राजनीति विज्ञान के अध्ययन की पद्धतियाँ | Study Methods of Political Science in Hindi

राजनीति विज्ञान के अध्ययन की पद्धतियाँ

राजनीति विज्ञान का अध्ययन करते समय यह कठिनाई आती है कि इसका अध्ययन किस प्रकार किया जाये अर्थात् अध्ययन के लिए कौन-सी ऐसी पद्धति अपनाई जाये जिसके अनुसार राजनीतिक सामग्री को एकत्रित किया जा सके और फिर उसे व्यवस्थापूर्वक रखा जा सके।
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इस कठिनाई को दूर करने के लिए तथा राजनीति विज्ञान के अन्तर्गत व्यवस्थित ज्ञान प्राप्त करने के लिए अध्ययन-पद्धतियों कोदो भागों में विभाजित किया गया है-
  1. परम्परागत अध्ययन पद्धतियाँ तथा
  2. आधुनिक अध्ययन पद्धतियाँ।

परम्परागत अध्ययन पद्धतियाँ

राजनीति विज्ञान के अन्तर्गत परम्परागत अध्ययन की निम्न पाँच पद्धतियाँ प्रचलित हैं-
  • पर्यवेक्षणात्मक पद्धति
  • ऐतिहासिक पद्धति
  • तुलनात्मक पद्धति
  • प्रयोगात्मक पद्धति, तथा
  • दार्शनिक पद्धति।

1. पर्यवेक्षणात्मक पद्धति
पर्यवेक्षणात्मक अध्ययन पद्धति, वह पद्धति है जिसमें अध्ययनकर्ता स्वयं अत्यन्त निकट से राज्य के संगठन, कार्यकलापों, राजनीतिक घटनाचक्रों एवं संस्थानों का पर्यवेक्षण कर राजनीतिक सिद्धान्तों की स्थापना करता है। वर्तमान युग में पर्यवेक्षणात्मक पद्धति का राजनीति विज्ञान के अध्ययन में अधिकाधिक प्रयोग किया जाता है।
जेम्स ब्राइस ने इस पद्धति का प्रयोग कर 'अमरीकन संघ' तथा 'आधुनिक प्रजातन्त्र' नामक महान ग्रन्थों की रचना की। मॉण्टेस्क्यू ने अपनी पुस्तक 'स्प्रिट ऑफ लॉज' की रचना इसी पद्धति के आधार पर की है। वैब दम्पत्ति (सिडनी और बैट्रिस वैब) ने इसी पद्धति का प्रयोग कर 'सोवियत कम्यूनिज्म' नामक ग्रन्थ की रचना की है। जॉन गन्थर ने एशिया, अफ्रीका और यूरोप के विभिन्न देशों का भ्रमण कर 'इनसाइड एशिया', 'इनसाइड अफ्रीका' तथा 'इनसाइड यूरोप' नामक पुस्तकों की रचना की है।
व्यावहारिक रूप से यह पद्धति अत्यन्त उपयोगी है क्योंकि अध्ययनकर्ता स्वयं देखकर और स्वतः अनुभव प्राप्त करके तर्क द्वारा निष्कर्ष निकालता है। अतः इसका वास्तविकता से प्रत्यक्ष सम्बन्ध होता है । प्रेसीडेण्ट लॉवेल ने भी इस पद्धति की उपयोगिता बताते हुए कहा है कि "राजनीति पर्यवेक्षणात्मक विज्ञान है, प्रयोगात्मक नहीं। राजनीतिक संस्थाओं की वास्तविक कार्यविधि की प्रयोगशाला पुस्तकालय नहीं वरन् राजनीतिक जीवन सम्बन्धी बाहरी विश्व है।

