राजनीति विज्ञान के अध्ययन के उपागम - परम्परावादी एवं आधुनिक | rajniti vigyan ke adhyayan ke upagam

उपागम का अर्थ, उसकी प्रकृति व उसके स्वरूप

सरल शब्दों में, 'उपागम' शब्द की परिभाषा किसी विशेष परिघटना को देखने और उसकी व्याख्या करने के तरीके के रूप में की जा सकती है। राजनीति के अध्ययन में इसका परिप्रेक्ष्य इतना अधिक व्यापक हो सकता है जिससे इसके अन्तर्गत पूरे विश्व जैसा व्यापक क्षेत्र आ जाये या यह इतना संकीर्ण हो सकता है जिससे इसके अन्तर्गत स्थानीय, क्षेत्रीय, राष्ट्रीय या अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति का एक पक्ष ही लिया जाए। इसके अलावा, इसमें सामग्री को एकत्रित करने, उसका चयन करने और उसके बाद उसका अन्वेषण एवं विश्लेषण करने से सम्बन्धित हर वह विषय आ जाता है जो किसी शैक्षिणिक प्रयोग के लिए किसी विशेष परिकल्पना हेतु आवश्यक होता है। इस प्रकार उपागम में "चयन की कसौटी आ जाती है, ऐसी कसौटी जिसे समस्या के चयन और प्रश्नों के बारे में विचार करने और जिसे प्रभावित आँकड़ों के चयन के लिए इस्तेमाल में लाया जाता है, इसमें वे मामले भी शामिल हैं जो प्रश्नों और आँकड़ों को शामिल करने और ऐसा न करने के प्रश्न पर लागू होते हैं।"
राजनीति के अध्ययन के लिए अनेक उपागम हैं क्योंकि समस्याओं और आँकड़ों के चयन या किन्हीं प्रश्नों का समाधान करने के लिए प्रश्नों के चयन के लिए कसौटियों का निर्धारण इस दृष्टिकोण से किया जाता है कि अध्ययनकर्ता इसके बारे में कैसा दृष्टिकोण अपनाता है। बहरहाल, जब कोई अध्ययनकर्ता अपने प्रयासों को प्रस्तुत किए जा सकने वाले रूप में पेश करता है तो उस उपागम से किसी विशेष विधि का उपयोग किया जा सकता है। इस प्रकार उपागम और विधियाँ अन्तः सम्बन्धित हो जाती है। "संक्षेप में, उपागमों में समस्याओं और सम्बन्धित आँकड़ों के चयन के लिए कसौटियाँ होती हैं जबकि विधियाँ आँकड़ों को लेने और उनका इस्तेमाल करने की कार्य-विधियाँ हैं।"
उपागम और विधि के बीच सूक्ष्म विभाजक रेखा को स्पष्ट करने के लिए हम यह कह सकते हैं कि विधि का आमतौर पर उपयोग उन ज्ञानमांसक धारणाओं को बताने के लिए किया जाता है जिन पर ज्ञान की खोज आधारित होती है। ये वे परिचालन और गतिविधियाँ हैं जो आँकड़ों को प्राप्त करने और उनका प्रयोग करने में आती हैं। आमतौर पर, अन्य सामाजिक और प्राकृतिक विज्ञानों से लिए गए अलग-अलग तरीकों को उपयोग में लाने के कारण आधुनिक राजनीति विज्ञान, अर्थशास्त्र, मनोविज्ञान, समाज विज्ञान, जीव विज्ञान और नृ-विज्ञान जैसे अन्य विषयों के अध्ययन-क्षेत्र के अधिक-से-अधिक निकट आता प्रतीत होता है। यह सब इसलिए किया जा रहा है ताकि राजनीतिक अध्ययनों में आँकड़े एकत्रित करने और उनकी व्याख्या करने की सभी समस्याओं को अच्छी तरह से हल किया जा सके। "इसके परिणामस्वरूप, कुछ लोगों को राजनीति विज्ञान इतिहास या समाज विज्ञान या अर्थशास्त्र की तरह प्रतीत होता है, मानो जिन्हें राजनीतिक आँकड़ों पर लागू किया गया हो।" यदि ऐसा समझा जाए तो किसी विधि को तकनीक भी कहा जा सकता है। बहरहाल, इन दोनों में यदि कोई अन्तर है तो वह यह है कि 'तकनीक' को अभ्यस्त या मशीनी उपयोग में अधिक लाया जा सकता है और इसका उपयोग अत्यधिक विशेष है जिसे यदि एक बार अच्छी तरह सीख लिया जाए तो कल्पनात्मक बुद्धि पर कम आश्रित रहना पड़ता है।
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जबकि 'उपागम' पदक्रम का 'विधि' और 'तकनीक' जैसे सम्बन्धित शब्दों से तादात्म्य किया जा सकता है, इसे निश्चित रूप में सिद्धान्त से भिन्न किया जा सकता है। इस तथ्य के कारण उपागम पदबंध सिद्धान्त (theory) पदबंध से घनिष्ठ रूप में सम्बन्धित है; उसका स्वरूप ही सामान्यीकरण (generalisation), व्याख्या या स्पष्टीकरण (explanation), प्रागुक्ति (prediction) और आदेश (prescription) के मार्ग का निर्धारण करता है- ये सभी सिद्धान्त के मुख्य कार्यों में से हैं लेकिन इन दोनों में एक विभेदक रेखा भी खींची जा सकती है। 'सिद्धान्त' शब्दबंध इतना अधिक अस्पष्ट है कि प्रायः इसके वास्तविक अर्थ का निर्धारण नहीं किया जा सकता। इसका चिन्तन (thought), विचार (idea), रुझान (trend), प्रवृत्ति (tendency), अटकल (conjecture), परिकल्पना (hypothesis), 'चिन्तन (speculation), व्याख्या या स्पष्टीकरण (explanation) जैसे किसी पदबंध से तादात्म्य किया जा सकता है। पर उपागम की स्थिति भिन्न है जिसकी परिभाषा किसी सिद्धान्त के रूप में या उसके पूर्वगामी के रूप में की जा सकती है। उपागम उस स्थिति में सिद्धान्त का रूप ले लेता है जब उसके कार्य विचाराधीन विषय के बारे में समस्याओं और आँकड़ों के चयन से परे हों ।
बहरहाल, इस स्थल पर इस बात का अवश्य उल्लेख कर दिया जाना चाहिए कि तुलनात्मक राजनीति के क्षेत्र में अधिकांश सम्बन्धित विषयों, जिनकी संक्षेप में ऊपर व्याख्या की जा चुकी है, राजनीति के व्यावहारिक अध्ययन के लिए पर्यायवाची बन चुके हैं। राजनीति के क्षेत्र में नए रीति-विधान के उपयोग का यही कारण है। "वास्तविक उद्देश्य यह है कि ज्ञान प्राप्त करने के लिए नई तकनीकें अपनाई जायें, ज्ञान के आधिपत्य के दावों की वैधता का निर्धारण करने के लिए नई कसौटियाँ खोजी जायें तथा शब्दों के अर्थों के परिष्कार एवं परिशुद्धता और तार्किक अनुमिति का स्तर ऊँचा करने के लिए नए विश्लेषणात्मक उपकरणों का उपयोग किया जाये। इन सबका एक साथ सूत्रपात किया गया है।"

परम्परागत उपागम

राजनीति के अध्ययन के उपागमों को मोटे तौर पर दो वर्गों में बाँटा जा सकता है- मानपरक (normative) और तथ्यपरक ( empirical); जबकि मानपरक उपागम को मूल्य- भारित (value-laden) कहा जा सकता है, तथ्यपरक को मूल्य- मुक्त (value-free) के रूप में जाना जाता है। दूसरे शब्दों में, जबकि पहले की विशेषता नियामकता है, दूसरे की विशेषता व्यवहारवाद है। अतः इस बारे में हमारे वर्गीकरण का आधार तथ्य-मूल्य (fact-value) सम्बन्ध हैं। इसके आधार पर हम यह कह सकते हैं कि जब परम्परागत उपागमों का झुकाव 'मूल्यों' की ओर होता है, दूसरा उपागम 'तथ्यों' का सहारा लेता है। इसका परिणाम तथ्य-मूल्य द्वन्द्व (dichotomy) का निर्धारक कारक बन जाता है। परम्परागत उपागमों का स्वरूप ऐतिहासिक, विवरणात्मक और आदेशात्मक है जिसमें मूल्यों और लक्ष्यों के लिए प्रमुख स्थान है। उनकी संक्षिप्त चर्चा निम्न प्रकार की जा सकती है-

