवसर देती है।
- पौधों की जड़ें मृदा कणों के पृथक्करण एवं परिवहन की दर को घटाती हैं।
- जड़ों के प्रभाव के फलस्वरूप कणिकायन, मृदा क्षमता एवं छिद्रता में बढ़ोत्तरी होती हैं।
- मृदा वनस्पति के कारण उच्च एवं निम्न तापमान के घातक प्रभावों से बची रहती है, जिससे उनमें दरारें विकसित नहीं होती।
- वनस्पति पवन गति को धीमा करके मृदा अपरदन में कमी लाती है।
मृदा प्रकृति
मृदा की अपरदनशीलता का संबंध इसके भैतिक व रासायनिक गुणों, जैसे- कणों का आकार, वितरण, ह्यूमस अंश, संरचना, पारगम्यता, जड़ अंश, क्षमता इत्यादि से होता है। फसल एवं भूमि प्रबंधन भी मृदा अपरदन को प्रभावित करता है।
एफएओ के अनुसार मृदा कणों की अनासक्ति, परिवहनता तथा अणु आकर्षण और मृदा की आर्द्रता धारण क्षमता व गहराई मृदा अपरदन को प्रभावित करने वाले महत्त्वपूर्ण कारक हैं।
वायु वेग
मजबूत एवं तेज हवाओं में अपरदन की व्यापक क्षमता होती है इस प्रकार वायु वेग का अपरदन की तीव्रता के साथ प्रत्यक्ष आनुपातिक संबंध हैं।
मृदा अपरदन के मानवजनित कारक
मृदा अपरदन को रेंगती हुई मृत्यु भी कहा जाता है। मदा अपरदन के कारण प्रत्यक्ष रूप से अनुचित भूमि उपयोग के साथ जुड़े हैं, जो पूर्णतः मानव निर्मित हैं।
इनके अंतर्गत निम्नलिखित को शामिल किया जा सकता है-
- दोषपूर्ण कृषि पद्धतियां : ढालों पर स्थित वनों को भी पौध फसलें उगाने के क्रम में साफ किया जा चुका है। इस प्रकार की त्रुटिपूर्ण कृषि पद्धतियों के कारण मृदा अपरदन में तेजी आती है। इन क्षेत्रों में भूस्खलन एक सामान्य लक्षण बन जाता है।
- झूम कृषि : झूम कृषि पारिस्थितिक रूप से विनाशकारी तथा अनार्थिक कृषि पद्धति हैं। झूम कृषि को उत्तर-पूर्व के पहाड़ी क्षेत्रों छोटानागपुर, ओडीशा, मध्यप्रदेश तथा आंध प्रदेश में विशेषतः जनजातियों द्वारा प्रयुक्त किया जाता है।
- मध्यप्रदेश में भील जनजाति द्वारा की जाने वाली झूम कृषि को चिमाता कहा जाता है, ये कृषि पहाड़ी ढालों पर की जाती है।
- अति चराई : हमारे देश में पालतू पशुओं की संख्या का एक बड़ा अधिशेष घास एवं चारे की कमी के लिए जिम्मेदार है। पशुओं के पद चिन्ह मृदा को कठोर बना देते हैं, जिससे नई घास का उगना बंद हो जाता है। पंजाब, हिमाचल प्रदेश तथा अरावली क्षेत्र में बकरियों द्वारा की जाने वाली अति चराई एक गंभीर समस्या बन चुकी है, बकरियों पत्तियों और शाखाओं को चबाने के साथ-साथ घोस को भी जड़ समेत उखाड़ देती हैं, जबकि भेड़ें मात्र घास के ऊपरी तिनकों की चराई करती हैं।
- इसी प्रकार अतिचराई से मध्य प्रदेश में भी मृदा का ह्रास हो रहा है जिस पर नियंत्रण हेतु अनेक सरकारी योजनाएं चलाई जा रही है जैसे-मृदा स्वास्थ्यकाड आदि।