सीमाएँ (Limitations) - इस पद्धति की सीमाएँ निम्नांकित हैं-
  • सभी राजनीतिक अध्ययनकर्ताओं को विभिन्न देशों में स्वयं जाकर पर्यवेक्षण करने के अवसर प्राप्त नहीं हो पाते हैं। अतः यह सर्वसुलभ पद्धति नहीं है।
  • यदि स्वयं पर्यवेक्षण करने के अवसर प्राप्त भी हो जायें तो भी यह आवश्यक नहीं है कि उसके निष्कर्ष पूर्णरूपेण शुद्ध हों। जैसे-मॉण्टेस्क्यू ने इंग्लैण्ड जाकर वहाँ की शासन व्यवस्था का अध्ययन कर यह निष्कर्ष निकाला कि वहाँ शक्तियों का पृथक्करण पाया जाता है जो कि पूर्णरूपेण गलत है।

सावधानियाँ (Precautions) -
  1. अध्ययनकर्ता का अध्ययन वास्तविक तथ्यों और घटनाओं पर आधारित होना चाहिए क्योंकि सामान्य अनुमानों पर आधारित तथ्य और घटनाएँ सत्यता की कसौटी पर खरी नहीं उतरतीं।
  2. अध्ययनकर्ताओं का दृष्टिकोण पक्षपातरहित तथा उदार होना चाहिए। उसके निष्कर्ष निष्पक्ष होने चाहिए।
  3. पर्यवेक्षण एकांगी तथा क्षणिक नहीं होना चाहिए। पहले सभी सम्बन्धित आवश्यक तथ्यों को एकत्र करना चाहिए, तत्पश्चात् इनकी व्याख्या की जानी चाहिए।

2. ऐतिहासिक पद्धति
राजनीति विज्ञान में राज्य के भूत, वर्तमान तथा भविष्य का अध्ययन किया जाता है। ऐतिहासिक पद्धति द्वारा हम राज्य एवं उसकी संस्थाओं के भूतकालीन स्वरूप का अध्ययन कर उसके वर्तमान स्वरूप का ज्ञान प्राप्त करते हैं तथा भविष्य में आदर्शात्मक स्वरूप के सम्बन्ध में निष्कर्ष निकालते हैं।
गिलक्राइस्ट के शब्दों में, “इतिहास न केवल संस्थाओं की व्याख्या करता है वरन् यह भविष्य के पथ-प्रदर्शन हेतु निष्कर्ष प्राप्त करने में भी सहायक होता है। यह वह धुरी है जिसके चारों ओर राजनीति विज्ञान की आगमनात्मक तथा निगमनात्मक दोनों ही प्रक्रियाएँ कार्य करती हैं।"
राजनीति विज्ञान के अध्ययन के लिए यह पद्धति बहुत उपयोगी है। अरस्तू, लॉस्की, मैकियावली, मॉण्टेस्क्यू, हीगल, कार्ल मार्क्स, मैक्स वेबर, कॉम्टे, हरबर्ट स्पेन्सर और मार्गन जैसे विद्वानों ने इस पद्धति का प्रयोग किसी-न-किसी रूप में अवश्य किया है। ऐतिहासिक पद्धति की उपयोगिता के सम्बन्ध में जिमर्न का कथन है कि "यह भूत का सम्पर्क ही है जो मनुष्यों और समाजों को वर्तमान कार्यों के लिए तैयार करता है। वर्तमान जितना ही भौतिक चिन्ताओं और जटिलताओं के कारण तनावपूर्ण होता जायेगा, उतनी ही भूत से प्रेरणा प्राप्त करने की आवश्यकता बढ़ती जायेगी।"

सीमाएँ (Limitations) - ऐतिहासिक पद्धति की अपनी कुछ सीमाएँ हैं, इसीलिए सिजविक तथा सीले जैसे विचारक इसे गौण स्थान प्रदान करने के पक्षधर हैं-
  • ऐतिहासिक पद्धति वर्तमान एवं भविष्य की सभी समस्याओं का हल प्रस्तुत नहीं कर सकती क्योंकि प्रत्येक समस्या जो तत्कालीन परिस्थितियों में घटित होती है, उसका हल भी उन्हीं परिस्थितियों में ही निकाला जा सकता है।
  • इतिहास में घटनाओं का वर्णन मात्र किया जाता है लेकिन राजनीति विज्ञान में राजनीतिक संस्थाओं के नैतिक मूल्यों का भी परीक्षण किया जाता है। अतः इस क्षेत्र में इसकी उपयोगिता सीमित हो जाती है।