1. सांस्थानिक उपागम
यहाँ राजनीति का अध्ययनकर्ता व्यवस्थापिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका जैसे राजनीतिक संगठनों की औपचारिक संरचना के अध्ययन पर बल देता है। इस प्रवृत्ति को प्राचीन काल के अरस्तू से पोलीबियस तक और आधुनिक युग में ब्राइस और फाइनर जैसे कई राजनीतिक वैज्ञानिकों की रचनाओं में खोजा जा सकता है। बहरहाल, आधुनिक लेखकों के बारे में जो बात सबसे अधिक विचित्र है, वह यह है कि वे राजनीतिक व्यवस्था की संरचनाओं में दल प्रणाली को भी चतुर्थ वर्ग के रूप में शामिल करते हैं, जबकि बैन्टले (Bentley), ट्रूमैन (Truman), लैथम (Latham) और वी. ओ. की जूनियर (V. O. Key, Jr.) जैसे समसामयिक लेखक एक कदम और आगे जाकर असंख्य हित समूहों को भी इसमें शामिल कर लेते हैं जो किसी राजनीतिक व्यवस्था की अवसंरचना हैं। यही कारण है कि यह उपागम संरचनात्मक उपागम (structural approach) के नाम से जाना जाता है। सांस्थानिक या संरचनात्मक उपागम को कई अमरीकी और अंग्रेज लेखकों की रचनाओं में देखा जा सकता है। हम वाल्टर बेजहाट, एफ. ए. आग, डब्ल्यू. बी मुनरो, हर्मेन फाइनर, एच. जे. लास्की, रिचर्ड न्यूजडाट, सी. एफ. स्ट्रांग, बर्नार्ड क्रिक, जेम्स ब्राइस, हेराल्ड जिंक, मौरिस डुवेजर और जियोवानी सारटोरी के ग्रन्थों की ओर निर्देश कर सकते हैं। उनकी रचनाओं की सबसे अधिक उल्लेखनीय विशेषता यह है कि राजनीति का अध्ययन राजनीतिक व्यवस्था की औपचारिक एवं सांस्थानिक संरचनाओं तक सीमित हो गया है। साथ ही, इन निष्कर्षों की पुष्टि के लिए पश्चिम के कुछ उन्नत देशों की मुख्य शासकीय प्रणालियों को तुलनात्मक अध्ययन का विषय बनाया गया है।
बहुत अधिक संकीर्ण होने के कारण इस उपागम की आलोचना की जाती है। इसमें उन व्यक्तियों की भूमिका की उपेक्षा की जाती है जो राजनीतिक व्यवस्था की औपचारिक व अनौपचारिक संरचनाओं एवं उपसंरचनाओं का निर्माण एवं उन्हें परिचालित करते हैं। यही कारण है कि व्यवहारात्मक उपागम इस उपागम की महत्ता पर छा गया है। एक और कठिनाई यह है कि सांस्थानिक उपागम का आशय और परास अध्ययनकर्ता के विचारों के साथ-साथ भिन्न-भिन्न होता जा रहा है। जिन्होंने सरकारी संस्थाओं, पदों और अभिकरणों की कल्पना की है, वे उसी के अनुसार सरकार के बारे में बताते और लिखते हैं-उनके बनाये हुए संघटनात्मक चार्ट उसी का सुझाव देते हैं। इस संकल्पना के अधीन राजनीति का अध्ययन चरम बिन्दु पर एक अन्य तथ्य का एक संकीर्ण, विशिष्ट तथ्य बन जाता है। अन्त में, इस बात का भी उल्लेख किया जाना चाहिए कि इस उपागम के अध्ययनकर्ता अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति की भी अनदेखी करते हैं क्योंकि बहुत समय तक राज्य या सरकार जैसी कोई संस्थाएँ नहीं थीं, इसलिए ऐसा प्रतीत होता है कि राजनीतिक वैज्ञानिकों के लिए इस क्षेत्र में ऐसा कुछ नहीं मिलता जिसके बारे में चर्चा की जा सके।

2. ऐतिहासिक उपागम
इस उपागम का विशिष्ट लक्षण अतीत या काल की चुनी हुई अवधि तथा किसी विशेष चरण के भीतर चुनी घटनाओं के क्रम पर बल है ताकि इस बात की व्याख्या की जा सके कि कौन सो संस्थाएँ चली आ रही हैं और वे क्या काम कर रही हैं, यह प्राय: इस ज्ञान की खातिर होता है कि वे क्या रही हैं, वे अस्तित्व में किस प्रकार आयीं, वे क्या हैं और अपने विश्लेषण के सम्बन्ध में उनका क्या स्थान है।" यहाँ इस बात का भी उल्लेख किया जाना चाहिए कि अध्येता इतिहास को आनुवंशिक प्रक्रिया समझता है- इस बात का अध्ययन कि मानव कैसे अस्तित्व में आया, वह कभी क्या था और अब क्या है। इस दृष्टि से राजनीति का अध्ययन उसे इस बात के लिए प्रेरित करता है कि वह ऐतिहासिक सातत्य और परिवर्तन में व्यक्तिगत प्रेरणाओं, कार्यों, उपलब्धियों, असफलताओं और प्रासंगिकताओं को देखें।
ऐतिहासिक उपागम इस धारणा पर टिका है कि राजनीतिक सिद्धान्त का भण्डार सामाजिक-आर्थिक संकट तथा उनके द्वारा महान् चिन्तकों के मनों पर छोड़ी गयी प्रतिक्रियाओं में से निकलता है इसलिए ऐतिहासिक साक्ष्य का अपना ही महत्व है। प्राचीन यूनान की परिस्थितियों ने प्लेटो और अरस्तू को और इसी प्रकार सत्रहवीं शताब्दी के इंग्लैण्ड ने हाब्स और लॉक को जन्म दिया; उन्नीसवीं शताब्दी की पूँजीवादी प्रणाली ने मार्क्स और मिल को जन्म दिया। जाहिर है कि राजनीतिक सिद्धान्त को समझने के लिए समय, स्थान और परिस्थितियों को समझना उतना ही आवश्यक है जिसमें उसका विकास हुआ है। राजनीतिक दार्शनिक अपने युग की राजनीति में, वास्तव में, चाहे भाग न ले लेकिन वह उससे प्रभावित होता है और वह अपने दाँव पर इसको बहुत अधिक प्रभावित करने का प्रयास भी करता है। सेबाइन जब यह कहते हैं कि "सभी महान् राजनीतिक सिद्धान्त राजनीतिक और सामाजिक संकटों के अन्तरालों में से निकलते हैं" तो वह इसी तथ्य पर बल दे रहे होते हैं।
ऐतिहासिक उपागम की कुछ कमजोरियाँ हैं। उदाहरण के लिए, जैसा जेम्स ब्राइस ने कहा है, यह अक्सर सतही समानताओं से भारित होता है। इस नाते ऐतिहासिक समानान्तर कुछ हद तक ज्ञानवर्द्धक हो सकते हैं लेकिन अधिकांश स्थितियों में वे पथभ्रष्ट करने वाले भी होते हैं। इसी प्रकार प्रो. अर्नेस्ट बारकर का मत है - "कई धाराएँ हैं- कुछ जो अचानक रुक जाती हैं कुछ जो वापस मुड़ती हैं, जो एक-दूसरे को काटती हैं और हम ऐसे मुख्य मार्ग के बारे में भी सोच सकते हैं जिस पर बहुत-से रास्तों का जंजाल है।" अर्थात् इस उपागम का समर्थक अध्येयता ऐतिहासिक आँकड़ों का इस्तेमाल करने में अपनी पसन्द के विशेष रास्ते का अनुसरण और बाद में अपना स्पष्टीकरण प्रस्तुत कर सकता है यहाँ तक कि अन्य महत्वपूर्ण पहलुओं की अवहेलना कर दी जाती है। यह भी सम्भव है कि इस उपागम का उपयोग करते हुए वह अपनी भावनाओं और पक्षपातों से काम ले जैसा हम मैक्यावली और ओकशॉट की स्थितियों में पाते हैं।

3. समाजशास्त्रीय उपागम
आधुनिक व्यवहारपरकतावादी दृष्टिकोण मनुष्य के राजनीतिक व्यवहार का अध्ययन समाजशास्त्रीय पद्धति पर करता है। क्योंकि समाजशास्त्र में व्यापक रूप से मानव व्यवहार का अध्ययन होता है जिसमें राजनीतिक व्यवहार भी सम्मिलित है। समाजशास्त्र में सुझाये गये प्रश्नों एवं आँकड़ों के आधार पर राजनीतिक प्रक्रियाओं में योगदान मिलता है। राजनीतिक दृष्टिकोण मतदाता व्यवहार राजनीतिक आन्दोलन आदि का अध्ययन समाजशास्त्रीय उपागम के माध्यम से किया जाता है। समाजशास्त्र के अनेक प्रकरण जैसे विवाह, तलाक, युवा अपराध (Juvenile Delinquency), गन्दी बस्ती (Slum) आदि समाजशास्त्रीय अध्ययन के विषय राजनीतिक प्रक्रिया को प्रभावित करते हैं।