- रेल मार्ग एवं सड़कों के निर्माण हेतु प्राकृतिक अपवाह तंत्रों का रूपांतरण : रेल पटरियों एवं सड़कों को इस प्रकार बिछाया जाना चाहिए कि वे आस-पास की भूमि से ऊंचे स्तर पर रहें किन्तु कभी-कभी रेल पटरिया एवं सड़कें प्राकृतिक अप्रवाह तंत्रों के मार्ग में बाधा बन जाते हैं। इससे एक ओर जलाक्रांति तथा दूसरी ओर जल न्यूनता की समस्या पैदा होती है। ये सभी कारक एक या अधिक तरीकों से मृदा अपरदन में अपना योगदान देते हैं।
- दावानल : कभी-कभी जंगल में प्राकृतिक कारणों से आग लग जाती हैं, किंतु मानव द्वारा लगायी गयी आग अपेक्षाकृत अधिक विनाशकारी होती है। इसके परिणामस्वरूप वनावरण सदैवे के लिए लुप्त हो जाता है तथा मिट्टी अपरदन की समस्या से ग्रस्त हो जाती है।
मृदा अपरदन के दुष्परिणाम
- आकस्मिक बाढ़ों का प्रकोप।
- नदियों के मार्ग में बालू एकत्रित होने से जलधारा का परिवर्तन तथा उससे अनेक प्रकार की हानिया।
- कृषि योग्य उर्वर भूमि का नष्ट होना।
- आवरण अपरदन के कारण भूमि की उर्वर ऊपरी परत का नष्ट होना।
- भौम जल स्तर गिरने से जल सिंचाई के लिए जल में कमी होना।
- शुष्क मरूभूमि का विस्तार होने से स्थानीय जलवायु पर प्रतिकूल प्रभाव एवं परोक्ष रूप से कृषि पर दुष्प्रभाव।
- वनस्पति आवरण नष्ट होने से इमारती व जलाऊ लकड़ी की समस्या तथा वन्य जीवन पर दुष्प्रभाव।
- भूस्खलन से सड़कों का विनाश आदि।
परीक्षोपयोगी महत्त्वपूर्ण तथ्य
- मध्य प्रदेश की जलवायु मानसून पर निर्भर करती है अर्थात् मध्य प्रदेश में मानसूनी प्रकार की जलवायु है।
- मौसम संबंधी आँकड़ों को एकत्रित करने वाली ऋतु वेधशाला इंदौर में है।
- मध्य प्रदेश का सबसे गर्म स्थान खजुराहो तथा सबसे ठंडा स्थान शिवपुरी उत्तर के मैदानी क्षेत्र में स्थित है।
- सर्वाधिक तापमान गंजबसौदा (विदिशा) में 1955 में 48 डिग्री मापा गया। 2008-12 सर्वाधिक, तापमान खजुराहो बादबानी तथा 2013 में छतरपुर जिले के खजुराहों व नौगाँव में दर्ज किया गया है।
- मध्य प्रदेश में ग्रीष्म ऋतु को यूनाला, वर्षा ऋतु को चौमासा तथा शीत ऋतु को सिथाला कहते हैं।
- कर्क रेखा के समीप होने के कारण नर्मदा घाटी क्षेत्र में ग्रीष्म ऋतु अत्यधिक गर्म तथा शीतऋतु में साधारण ठंडी रहती है।
- प्रदेश में औसत वर्षा 112 सेमी. होती है। सर्वाधिक वर्षा होशंगाबाद के पंचमढ़ी में 199 सेमी. तथा न्यूनतम वर्षा भिंड में 55 सेमी. होती है।
- प्रदेश में अधिकांश वर्षा दक्षिण-पश्चिम मानसून से होती है।
- प्रदेश के विंध्य क्षेत्र में बंगाल की खाड़ी और अरब सागर शाखा दोनों से वर्षा होती है।
- साढ़े 82° पूर्वी देशांतर (IST) मध्य प्रदेश के पूर्वी सीमांत ज़िला सिंगरौली से गुज़रती है।
- मध्य प्रदेश की उत्खात भूमि (बैडलैंड) अवनलिका अपरदन का परिणाम है। प्रदेश में चंबल नदी के द्वारा इस प्रकार का अपरदन होता है। दरअसल चंबल तथा उसकी सहायक नदियों के किनारे एक चौड़ी पेटी अत्यधिक गहरे खड्डों में परिवर्तित हो गई है, जिसे बीहड़ या उत्खात भूमि कहते हैं।
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