सावधानियाँ (Precautions) - इस पद्धति का प्रयोग करते समय अग्रांकित बातों का ध्यान रखना चाहिए-
  1. ऐतिहासिक घटनाओं की ऊपरी समानता को अधिक महत्व नहीं दिया जाना चाहिए। सोवियत रूस और चीन की साम्यवादी क्रान्ति में ऊपरी समानता होते हुए भी भौतिक अन्तर है।
  2. अपने पूर्व-कल्पित विचारों का इतिहास द्वारा समर्थन ढूँढ़ने के प्रलोभन में नहीं पड़ना चाहिए। अध्ययनकर्ता का दृष्टिकोण वैज्ञानिक एवं निष्पक्ष होना चाहिए।
  3. प्रत्येक समस्या का समाधान इतिहास के आधार पर करने का प्रयास नहीं करना चाहिए। यह कहावत कि “इतिहास की सदैव पुनरावृत्ति होती है" अर्द्धसत्य है क्योंकि इसके अनेक अपवाद हैं।
इस सम्बन्ध में गैटिल का कथन है कि "इस प्रणाली का प्रयोग करते समय सामग्री की छाँट और विश्लेषण की ओर तथा पक्षपात के त्याग की ओर ध्यान देना चाहिए। एकत्रित किये गये तथ्य ठीक होने चाहिए तथा उनके ऊपर आधारित युक्ति साफ और तर्कसंगत होनी चाहिए।"

3. तुलनात्मक पद्धति (Comparative Method)
तुलनात्मक पद्धति के अन्तर्गत अध्ययनकर्ता विभिन्न राज्यों, उनके संगठन, उनकी नीतियों एवं कार्यकलापों का तुलनात्मक अध्ययन करके सामान्य राजनीतिक सिद्धान्तों का प्रतिपादन करता है। यह पद्धति ऐतिहासिक पद्धति की पूरक है। इस पद्धति का प्रयोग सर्वप्रथम राजनीति विज्ञान के जनक अरस्तू ने किया था। अरस्तू ने 158 संविधानों का तुलनात्मक अध्ययन कर क्रान्ति के कारणों का पता लगाया था तथा सर्वोत्तम विधान के सम्बन्ध में अपने निष्कर्ष प्रस्तुत किये थे। मॉण्टेस्क्यू ने फ्रांसीसी संविधान से ब्रिटिश संविधान की तुलना करते हुए 'शक्ति पृथक्करण के सिद्धान्त' की रचना की थी। इसके अतिरिक्त, सर हेनरीमेन, डी. टाकविल, ब्राइस, डॉ. हरमन फाइनर आदि विद्वानों ने इस पद्धति का सफलतापूर्वक प्रयोग किया है। भारत के संविधान निर्माताओं ने विभिन्न देशों के संविधानों का तुलनात्मक अध्ययन करने के बाद ही भारतीय संविधान की रचना की। इस प्रकार राजनीति विज्ञान में तुलनात्मक विधि की उपयोगिता असंदिग्ध है।

सीमाएँ (Limitations) - तुलनात्मक पद्धति की भी अपनी सीमाएँ हैं जो निम्नांकित हैं-
  • तुलनात्मक पद्धति में अनेक बार असमान संस्थाओं के बीच तुलना की जाती है जिससे प्राप्त परिणाम रुचिकर नहीं होते।
  • मानव प्रकृति परिवर्तनशील है। वह जिस राजनीतिक समाज का अध्ययन करता है, वह देश, काल के प्रभाव से अछूता नहीं रहता जिससे गलत निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं।