4. दार्शनिक उपागम
राजनीति के अध्ययन के लिए सबसे पुराना उपागम दार्शनिक है जिसे आचारशास्त्रीय उपागम के नाम से भी जाना जाता है। यहाँ राज्य, सरकार और मानव का राजनीतिक सत्ता के रूप में अध्ययन कुछ उद्देश्यों, नैतिक शिक्षाओं, सत्यों या उच्च सिद्धान्तों के अनुसरण के साथ अभिन्न रूप से जुड़ा हुआ है जो समस्त ज्ञान और वास्तविकता में अन्तर्निहित होता है। इस क्षेत्र में राजनीति का अध्ययन मननशील स्वरूप धारण कर लेता है क्योंकि दार्शनिक शब्द का सम्बन्ध ही चिन्तन से है। दार्शनिक विश्लेषण किसी विषय के स्वरूप के विचार को स्पष्ट करने और उसके साधनों एवं साध्यों के अध्ययन करने का प्रयास है। इसे यदि और अधिक सामान्य शब्दों में प्रस्तुत किया जाये तो यह कहा जा सकता है कि जो लेखक किसी विषय के प्रति दार्शनिक उपागम को अपनाता है, उसका उद्देश्य भाषा स्पष्टता को बढ़ाना और भाषायी अस्पष्टता को कम करना होता है। वह यह मान लेता है कि विवरण में इस्तेमाल की गई भाषा वास्तविकता की संकल्पनाओं को परिलक्षित करती है और वह वास्तविकता की संकल्पनाओं को यथासम्भव अधिक-से-अधिक स्पष्ट, संगत, सहायक और सुसंगत बनाना चाहिए। वह चिन्तन और विचार अभिव्यक्ति को प्रभावित और उसका मार्ग दर्शन करना चाहता है जिससे इस सम्भावना को अधिक-से-अधिक व्यापक किया जा सके कि वास्तविकता का चुना हुआ पक्ष (राजनीति) बोधगम्य बन जाए।
इसी कारण दार्शनिक और आचारशास्त्रीय उपागम का समर्थन करने वाले लेखक और विचारक शासकों और राजनीतिक समुदाय के सदस्यों को यह परामर्श देना चाहते हैं कि वे किन्हीं उच्च लक्ष्यों का अनुसरण करें। इसीलिए प्लेटो, मोर, बेकन, हैरिंगटन, रूसो, कांट, हीगल, ग्रीन, बोसांके, नैटिलशिप, लिण्डसे और लियो स्ट्रास के महान् ग्रन्थों में राजनीति के अध्ययन को अमूर्तता के बहुत उच्च स्तर तक उठाया गया है और साथ ही उनमें मूल्यों की प्रणाली को आदर्श राजनीतिक प्रणाली के कुछ उच्च नियमों के साथ जोड़ दिया गया है। यहाँ मानपरकता का प्रभुत्वशाली स्थान है। अरस्तू मैक्यिावली, बोदां, हाब्स, लॉक और माण्टेस्क्यू जैसे लेखकों के प्रमुख ग्रन्थों में जो व्यवहारवाद पाया जाता है, वह राजनीति के अध्ययन को आचारशास्त्र या इतिहास या मनोविज्ञान या विधिशास्त्र के अध्ययन के साथ समेकित करता प्रतीत होता है ताकि सुव्यवस्थित राजनीतिक समुदाय की तस्वीर को पेश करने का प्रयास किया जा सके।
दार्शनिक उपागम की इस आधार पर आलोचना की जाती है कि यह चिन्तनात्मक और अमूर्त है। यह कहा जाता है कि यह यथार्थ की दुनिया से बहुत दूर ले जाता है। इस पर परिकल्पनात्मक होने का दोष लगाया जाता है। कांट और हीगल के हाथों यह राज्य को रहस्यात्मक ऊँचाइयों तक ले जाता है। अतः राजनीति आचारशास्त्र या दर्शन के हाथों में कठपुतली बन जाती है। यथार्थ पर वस्तुओं के आदर्श रूप का प्रभुत्व हावी हो जाता है। बहरहाल, ऐसे उपागम के लिए स्ट्रास जैसे महान् समर्थक इस बात की पुष्टि करते हैं कि मूल्य राजनीतिक दर्शन के अभिन्न भाग हैं और उन्हें राजनीति के अध्ययन से बाहर नहीं रखा जा सकता, "यदि यह निदेशतता स्पष्ट हो जाती है, यदि लोग अच्छे जीवन और अच्छे समाज को प्राप्त करने के ज्ञान को प्राप्त करने के लक्ष्य को स्पष्ट कर लेते हैं तो राजनीतिक दर्शन का उदय होता है।"

5. कानूनी उपागम
अन्त में, परम्परागत उपागमों के क्षेत्र में हम कानूनी या न्यायिक उपागम का उल्लेख कर सकते हैं। इसके अन्तर्गत राजनीति का अध्ययन कानूनी प्रक्रियाओं और संस्थाओं के साथ घुल-मिल गया है। कानून और न्याय के विषयों को न्यायशास्त्र के मामले ही नहीं समझा जाता बल्कि राजनीति-वैज्ञानिक राज्य को प्रभावी और साम्यपूर्ण कानून और व्यवस्था को बनाये रखने वाला समझते हैं।
अतः न्यायिक संस्थाओं के संगठन, अधिकार क्षेत्र और स्वतन्त्रता से सम्बन्धित मामले राजनीति वैज्ञानिकों का एक आवश्यक विषय बन जाते हैं। प्राचीन काल में विश्लेषणात्मक न्यायशास्त्री सिसेरो (Cicero) से लेकर आधुनिक काल के डाइसी (Dicey) तक ने राज्य को प्रमुख रूप में एक निगम या न्यायिक व्यक्ति समझा है और इस प्रकार राजनीति को कानूनी नियमों का विज्ञान कहा है जिसमें एक सामाजिक संगठन के रूप में राजनीति विज्ञान में कुछ भी समान नहीं है। इस प्रकार इस उपागम में राज्य को प्रमुख रूप में कानून बनाने और उसे लागू करने वाला संगठन कहा गया है।

इस सन्दर्भ में हम प्रारम्भिक आधुनिक युग के जीन बोडिन, ह्यूगो ग्रोशियस और टामस हाब्स की रचनाओं का उल्लेख कर सकते हैं जिन्होंने प्रभुसत्ता के सिद्धान्त का प्रवर्तन किया। हाब्स की प्रणाली में, राज्याध्यक्ष उच्चतम कानूनी प्राधिकारी है और उसका आदेश ही कानून है जिसका पालन या तो सजा से बचने या भयानक प्राकृतिक अवस्था को दूर रखने के लिए किया जाना चाहिए। इस सम्बन्ध में बैन्थम, जॉन आस्टिन, सेविग्नी, सर हेनरी मेन और ए. वी. डाइसी की रचनाओं की ओर भी निर्देश किया जा सकता है। इसका परिणाम यह हुआ है कि राजनीति के अध्ययन को अभिन्न रूप से कानूनी प्रक्रियाओं से जोड़ दिया गया है और स्वतन्त्रता व समानता की सामंजस्यपूर्ण स्थिति को विधि के शासन (rule of law) के शानदार नाम से जाना जाता है।
राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के अध्ययन पर लागू किया गया यह कानूनी उपागम इस कल्पना पर स्थित है कि कानून में यह व्यवस्था की जाती है कि किसी विशेष अवस्था में क्या कार्यवाही की जाए और यह भी व्यवस्था की जाती है कि किन परिस्थितियों में ऐसी कार्यवाही की जाती है, साथ ही इसमें अनुमेय कार्यवाही की सीमाओं का निर्धारण भी किया जाता है। इसमें इस तथ्य पर भी बल दिया जाता है कि जहाँ नागरिक कानूनों का पालन करने वाले हैं, वहाँ लोगों के राजनीतिक व्यवहार से सम्बन्धित पूर्वानुमान करने में कानून का ज्ञान बहुत महत्वपूर्ण आधार प्रदान करता है। इस उपागम का जेलेनिक जैसा एक विशिष्ट अध्येता हमें परामर्श देता है कि संगठित समाज को मात्र सामाजिक या राजनीतिक परिघटना ही नहीं बल्कि उसे सार्वजनिक कानून, अधिकारों और कर्तव्यों का समुच्चय समझा जाए जिसकी नींव विशुद्ध तर्क और कारण पर डाली गई है। इसका आशय यह है कि वृद्धि और विकास के जीव के रूप में विधितर और सामाजिक शक्तियों के विचार को समझे बिना, राज्य को नहीं समझा जा सकता जो इस विचार की पृष्ठभूमि में निहित है और इस कारण वे इसकी बहुत-सी क्रियाओं और आपसी प्रतिक्रियाओं के लिए जिम्मेदार हैं।
बहरहाल, यहाँ इस बात का उल्लेख किया जाना चाहिए कि इस उपागम का परिप्रेक्ष्य बहुत संकीर्ण है। कानून के अधीन सार्वजनिक जीवन का एक ही पक्ष आता है और इसी कारण इसके अन्तर्गत राजनीतिक कार्यों का पूर्ण व्यवहार नहीं आ सकता। जैसे आदर्शवादियों की इस आधार पर आलोचना की जा सकती है कि राज्य एक नैतिक सत्ता के अतिरिक्त और कुछ नहीं है, उसी प्रकार विश्लेषणात्मक न्यायवादियों द्वारा भी यह गलती की जाती है कि वे हर राजनीतिक प्रणाली के हर पक्ष को एक न्यायिक सत्ता का रूप प्रदान कर देते हैं। कानून की अन्तर्वस्तु का विधायी शक्ति के माध्यम से निर्धारण करना राजनीतिक कार्य है। सामान्यतया इसकी व्याख्या विधिक उपागम के अतिरिक्त किसी अन्य उपागम के आधार पर होनी चाहिए।'