सावधानियाँ (Precautions) -
  • तुलनात्मक अध्ययन के लिए ऐसे राज्यों और संस्थानों को चुना जाना चाहिए जिनकी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि समान रही हो तथा जिसमें काल का अधिक अन्तर न हो।
  • अध्ययनकर्ता का दृष्टिकोण वैज्ञानिक तथा निष्पक्ष होना चाहिए।
  • तुलनात्मक पद्धति का प्रयोग करते समय मनुष्य के स्वभाव तथा समय विशेष की सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक परिस्थितियों का ध्यान अवश्य रखा जाना चाहिए क्योंकि किन्हीं विशेष संस्थाओं का स्वरूप और सफलता इन्हीं पर निर्भर करती है।

4. प्रयोगात्मक पद्धति (Experimental Method)
कॉम्टे के मतानुसार, "राज्य में होने वाला प्रत्येक परिवर्तन एक राजनीतिक प्रयोग होता है।" वास्तव में सम्पूर्ण विश्व राजनीति विज्ञान की प्रयोगशाला है। राजनीतिक क्षेत्र में होने वाले परिवर्तन राजनीति विज्ञान के प्रयोग ही हैं। गिलक्राइस्ट के शब्दों में, “शासन के ढाँचे में किया गया कोई परिवर्तन, नया कानून और प्रत्येक युद्ध राजनीति विज्ञान में एक प्रयोग ही होता है ।" डॉ. गार्नर का कथन है कि “प्रत्येक नये कानून का निर्माण, प्रत्येक नई संस्था की स्थापना तथा प्रत्येक नई नीति का प्रारम्भ एक प्रकार से प्रयोग ही होता है क्योंकि उस समय तक वह केवल अस्थाई अथवा प्रस्ताव रूप में ही समझा जाता है, जब तक परिणाम उसके स्थायी होने की योग्यता को सिद्ध न कर दें।”
राजनीति विज्ञान में, प्राकृतिक विज्ञानों की भाँति इस पद्धति का प्रयोग तो नहीं किया जा सकता किन्तु राजनीति विज्ञान में किये जाने वाले प्रयोगों की विशिष्ट प्रकृति होती है। गिलक्राइस्ट के अनुसार, “भौतिकशास्त्र और रसायनशास्त्र में जो प्रयोग विधि है, वह यद्यपि राजनीतिशास्त्र में पूरी तरह लागू नहीं हो सकती किन्तु फिर भी राजनीतिशास्त्र में अपने विशिष्ट प्रकार के प्रयोगों के लिए पर्याप्त गुंजाइश है।"
राजनीतिक अनुसन्धान के लिए प्रयोगात्मक पद्धति बहुत उपयोगी है। भारत संघ के राजस्थान राज्य में अक्टूबर 1959 में प्रयोग के रूप में 'लोकतान्त्रिक विकेन्द्रीकरण' की योजना को अपनाया गया था जिसकी सफलता को देखकर अन्य राज्यों में भी लागू किया गया।

सीमाएँ (Limitations) - इस पद्धति की सीमाएँ निम्नलिखित हैं-
  1. राजनीति विज्ञान में प्रयोगों की पुनरावृत्ति नहीं की जा सकती।
  2. राजनीति विज्ञान में प्रयोगकर्ता को पूर्व-निश्चित परिस्थितियों के अन्तर्गत रहकर कार्य करना पड़ता है।
  3. राजनीति विज्ञान में मनुष्य की परिवर्तनशील प्रकृति होने के कारण पूर्णतया प्रामाणिक मापक व्यवस्था को अपनाना सम्भव नहीं है।

सावधानियाँ (Precautions) - इस पद्धति को अपनाते समय निम्न बातों का ध्यान रखा जाना चाहिए-
  • प्रयोगकर्ता का दृष्टिकोण निष्पक्ष तथा वैज्ञानिक होना चाहिए। उसे व्यक्तिगत दृष्टिकोण तथा भावना को प्रयोग से अलग रखना चाहिए।
  • प्रयोगकर्ता को प्रयोग से सम्बन्धित विशेष परिस्थितियों का पूर्ण ध्यान रखना चाहिए।

5. दार्शनिक पद्धति (Philosophical Method)
दार्शनिक पद्धति राजनीति विज्ञान के अध्ययन की सबसे प्राचीन पद्धति है। दार्शनिक पद्धति निगमनात्मक पद्धति है जो प्रतिष्ठित नियमों के प्रकाश में विशेष अवस्थाओं की व्याख्या करती है। इसके अन्तर्गत अध्ययनकर्ता द्वारा तर्क एवं कल्पना-शक्ति का अधिक प्रयोग किया जाता है। यह पद्धति राज्य के स्वरूप, लक्षण तथा उद्देश्य के सम्बन्ध में कल्पना करती है तथा इस निष्कर्ष पर पहुँचती है कि उसके उद्देश्यों की पूर्ति के लिए किस प्रकार के कानून होने चाहिए। इस आदर्शात्मक स्थिति के प्रकाश में वर्तमान कानूनों का मूल्यांकन किया जाता है।
प्लेटो, थॉमस मूर, रूसो, सिजविक, ब्रेडले, बोसांके आदि ने इस पद्धति का ही प्रयोग किया था। प्लेटो की 'रिपब्लिक' तथा थॉमस मूर की 'यूटोपिया' ग्रन्थ इस पद्धति के अनुपम उदाहरण हैं। तर्क और विवेक पर आधारित होने के कारण यह पद्धति अध्ययनकर्ता की बुद्धि का विकास करती है।

सीमाएँ (Limitations) - इस पद्धति की निम्नांकित सीमाएँ हैं-
इस पद्धति की सबसे बड़ी सीमा यह है कि विचारक इस पद्धति को अपनाकर कल्पना की उड़ान भरते हुए वास्तविकता से सम्बन्ध विच्छेद कर लेते हैं जिससे उनके द्वारा प्रतिपादित विचारों को व्यावहारिक राजनीति में प्रयोग नहीं किया जा सकता। रिपब्लिक और यूटोपिया में वर्णित आदर्श राज्यों का इतिहास और मानव स्वभाव के तथ्यों से तनिक भी सम्बन्ध नहीं है। ब्लंटशली के मतानुसार, "यह पद्धति कोरी सैद्धान्तिक है जिसका तथ्यों से कोई सम्बन्ध नहीं रहता है।"

सावधानियाँ (Precautions) - इस पद्धति को अपनाते समय निम्नांकित सावधानियाँ रखी जानी चाहिए-
दार्शनिक पद्धति का प्रयोग करते समय हमें आदर्श के साथ यथार्थ का समन्वय रखना चाहिए तभी यह पद्धति हमारे लिए उपयोगी हो सकती है।

अन्य पद्धतियाँ (Other Methods)
राजनीति विज्ञान की उपर्युक्त पाँच अध्ययन पद्धतियों के अतिरिक्त कुछ अन्य अध्ययन पद्धतियाँ भी प्रचलित हैं जो निम्नांकित हैं-

6. सादृश्य पद्धति (Analogical Method)
यह वह पद्धति है जिसमें राजनीतिक संस्थाओं के साथ अन्य विविध तत्वों का सादृश्य स्थापित किया जाता है। इस पद्धति का प्रयोग ब्लंटशली व हरबर्ट स्पेन्सर द्वारा किया गया है। स्पेन्सर ने इस पद्धति का प्रयोग कर राज्य व मानव शरीर के बीच पूर्ण सादृश्य स्थापित कर 'सावयव सिद्धान्त' का प्रतिपादन किया।
राजनीति विज्ञान में यह पद्धति उपयोगी रही है किन्तु इसका प्रयोग करते समय सादृश्यता को अधिक नहीं बढ़ाया जाना चाहिए। डॉ. आशीर्वादम् के कथनानुसार, "इस बात का भी ध्यान रखना चाहिए कि सादृश्य प्रमाण नहीं है। यह तो एक सम्भावना का सूचक मात्र है, निश्चितता का नहीं।"