राजनीति विज्ञान के अध्ययन का मानक उपागम

मानकता का अर्थ - मानक शब्द लैटिन शब्द नॉर्मा से लिया गया है, जिसका अर्थ है उपदेश नियम, बढ़ई का वर्ग। मानदण्ड शब्द का अर्थ है सामान्य, विशिष्ट या मानक वस्तु। मानदण्ड मानक से सम्बन्धित है। मानक उपागम का विचार है- विषय को मानक रूप से देखा और विश्लेषण किया जाना चाहिए जिससे कि जो कुछ मानक, नियम हैं उन्हें राजनीति विज्ञान में अपना स्थान मिल सके।
राजनीति विज्ञान का अर्थ इसके परिचालन विज्ञान में पहलुओं से है। जब राज्य अपना संचालन करता है तो उसका प्राथमिक उद्देश्य उपर्युक्त मानदण्डों, मानकों और उपदेशों को प्राप्त करना होता है जिससे प्राप्त सफलता और असफलता राज्य या सरकार की प्रकृति, विश्वसनीयता, स्वीकार्यता का निर्धारण करेगी।
इसलिए मानदण्ड के कई ऐसे सिद्धान्त हैं जिन्हें एक सत्ता अस्वीकार नहीं कर सकती है। सत्ता की जवाबदेही भी इन्हीं मानदण्डों और सिद्धान्तों पर आधारित होती है।
इसलिए, मानकता वरीयता के बारे में बात करती है। वरीयता शब्द चाहिए और चाहिए से अलग नहीं है। संक्षेप में, राज्य के उद्देश्यों और कार्यों को वरीयता और चाहिए की पृष्ठभूमि में आँका जाता है।

उपागम की उत्पत्ति

राजनीति विज्ञान के अध्ययन के लिए मानक उपागम की उत्पत्ति ग्रीक दार्शनिक प्लेटो के राजनीतिक दर्शन से हुई है। एक अच्छे समाज या एक आदर्श राज्य का विचार और ऐसे राज्य की पूरी संरचना 'चाहिए', 'वरीयता' आदि जैसी अवधारणाओं पर आधारित है। उन्होंने कहा कि कोई भी राज्य या समाज आदर्श होना चाहिए। प्लेटो ने अपने गणतन्त्र में अच्छे या आदर्श के मानदण्ड को विस्तारित किया है।
प्लेटो के समय में जो राज्य की तस्वीर प्रचलित थी, वह इस बात से बहुत दूर थी कि क्या होना चाहिए या क्या नहीं होना चाहिए। प्लेटो के समय में अधिकांश नगर- राज्यों में नैतिकता, सदाचार, आदर्शों का कोई स्थान और मान्यता नहीं थी। लेकिन उनका दृढ़ विश्वास था कि एक राज्य में ये शाश्वत मूल्य होने चाहिए और उन्होंने यह भी कहा है कि आदर्श राज्य बनने के लिए सभी व्यक्तियों को आदर्श होना चाहिए अर्थात् उनमें नैतिकता और विभिन्न नैतिक गुण होने चाहिए।
उनके महान् शिष्य अरस्तू ने प्लेटो के सिद्धान्तों को मानते हुए आदर्श राज्य की व्याख्या की। बाद में कई दार्शनिकों के विचार सामने आते हैं जिन्होंने राजनीति के मानक दृष्टिकोण पर जोर दिया जिनमें महान् संविदावादी रूसो एक प्रमुख व्यक्ति हैं।
प्लेटो, अरस्तू और रूसो आदि द्वारा दिये गये मानक दृष्टिकोण ने यूटोपिया का रूप और रंग ग्रहण कर लिया है। यूटोपिया का अर्थ कुछ ऐसा है जिसका कोई व्यावहारिक आधार नहीं है और यह कारणों से समर्थित नहीं है। बड़ी संख्या में दार्शनिकों ने यूटोपियन मानदण्डों द्वारा मौजूदा प्रणालियों को स्कैन करना शुरू कर दिया।
थॉमस मूर (1478-1535) ने एक यूटोपिया या एक काल्पनिक राज्य की कल्पना की। उनकी प्रसिद्ध पुस्तक 'यूटोपिया' 1516 में प्रकाशित हुई थी और यहाँ उन्होंने एक राज्य होना चाहिए कि तस्वीर का चित्रण किया था। उन्होंने उन कमियों को अस्वीकार कर दिया जो उनके समय की प्रचलित स्थिति की विशेषता थी और जिसने उन्हें राज्य के बारे में सोचने के लिए प्रेरित किया।

मानक उपागम के घटक
मानक उपागम में इस बात पर बल दिया जाता है कि क्या अच्छा है और क्या अच्छा नहीं है। इसमें कहा गया है कि जब कोई नीति-निर्माता नीति बनाने या निर्णय लेने के लिए आगे बढ़ता है तो उसे यह देखना चाहिए कि नीति या निर्णय किस हद तक वांछित परिणाम देगा।
राजनीतिक संगठन के सदस्य अपनी कई गुना इच्छाओं को पूर्ण करना चाहते हैं और वे उम्मीद करते हैं कि सत्ता तद्नुसार कार्य करेगी। यह हो सकता है कि अपेक्षाएँ हमेशा वास्तविक परिणामों से मेल नहीं खातीं लेकिन इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। उम्मीदें 'होना चाहिए' की श्रेणी में आती हैं। अच्छा भी राज्य के कल्याणकारी उद्देश्यों की प्राप्ति से सम्बन्धित है। अच्छा शब्द सत्ता की नीति, निर्णय और कार्य को स्कैन करना शुरू करता है।
यदि कुछ मानदण्डों और सिद्धान्तों को सामने रखा जाता है और यदि उन्हें सत्ता पर बाध्यकारी बना दिया जाता है, तो लोग सत्ता की सफलता या विफलता का न्याय कर सकते हैं। दूसरे शब्दों में, जिम्मेदारी का पता लगाने के लिए मानदण्ड आसान हैं।
मानक दृष्टिकोण यह निर्धारित करता है कि नीति और निर्णय के निर्धारण और उनके कार्यान्वयन के सम्बन्ध में मानदण्ड या सिद्धान्त अत्यधिक मूल्य और महत्व के हैं लेकिन प्रत्येक सत्ता को इन मानदण्डों और आदर्शों का पालन करना चाहिए।
मानक उपागम क्या है या क्या होता है और क्या होना चाहिए के बीच सन्तुलन बनाने की परिकल्पना करता है। कोई भी पक्षपात राज्य के उचित कामकाज के साथ-साथ निर्णय लेने की प्रक्रिया को हमेशा प्रभावित करेगा।
सामान्य कल्याण उद्देश्यों की प्राप्ति के उद्देश्य से एक सत्ता उपेक्षा का जोखिम नहीं उठा सकता है कि क्या होना चाहिए या क्या नहीं होना चाहिए। सन्तुलन प्रक्रिया स्थिर नहीं है यह हमेशा अस्थिर स्थिति में रहता है। यह एक अवस्था से दूसरी अवस्था में गति करता है।
आदर्शवादी दृष्टिकोण कभी भी किसी तयशुदा चीज के बारे में नहीं सोचता । यद्यपि आमतौर पर यह तर्क दिया जाता है कि मानदण्ड, मूल्य, सिद्धान्त प्रकृति में शाश्वत हैं, लेकिन विद्वानों का मत है कि 'शाश्वत' शब्द को गम्भीरता से लेने की आवश्यकता नहीं है।
मूल्य, मानदण्ड आदि हमेशा परिवर्तन के अधीन होते हैं और एक जिम्मेदार सत्ताधारी को इस परिवर्तन को ध्यान में रखना चाहिए और उसी के अनुसार कार्य करना चाहिए। यह मानक दृष्टिकोण है, हालांकि यह परिवर्तन के साथ आगे बढ़ने वाले मानदण्डों पर भारी जोर देता है। हर युग में कुछ मानदण्डों, मूल्यों आदि सिद्धान्तों को अधिक महत्व दिया जाता है और उन्हें प्राथमिकता दी जाती है।

मानक उपागम का महत्व
अब यह स्पष्ट है कि मानक उपागम में मानदण्डों एवं मूल्यों का बहुत महत्व है, आगे मानते हैं कि उन्हें राजनीति विज्ञान के अध्ययन में प्रासंगिकता मिली है। यह एक आदर्श विचार है। तथ्य यह है कि इन सभी का वास्तविकता में अनुवाद नहीं किया जा सकता है। बड़ी संख्या में राजनीतिक वैज्ञानिक और राजनेता अभी भी मानते हैं कि मानदण्डों का अत्यधिक महत्व है।
मानक उपागम मौजूदा राज्यों के कार्यों, सिद्धान्तों और नीतियों की आलोचना करता है जैसा कि प्लेटो ने अपने गणतन्त्र में किया था। आज भी वही तरीका अपनाया जाता है। इस उपागम के समर्थकों द्वारा की गई आलोचना हमेशा राज्य की मौजूदा कार्यवाही या सत्ता के गैर-मानक सिद्धान्तों को बदलने में सफल नहीं हुई है।
लेकिन यह जनता को राजनीतिक संगठन की गतिविधियों की स्थिति के बारे में जागरुक करने में सक्षम है। इस उपागम का मानना था कि यह उपागम राज्य की दिन-प्रतिदिन की गतिविधियों के लिए सहायक हो सकता है।
ये सभी विभिन्न रूपों जैसे संविधान, कानून और सामान्य नीतिगत निर्णयों में घोषित किए जाते हैं। सिद्धान्तों या सामान्य उद्देश्यों को तय करने के बाद राज्य उन्हें लागू करने के लिए आगे बढ़ता है। यह भारत के संविधान द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है, हमारे संविधान की प्रस्तावना में कई ऊँचे आदर्श हैं। और उनमें से कई को प्राप्त किया जाना शेष है। लेकिन यह गैर-कार्यान्वयन आदर्शों को अमान्य नहीं करता है।
कल्याणकारी राज्य के उदय और इसकी बढ़ती लोकप्रियता ने इस दृष्टिकोण में नये आयाम जोड़ दिये हैं। कल्याणकारी राज्य की अवधारणा यह घोषित करती है कि राज्य का कार्य केवल कानून और व्यवस्था को बनाए रखने में समाप्त नहीं होता है, उसे कई अन्य कार्य करने होंगे जो समाज के लिए सामान्य कल्याण लाएँगे। एक ओर कल्याण के उद्देश्य और दूसरी ओर आदर्श, मानदण्ड, सिद्धान्त हमेशा समान होते हैं।
राज्य का कार्य स्थिर नहीं है। एक गतिशील समाज में यह गतिशील भी होना चाहिए। इसका मतलब है कि राज्य को अपने कार्यों के सुधार के लिए निरन्तर प्रयास करना चाहिए और इसका फिर से मतलब है कि उसके सामने कुछ आदर्श सिद्धान्त और मानदण्ड होने चाहिए, अन्यथा उसे एक अज्ञात समुद्र में जाना होगा। लेकिन राज्य का एक व्यावहारिक सिद्धान्त यह नहीं बताता है कि राज्य को एक अज्ञात समुद्र में जाना चाहिए। तथ्य यह है कि राज्य को कुछ आदर्श तय करने चाहिए और फिर वह अपनी यात्रा शुरू करेगा।
प्लेटो का आदर्श राज्य, दार्शनिक राजा, अरस्तू की राजनीति, मार्क्स का वर्गहीन राज्य या समाज, उनका साम्यवाद, रूसो की नैतिक स्थिति आदि आज भी हमें सताते हैं। हम सभी जानते हैं कि ये सब कभी हासिल नहीं किया जा सकता है लेकिन हम फिर भी उम्मीद करते हैं कि हमें इन्हें हासिल करने का प्रयास करना चाहिए क्योंकि ये हमारे आदर्श हैं।

आधुनिक उपागम (दृष्टिकोण) - व्यवहारवाद एवं उत्तर-व्यवहारवाद

राजनीति विज्ञान के अर्थ, उसके स्वरूप तथा उसके विषय क्षेत्र से सम्बन्धित एक अन्य दृष्टिकोण भी है। इस दृष्टिकोण को आधुनिक अथवा समकालीन दृष्टिकोण कहा जाता है। राजनीति विज्ञान के इस आधुनिक (समकालीन) दृष्टिकोण को 'व्यवहारवादी- उत्तर-व्यवहारवादी दृष्टिकोण' कहा जाता है। राजनीतिक विज्ञान के विकास में द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात् एक क्रान्तिकारी परिवर्तन आया है। इस परिवर्तन में पहले व्यवहारवादी (1950 के दशक में) तथा बाद में सन् 1969 ई. में उत्तर-व्यवहारवादी दृष्टिकोण का उदय हुआ। इन्हीं दो दृष्टिकोणों के कारण युद्ध के बाद का आधुनिक राजनीति विज्ञान परम्परागत दृष्टिकोण की अपेक्षा अधिक व्यापक, अधिक यथार्थवादी तथा अधिक वैज्ञानिक है।

आधुनिक राजनीति विज्ञान अर्थात् व्यवहारवादी - उत्तर-व्यवहारवादी दृष्टिकोण के अनुसार मनुष्य के राजनीतिक व्यवहार का अध्ययन उसकी सम्पूर्णता में किया जाना चाहिए क्योंकि उसके सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, धार्मिक व सांस्कृतिक पहलुओं को पृथक्-पृथक् नहीं किया जा सकता। अतः - राजनीति विज्ञान में मनुष्य के केवल राजनीतिक क्रिया-कलापों का ही नहीं वरन् उसके राजनीतिक व्यवहार को प्रभावित करने वाले गैर-राजनीतिक तत्वों का भी अध्ययन किया जाना चाहिए। राजनीति विज्ञान वह विषय है जिसमें मनुष्य के केवल राजनीतिक पहलू ही नहीं वरन् उसके जीवन के अन्य पहलुओं- सामाजिक, धार्मिक, नैतिक, सांस्कृतिक इत्यादि का भी अध्ययन किया जाता है। राजनीति के आधुनिक दृष्टिकोण के मुख्य समर्थकों में कैटलिन (Catlin), लासवैल (Lasswell), कैपलान (Kaplan), डेविड ईस्टन (David Easton), आमण्ड (Almond), पॉवेल (Powell), रॉबर्ट ए. डहल (Robert A. Dahl) इत्यादि के नाम उल्लेखनीय हैं।

व्यवहारवादी - उत्तर- व्यवहारवादी राजनीति विज्ञान के अर्थ, स्वरूप व प्रकृति के विवेचन से पूर्व व्यवहारवाद तथा उत्तर-व्यवहारवाद के विषय में जानना अति आवश्यक है।