7. वैधानिक प्रणाली (Juridical Method)
विलोबी, डिग्विट, लेवाण्ड, डैस्लाण्डर्स, काम्बोथेकर आदि विश्लेषणवादी न्यायविदों ने वैंधानिक प्रणाली को अपनाने पर अधिक बल दिया है। यह वह प्रणाली है जिसने राज्य को एक वैधानिक इकाई माना है जिसका कार्य कानून बनाना तथा उन्हें लागू करना है जिसके माध्यम से व्यक्तियों के अधिकारों एवं कर्तव्यों की व्यवस्था की जाती है। इस पद्धति का दोष यह है कि राज्य के स्वरूप के निर्धारण में यह सामाजिक शक्तियों की पूर्ण उपेक्षा करती है।

8. सांख्यिकीय पद्धति (Statistical Method)
इस पद्धति के अन्तर्गत किसी विषय विशेष के सम्बन्ध में आँकड़े एकत्रित किये जाते हैं और विभिन्न परिस्थितियों के सन्दर्भ में उनके आधार पर निष्कर्ष निकाले जाते हैं। मतदान, जनसंख्या, राष्ट्रीय आय, विविध सामाजिक वर्गों की शक्ति, जनमत, प्रचार व प्रसार आदि विषयों का अध्ययन इस पद्धति द्वारा भली प्रकार से किया जा सकता है। इस पद्धति का प्रयोग ऐतिहासिक, तुलनात्मक या दार्शनिक पद्धति के सहायक के रूप में ही किया जा सकता है, स्वतन्त्र पद्धति के रूप में नहीं। आँकड़ों का सफल प्रयोग विवेक व तर्क के साथ ही सम्भव होता है।

9. जीवशास्त्रीय पद्धति (Biological Method)
यह पद्धति राज्य को एक सावयव के रूप में देखती है। इसके अन्तर्गत यह माना जाता है कि राज्य का विकास एक प्राणी - वैज्ञानिक इकाई के रूप में होता है। हरबर्ट स्पेन्सर, वम्र्ज, स्कैफल, डरखिम व गमप्लाविज ने इस पद्धति का प्रयोग किया है।
इस पद्धति की मुख्य त्रुटि यह है कि इसके अन्तर्गत राज्य को पूर्ण रूप से प्राणी मानकर उसकी वृद्धि व विकास का अध्ययन किया जाता है जिसके कारण निष्कर्ष अनिश्चित व भ्रमपूर्ण हो सकते हैं।

10. समाजशास्त्रीय पद्धति (Sociological Method)
यह पद्धति राज्य को एक सामाजिक इकाई मानती है जिसमें समाज की इकाई - व्यक्ति के जैसे गुण होते हैं। इसके अन्तर्गत व्यक्ति की हर तरह की राज्य के विकास व स्वरूप का अध्ययन किया जाता है। यह पद्धति एक स्वतन्त्र पद्धति नहीं है वरन् दृष्टिकोण मात्र है। इसमें भी प्राणीवैज्ञानिक पद्धति के दोष पाये जाते हैं।

11. मनोवैज्ञानिक पद्धति (Psychological Method)
इस पद्धति का प्रयोग आधुनिक राजनीतिक विचारकों- बेजहॉट, ग्राह्म वालस, मैक्डूगल, टार्डे, लीबॉन तथा समनर आदि के द्वारा किया गया है। इस पद्धति के अन्तर्गत व्यक्तिगत और समूहगत स्वभाव की प्रवृत्तियों के आधार पर राजनीतिक गतिविधियों का अध्ययन किया जाता है। मतदान चुनाव, राजनीतिक दलों आदि की गतिविधियों का अध्ययन करने में यह पद्धति विशेष रूप से उपयोगी सिद्ध हुई है। इस पद्धति का प्रयोग करने में सबसे बड़ी कठिनाई यह है कि इसमें मानव के मनोभावों को समझकर निष्कर्ष निकालना बहुत कठिन कार्य है।