व्यवहारवाद

'व्यवहारवाद' राजनीति विज्ञान की एक बहुत महत्वपूर्ण धारणा है। इसका उदय वर्तमान शताब्दी में ही हुआ है। व्यवहारवाद सामाजिक विज्ञानों में परम्परावाद पद्धतियों के विरुद्ध एक प्रतिक्रिया है। वर्तमान समस्याओं की जटिलता तथा व्यापकता के कारण परम्परागत पद्धतियाँ अपर्याप्त तथा अपूर्ण सिद्ध हुई हैं। इन पद्धतियों में दार्शनिक पद्धति या आदर्शमूलक सिद्धान्त काल्पनिक, अव्यावहारिक तथा अवास्तविक सिद्ध हुआ है। परिणामस्वरूप द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात् राजनीति विज्ञानों में भी अन्य सामाजिक विज्ञानों की भाँति एक ऐसी धारणा की आवश्यकता अनुभव हुई जो अत्यधिक उपयोगी, व्यावहारिक तथा वास्तविक हो, जिसमें कल्पनाओं तथा मूल्यों (Imaginations and Values) का कोई भी स्थान तथा महत्व न हो और जिसके द्वारा राजनीतिक समस्याओं का समाधान व्यावहारिक आधार पर किया जा सके। इसी धारणा के कारण व्यवहारवाद का उदय हुआ। व्यवहारवाद की मूल मान्यता यह है कि मनुष्य का व्यवहार बहुत सीमा तक उसकी अपनी प्रवृत्तियों, अभिलाषाओं, रुझानों, भावनाओं तथा आकांक्षाओं से इतना अधिक प्रभावित होता है कि कानूनी प्रावधान तथा मूल्य काफी सीमा तक निरर्थक तथा सारहीन सिद्ध होते हैं। यही कारण है कि व्यवहारवाद में राजनीतिक घटनाओं, संस्थाओं, कानूनी प्रावधानों, संविधानों आदि का अध्ययन करने की अपेक्षा व्यक्तियों अथवा समूहों के व्यवहार का अध्ययन करना अधिक अच्छा तथा उपयोगी माना जाता है। इस धारणा ने सामाजिक विज्ञानों में क्रान्तिकारी परिवर्तन ला दिया है। इसी के परिणामस्वरूप नये विषयों का उदय हुआ है, जैसे- राजनीतिक समाजशास्त्र (Political Sociology), राजनीतिक मनोविज्ञान (Political Psychology), राजनीतिक अर्थशास्त्र (Political Economics), राजनीतिक भूगोल (Geo-Politics) आदि।
व्यवहारवाद की नींव ग्राहम वालास, आर्थर बेण्टले, चार्ल्स ई. मेरियम आदि ने वर्तमान शताब्दी के प्रारम्भ में रखी थी। ग्राहम वालास ने सन् 1908 में प्रकाशित अपनी पुस्तक 'Human Nature in Politics' में राजनीति में मनोवैज्ञानिक तत्वों, जैसे- भावनाएँ, व्यक्तित्व, रुझानों आदि के प्रभाव के अध्ययन पर बल दिया है। इन तत्वों के प्रभाव का विश्लेषण राजनीति में व्यावहारिकता का समावेश स्वमेव कर देता है। इसी प्रकार सन् 1908 में ही प्रकाशित आर्थर बेण्टले की पुस्तक 'Process of Government' में भी राजनीतिक संगठनों व संस्थाओं के अध्ययन के स्थान पर राजनीतिक प्रक्रियाओं के अध्ययन व विश्लेषण पर अधिक बल दिया गया है। इसी क्रम में सन् 1925 में चार्ल्स मेरियम ने अपनी पुस्तक 'New Aspects of Politics' में सैद्धान्तिक अध्ययन के स्थान पर व्यवहारवादी तथा वैज्ञानिक अध्ययन की संस्तुति की है। राजनीतिक व्यवहारवाद से सम्बन्धित उपर्युक्त विचारों को संकलित कर सन् 1950 के दशक में अमेरिका के राजनीति विज्ञान विषय के विद्वान डेविड ईस्टन ने एक व्यवस्थित सिद्धान्त के रूप में व्यवहारवादी दृष्टिकोण का प्रतिपादन किया। डेविड ईस्टन को व्यवहारवाद का जनक कहा जाता है। व्यवहारवाद विचारक राजनीति विज्ञान के अध्ययन को वैज्ञानिक व यथार्थवादी आधार प्रदान करना चाहता है। व्यवहारवाद के अन्य समर्थकों में कैटलिन, स्टुअर्ट राइस, फ्रैक कैण्ट, हैरोल्ड लासबैल, डेविड बी. टुमैन, हरबर्ट साइमन, आलमण्ड, रॉबर्ट ए. डहल, पावेल, हीन्ज यूलाऊ, एडवर्ड शैल्ज आदि के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।

व्यवहारवाद की निम्नलिखित विशेषताएँ हैं-
  • व्यवहारवाद राजनीतिक तथ्यों की व्याख्या हेतु विश्लेषण का एक विशिष्ट तरीका है जिसमें अध्ययन का केन्द्र बिन्दु मानव का राजनीतिक व्यवहार होता है।
  • व्यवहारवाद एक ऐसा अनुभवात्मक एवं क्रियात्मक दृष्टिकोण है जिसमें व्यक्तिनिष्ठ मूल्यों, मानवीय विवरणों तथा कल्पनाओं का कोई महत्व नहीं है।
  • व्यवहारवाद एक अन्तर- अनुशासनात्मक अध्ययन (Inter-disciplinary Study) है।
  • व्यवहारवाद परम्परागत राजनीति विज्ञान के विरुद्ध है अर्थात् व्यवहारवादी राजनीति विज्ञान को राज्य की कानूनी और दार्शनिक सीमाओं में सीमित रखने के लिए तैयार नहीं है।
  • यह एक वैज्ञानिक दृष्टिकोण है तथा इसमें मानव के व्यवहार से सम्बन्धित तथ्यों का संख्यीकरण तथा सर्वेक्षण (Survey), निरीक्षण (Observation) और परीक्षण (Experiment) किया जाता है और उन प्रयोगों के आधार पर एक व्यवस्थित सिद्धान्त का विकास किया जाता है।

व्यवहारवाद के सिद्धान्त

व्यवहारवादी उपागम के निम्न सिद्धान्त हैं-
  1. व्यक्ति का राजनीतिक व्यवहार - एक केन्द्र बिन्दु (Human Political Behaviour-a Central Point) - व्यवहारवादी विचारक अपने दृष्टिकोण का केन्द्रीय बिन्दु मनुष्य के राजनीतिक व्यवहार (Political Behaviour) को मानते हैं। राजनीतिक व्यवहार का अर्थ बताते हुए डेविड मैन ने कहा है कि राजनीतिक व्यवहार में व्यक्तियों और समूहों के वे सभी कार्य और प्रतिकर्म सम्मिलित होते हैं जो शासन की विधि से सम्बन्धित हैं। इस विचार के साथ राजनीतिक व्यवहार के शीर्षक के अधीन वे सभी मानवीय गतिविधियाँ आ जाती हैं जो शासन का हिस्सा मानी जाती हैं। व्यक्ति के राजनीतिक व्यवहार में वे सभी गतिविधियाँ आ जाती हैं जो प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से राजनीतिक व्यवस्था को प्रभावित करती हैं।
  2. प्रयोगसिद्ध अध्ययन (Empirical Study) - व्यवहारवादी अध्ययन अनुभव पर आधारित है। व्यवहारवाद में राजनीतिक तथ्यों का अध्ययन मानव के व्यवहार अर्थात् 'जो है' (Is) के आधार पर किया जाता है, इसमें मूल्यों (Values) का कोई स्थान नहीं है। व्यवहारवादी अध्ययन के लिए 'क्या होना चाहिए' (What ought to be) महत्वपूर्ण नहीं है। व्यवहारवादी अध्ययन में राजनीतिक प्रक्रिया (Political Process) सम्बन्धी तथ्य एकत्रित करके उनका वैज्ञानिक पद्धतियों तथा विधियों द्वारा परीक्षण तथा निरीक्षण करके परिणाम निकाले जाते हैं तथा मानव के व्यवहार को निश्चित किया जाता है।
  3. अस्थिर निष्कर्ष (Unstable Conclusions) - व्यवहारवादी विचारक यह मानते हैं कि उनके निष्कर्ष अस्थायी होते हैं क्योंकि मानव गतिशील, परिवर्तनशील तथा विवेकशील होते हैं। केवल यही नहीं अपितु परिस्थितियाँ भी बदलती रहती हैं। अत: प्राकृतिक विज्ञानों की भाँति राजनीतिक विज्ञान में भी परिणाम शुद्ध व अटल नहीं होते।
  4. संरचनाओं, संस्थाओं और धारणाओं के अध्ययन का महत्व न होना (No Importance to the Study of Structures, Institutions and Ideologies) - व्यवहारवादी विचारक व्यक्ति के राजनीतिक व्यवहार को अध्ययन का केन्द्र बिन्दु मानते हैं। उनकी दृष्टि में संरचनाओं, संस्थाओं और धारणाओं के अध्ययन का कोई महत्व नहीं है। पीटर एच. मरर्कल के मतानुसार, “संयुक्त राज्य अमेरिका की सर्वोच्च अदालत कांग्रेस की संस्थाओं के रूप में अध्ययन करने की अपेक्षा व्यवहारवादी विचारधारा के समर्थक सर्वोच्च अदालत के जजों और कांग्रेस के दोनों सदनों के सदस्यों के व्यवहार- नमूने का अध्ययन करते हैं। " इसका आशय यह नहीं है कि व्यवहारवादी अध्ययन में संस्थाओं तथा संरचनाओं का अध्ययन नहीं होता वरन् इसमें संस्थाओं तथा संरचनाओं के रूपवादी तथा कानूनी अध्ययन की कार्य-प्रणाली (Functional Process) का अध्ययन किया जाता है। इससे हमें व्यक्ति के राजनीतिक व्यवहार को समझने में सहायता मिलती है।
  5. अन्तर - शास्त्रीय अध्ययन (Inter-disciplinary Studies) - व्यवहारवाद में अन्तर - शास्त्रीय अध्ययन एक महत्वपूर्ण विशेषता है अर्थात् मनुष्य के राजनीतिक जीवन के अन्य पहलुओं-आर्थिक, सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक, मनोवैज्ञानिक इत्यादि का प्रभाव पड़ता है। इसलिए इसमें अन्तर - शास्त्रीय अध्ययन को महत्वपूर्ण माना जाता है। परिणामस्वरूप मनुष्य के सम्पूर्ण व्यवहार का निरीक्षण हो जाता है।
  6. शोध सन्दर्भ (Research Contex) - हींज युलाऊ के मतानुसार व्यवहारवाद शोध को सामाजिक मनोविज्ञान, समाजशास्त्र तथा संस्कृति विज्ञान के सन्दर्भ में करने का प्रयास करता है।
  7. व्यवहार में एकरूपता (Uniformity of Behaviour) - हींज युलाऊ के मतानुसार व्यवहारवादी विचारक व्यक्ति तथा समूहों के व्यवहार में एकरूपता खोजने का प्रयत्न करते हैं।
उपर्युक्त विवेचन के आधार पर निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि व्यवहारवाद एक वैज्ञानिक पद्धति है जिसमें रूपवाद, संस्थागत तथा कानूनी अध्ययन की अपेक्षा व्यक्ति का राजनीतिक व्यवहार केन्द्रबिन्दु है। इसमें सुनिश्चित योजना एवं तकनीकों का प्रयोग राजनीतिक व्यवहार का अनुमान लगाने में सहायता देता है।

व्यवहारवाद की आलोचना

निम्नांकित बिन्दुओं को लेकर व्यवहारवाद की आलोचना की जाती है-
  • रामने, डहल, युलाऊ आदि विद्वानों के मतानुसार व्यवहारवाद को मानव व्यवहार का विवेचन करने के लिए विज्ञान के रूप में प्रतिपादित नहीं किया जा सकता ।
  • प्राकृतिक विज्ञानों तथा राजनीति विज्ञान को एक ही स्तर पर खड़ा करना व्यवहारवादी विचारकों की एक अन्य कमजोरी है क्योंकि दोनों की विषय-सामग्री में बहुत अधिक अन्तर है।
  • यद्यपि व्यवहारवादी विचारक स्वयं को मूल्य तटस्थ (Value Neutral) मानते हैं किन्तु ऐसा पूर्णतया सम्भव नहीं है क्योंकि व्यवहारवादी विचारकों के अपने जीवन के उद्देश्यों, अध्ययन के लक्ष्यों, जीवन के अनुभवों, ज्ञान की सीमाओं आदि का अध्ययन पर प्रभाव पड़ता है।
  • एवरी लीसरसन के मतानुसार व्यवहारवादी विचारक आँकड़ों को एकत्रित करने में इतना अधिक उलझ जाते हैं कि महत्वपूर्ण तथ्यों को विस्मृत कर देते हैं।
  • व्यवहारवादी विचारक अपने अध्ययन में तकनीकियों पर इतना अधिक बल देते हैं कि अनेक बार विषय-वस्तु की अवहेलना कर बैठते हैं।
  • व्यवहारवादियों में विचारों की एकता का अभाव है।
  • व्यवहारवादियों के दृष्टिकोण में एक महत्वपूर्ण विरोधाभास है। एक ओर तो वे व्यवहारवादी अध्ययन में अन्तर - शास्त्रीय (Inter-disciplinary) अध्ययन पर बल देते हैं, जबकि दूसरी ओर, राजनीति विज्ञान को एक स्वतन्त्र एवं स्व-शासित विज्ञान मानते हैं।
  • व्यवहारवादी परीक्षणों पर अत्यधिक धन व्यय करने के बाद भी अमेरिका में जहाँ व्यवहारवाद का जन्म हुआ है, सन्तोषजनक परिणाम नहीं निकाल सके हैं।

उत्तर-व्यवहारवाद
व्यवहारवाद के विकास का श्रेय अमेरिकन विद्वानों को जाता है। इन विद्वानों में डेविड ईस्टन को व्यवहारवाद का जनक माना जाता है। आश्चर्य की बात तो यह है कि जिस समय व्यवहारवाद अपनी चरम सीमा पर था, डेविड ईस्टन ने इसकी त्रुटियों को अनुभव किया तथा उत्तर-व्यवहारवादी धारणा (Post-behavioural Approach) का प्रतिपादन किया।
डेविड ईस्टन के मतानुसार, “पिछली क्रान्ति (व्यवहारवाद) अपनी पूर्णता से पूर्व ही बढ़ते हुए सामाजिक संकटों से घिर चुकी है, हमारे विषय में इन सभी संकटों को उस नवीन संघर्ष के रूप में आँका जा रहा है जिसमें हम आवण्टित हो चुके हैं। यह नवीन एवं तत्कालीन चुनौती व्यवहारवाद की बढ़ती हुई रूढ़िवादिता के विरुद्ध निर्दिष्ट है। इस चुनौती को मैं उत्तर-व्यवहारवाद कहूँगा।"
वास्तव में, उत्तर-व्यवहारवाद व्यवहारवाद के विरुद्ध कोई प्रतिक्रिया मात्र नहीं है अपितु एक ऐसा सकारात्मक दृष्टिकोण है जिसके द्वारा राजनीतिक अध्ययन के प्रचलित मापदण्डों में एक क्रान्तिकारी परिवर्तन किया गया है। इसीलिए डेविड ईस्टन ने स्वयं इसे उत्तर-व्यवहारवादी क्रान्ति (Post- behavioural Revolution) के नाम से सम्बोधित किया है। इस उत्तर व्यवहारवादी क्रान्ति के दो मुख्य नारे हैं - उपादेयता तथा कार्य। दूसरे शब्दों में, राजनीति विज्ञान में शोध एवं अध्ययन की वर्तमान समस्याओं के साथ सार्थकता और क्रियाशीलता का होना अनिवार्य है।
डेविड ईस्टन ने 'अमेरिकन पॉलिटिकल साइन्स एसोसिएशन' के 65वें अधिवेशन में दिये अपने अध्यक्षीय भाषण के एक संश्लेषण के रूप में 'उत्तर-व्यवहारवाद' नामक इस नयी प्रतिक्रिया का प्रतिपादन किया था।
उत्तर-व्यवहारवाद वास्तव में, व्यवहारवाद के विरुद्ध प्रतिक्रिया मात्र न होकर एक ऐसा मार्ग है जिसका उद्देश्य राजनीति विज्ञान के शोध एवं अध्ययन को मानवीय समस्याओं से जोड़ना है, ताकि सामाजिक स्थिरता की अपेक्षा परिवर्तनों को समझा जा सके। इस अध्ययन में मूल्यों का महत्वपूर्ण स्थान है । इसे ही 'उत्तर- व्यवहारवादी क्रान्ति' कहा जाता है। डेविड ईस्टन के मतानुसार उत्तर-व्यवहारवादी क्रान्ति अतीतोन्मुख न होकर भविष्योन्मुख है। यह एक आन्दोलन भी है और बौद्धिक प्रवृत्ति भी जिसका मुख्य नारा है- उपादेयता एवं कार्य (Revelance and Action) अर्थात् राजनीति विज्ञान के शोध और अध्ययन को वर्तमान समस्याओं के साथ अपनी संगति बैठाना और उनके प्रति कार्यशील होना चाहिए।
उत्तर-व्यवहारवाद के विकास तथा उसके उदय के अनेक कारण रहे हैं-व्यवहारवाद के शुद्ध विज्ञान को राजनीतिक मुद्दों पर लागू करना असम्भव जान पड़ रहा था, राजनीति विज्ञान अतिशय वैज्ञानिकता के फलस्वरूप अपनी संगति से वंचित होता जा रहा था। अतिविज्ञान के समावेश के कारण राजनीति विज्ञान आर्थिक, सामाजिक तथा सांस्कृतिक समस्याओं का कोई सन्तोषजनक उत्तर नहीं दे पा . रहा था। इसी के फलस्वरूप व्यवहारवाद के स्थान पर शीघ्र ही उत्तर-व्यवहारवाद ने अपना स्थान बनाना शुरू कर दिया था।