आधुनिक अध्ययन पद्धतियाँ

आधुनिक युग में समाज विज्ञानों तथा प्राकृतिक विज्ञानों के अध्ययन में पूर्ण सादृश्यता स्थापित करके समाज विज्ञानों को सम्पूर्ण रूप से विज्ञानों का रूप प्रदान करने का प्रयास किया जा रहा है। इसके लिए अध्ययन पद्धतियों का रूप बदलकर उन्हें वैज्ञानिक बनाने पर बल दिया जा रहा है। इस प्रकार अध्ययन पद्धतियों के दो आधुनिक रूप हमारे सामने आये हैं-
1. आनुभविक वैज्ञानिक पद्धति
2. व्यवहारवादी पद्धति ।

1. आनुभविक वैज्ञानिक पद्धति (Empirical Scientific Method)
वैज्ञानिक पद्धति तकनीकी दृष्टि से व्यवस्थित पर्यवेक्षण, वर्गीकरण तथा आँकड़ों के विवेचन से निर्मित है तथा व्यापक दृष्टिकोण से यह विश्व के प्रति एक मनोवृत्ति, एक दृष्टिकोण एवं उसके विषय में सत्यापनीय ज्ञान की व्यवस्थित राशि की खोज का एक ढंग है। इस प्रकार से आनुभविक पद्धति के रूप में वैज्ञानिक दृष्टि की स्थापना हुई है। ग्राह्म वालास, मेरियम, कैटलिन, बेण्टले आदि राजनीतिक विचारकों ने आनुभविक वैज्ञानिक अध्ययन पद्धति का प्रयोग किया है।
आनुभविक वैज्ञानिक पद्धति के प्रयोग में सबसे बड़ी त्रुटि यह है कि इसमें प्राकृतिक विज्ञानों की भाँति मापन सम्भव नहीं है, इस अध्ययन में पूर्वाग्रहों के दोष भी सम्मिलित हैं। इसमें प्राकृतिक विज्ञानों की भाँति प्रयोग तथा भविष्यवाणियाँ करना भी सम्भव नहीं है।

2. व्यवहारवादी पद्धति (Behavioural Approach)
राजनीति विज्ञान के अध्ययन में इस पद्धति का अधिक महत्व है। व्यवहारवादी विचारक व्यक्ति या समूहों के राजनीतिक व्यवहार को अधिक महत्वपूर्ण व प्रमुख मानते हैं तथा ऐतिहासिक महत्व की घटनाओं, संस्थाओं व संविधानों के अध्ययन को गौण मानते हैं। इसने राजनीति विज्ञान के अध्ययन को वैज्ञानिक रूप प्रदान किया है।
यह पद्धति मानव जीवन की समग्रता, मानवीय व्यवहार की जटिलता और मानवीय व्यवहार का सम्पूर्ण विश्लेषण करने में असफल रही है।

निष्कर्ष - उत्तम पद्धति (Conclusion: Best Method)
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि राजनीति विज्ञान के लिए सभी पद्धतियाँ उपयोगी हैं। ये सभी पद्धतियाँ एक-दूसरे की कमियों को दूर करते हुए अध्ययन को पूर्ण बनाती हैं। ये सभी पद्धतियाँ अन्योन्याश्रित हैं। इन पद्धतियों का सफलतापूर्वक प्रयोग तभी सम्भव है, जबकि इन पद्धतियों का प्रयोग साथ-साथ किया जाये।
प्रो. गिलक्राइस्ट के शब्दों में, “सच्चे इतिहासवेत्ता को दर्शनशास्त्र का महत्व समझना चाहिए और एक सच्चे तत्ववेत्ता को इतिहास से परामर्श लेना चाहिए। इतिहास के प्रयोग तथा घटनाओं को आदर्शों के प्रकाश से चमत्कृत किया जाना चाहिए। इसलिए सबसे उत्तम पद्धति में ऐतिहासिक तथा दार्शनिक विधियों का सम्मिश्रण होना आवश्यक है।" राजनीति विज्ञान के अध्ययन के लिए परम्परागत तथा आधुनिक पद्धतियों में समन्वय स्थापित कर उसका एक साथ प्रयोग किया जाना चाहिए। इन अध्ययन पद्धतियों ने राजनीति विज्ञान के अध्ययन को वैज्ञानिक स्वरूप प्रदान कर इसके क्षेत्र में वृद्धि की है।

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