उत्तर- व्यवहारवाद के लक्षण तथा सिद्धान्त
डेविड ईस्टन ने 'अमेरिकन पॉलिटिकल साइन्स ऐसोसिएशन' के 65वें अधिवेशन में दिये अपने अध्यक्षीय भाषण (1965) में उत्तर -व्यवहारवाद के जो लक्षण बताये हैं, उनका संक्षिप्त रूप में इस प्रकार विवेचन किया जा सकता है-
वर्तमान में जिस प्रकार के राजनीतिक शोध किये जा रहे हैं, उनके प्रति एक गहरा असन्तोष पाया जाता है। इसके साथ ही शोध-शिक्षण में राजनीति के अध्ययन को एक वैज्ञानिक अनुशासन में रूपान्तरित करने का भी अनवरत् प्रयास किया जा रहा है, ताकि उसे प्राकृतिक विज्ञानों के पद्धति विज्ञान (Methodology) पर प्रतिरूपित किया जा सके। सारटोरी (Sartori's Democratic Theory) के शब्दों में यह जबरदस्ती लघकरणवाद (Reductionism) है।
यह भविष्योन्मुख है जो एक मौलिक क्रान्ति को सुधार के रूप में कार्यान्वित करने में प्रयासरत है । यह अपने आपको समाजोपयोगी बनाकर अपने भविष्य को अधिक आरक्षित करना चाहती है।
यह एक व्यक्ति समूह तथा बौद्धिक प्रवृत्ति दोनों ही है किन्तु अभी तक संगठित समूह राजनीतिक विचारधारा या पद्धति विज्ञान की विशेष प्रविधियों से आबद्ध नहीं हुई है। इस अभिनव आन्दोलन में विशुद्ध वैज्ञानिक और निष्ठावान शास्त्रीय विद्वान आदि सभी सम्मिलित हैं।

सिद्धान्त (Principles) - उपर्युक्त तीनों लक्षणों को आगे स्पष्ट करते हुए डेविड ईस्टन ने उत्तर- व्यवहारवाद के साथ सिद्धान्तों अथवा प्रवृत्तियों (Credo of Revelance) का विवेचन किया है। - इन सिद्धान्तों का संक्षेप में विवेचन निम्नलिखित है-
  1. अध्ययन का विशेष उद्देश्य (Specific Purpose of Study ) - राजनीति विज्ञान में तकनीकियों अथवा प्रविधियों से पहले वास्तविकताओं (Substances) तथा तथ्यों (Facts) को महत्वपूर्ण माना जाना चाहिए। अध्ययन करने के लिए बनावटी प्रविधियों पर कोई आपत्ति नहीं है किन्तु सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि इन प्रविधियों का प्रयोग किस उद्देश्य के लिए किया जा रहा है। उत्तर-व्यवहारवाद इस बात पर बल देता है कि वर्तमान समस्याओं का समाधान वैज्ञानिकता से किया "जाना अति आवश्यक है। व्यवहारवाद ने इस सिद्धान्त को आधार माना है कि अस्पष्ट होने से गलत होना अच्छा है (It is better to be wrong than vague) किन्तु उत्तर-व्यवहारवाद का नियम यह है कि असंगतिपूर्ण परिशुद्धता की अपेक्षा स्पष्ट होना अधिक उत्तम है (It is better to be vague than non-relevant.)।
  2. सामाजिक परिवर्तन (Social Change) - व्यवहारवाद एक रूढ़िवादी विचारधारा बनती जा रही थी। दूसरे शब्दों में, व्यवहारवाद में वर्तमान समस्याओं तथा तथ्यों का विश्लेषण तो किया जाता है। किन्तु उनको कैसे सुधारा जाये, इसका विवेचन नहीं होता अर्थात् व्यवहारवाद यथास्थिति (Status- quo) का पक्षधर है और परिवर्तन की अपेक्षा करता है। उत्तर-व्यवहारवाद में सामाजिक परिवर्तन को महत्वपूर्ण माना गया है।
  3. मानव की आवश्यकताओं का महत्व (Importance of the Needs of Human beings) - व्यवहारवाद का सम्बन्ध अधिकांश रूप में जाँच-पड़ताल तथा विश्लेषण से है, जबकि उत्तर- व्यवहारवाद का सम्बन्ध जीवन की वास्तविकताओं तथा यथार्थ से है अर्थात् इसका मूल रूप से सम्बन्ध मानव जाति की मूल आवश्यकताओं से है। यही कारण है कि डेविड ईस्टन ने राजनीति विज्ञान को भविष्योन्मुखी विज्ञान (Future-oriented Science) कहकर सम्बोधित किया है।
  4. मूल्यों का उचित स्थान (Due Place to Values) - यद्यपि व्यवहारवादी विचारक स्वयं को मूल्य-निरपेक्ष तथा मूल्य-तटस्थ (Value Neutral) मानते हैं किन्तु वास्तव में ऐसा कुछ भी नहीं है। कोई अध्ययन अथवा शोध मूल्य रहित नहीं हो सकता क्योंकि राजनीति के वैज्ञानिकों पर अपने जीवन के अनुभवों, मूल्यों तथा लक्ष्यों का प्रभाव अवश्य पड़ता है। संक्षेप में, उत्तर-व्यवहारवादियों के अनुसार कोई भी अध्ययन मूल्य-रहित (Value Free) नहीं होता।
  5. बुद्धिजीवियों का उत्तरदायित्व (Responsibility of the Intellectuals) - बुद्धिजीवियों की समाज में एक विशेष तथा महत्वपूर्ण भूमिका होती है। उनका यह दायित्व है कि सभ्यता के मानवीय मूल्यों (Human Values of civilization) की रक्षा करें। यदि बुद्धिजीवियों द्वारा इस दायित्व का निर्वहन न किया जाये तो वह केवल यन्त्रविद् (Technicians) अथवा शिल्पकार बनकर रह जायेंगे।
  6. समाज का पुनरूपीकरण (Reshaping of Society) - किसी भी वैज्ञानिक अथवा बुद्धिजीवी का कार्य केवल ज्ञान का उपार्जन करना ही नहीं है वरन् समाज का पुनरूपीकरण करना भी है। समाज का पुनरूपीकरण ही किसी भी ज्ञान का महत्वपूर्ण उद्देश्य हो सकता है।
  7. व्यवसायों का राजनीतिकरण (Politicisation of Professions) - राजनीति वैज्ञानिकों को सामाजिक समस्याओं से पृथक् नहीं रहना चाहिए और समाज के लिए अच्छे उद्देश्य निश्चित करने का उनका विशेष उत्तरदायित्व है। परिणामस्वरूप राजनीतिक वैज्ञानिक अकेला यह महत्वपूर्ण उत्तरदायित्व नहीं निभा सकता। इसीलिए बुद्धिजीवियों के संगठन होने चाहिए। बुद्धिजीवियों के इन समूहों तथा व्यावसायिक संघों को संघर्ष करना पड़ेगा। इसीलिए व्यवसायों (Professions) का अनिवार्य रूप से राजनीतिकरण (Politicisation) होना चाहिए।
राजनीति विज्ञान को जीवित रखने तथा उसके विकास के लिए समय की चुनौतियों का मुकाबला करना अनिवार्य है। उत्तर-व्यवहारवाद का यही सार है लेकिन उत्तर-व्यवहारवाद से परम्परावाद मान लेने की भूल नहीं करनी चाहिए क्योंकि दोनों ही राजनीतिक मूल्यों को विषय के अध्ययन में महत्वपूर्ण स्थान प्रदान करते हैं और न ही उत्तर-व्यवहारवाद परम्परावाद की पुनर्स्थापना है। वस्तुतः उत्तर-व्यवहारवाद वैज्ञानिक व तथ्यपरक अध्ययन का समर्थक है, जबकि परम्परावादी दृष्टिकोण आदर्शात्मक है लेकिन उत्तर- व्यवहारवाद सोद्देश्य ज्ञान का पक्षधर है। यह व्यवहारवाद की तरह ज्ञान के लिए ज्ञान के सिद्धान्त का विरोधी है। उत्तर-व्यवहारवाद, व्यवहारवाद की अतिशय वैज्ञानिकता के विरुद्ध एक सार्थक प्रतिक्रिया है निष्कर्षतः वर्तमान परिप्रेक्ष्य में उत्तर-व्यवहारवाद परम्परावाद व व्यवहारवाद के श्रेष्ठ तत्वों का समन्वय प्रस्तुत करता है।

व्यवहारवादी- उत्तर-व्यवहारवादी राजनीति विज्ञान का अर्थ व परिभाषाएँ

दूसरे विश्वयुद्ध के पश्चात् राजनीति विज्ञान के अर्थ व परिभाषाओं में एक क्रान्तिकारी परिवर्तन आया है। फलस्वरूप राजनीति विज्ञान में एक नये दृष्टिकोण का उदय हुआ है। इस दृष्टिकोण को व्यवहारवादी - उत्तर-व्यवहारवादी दृष्टिकोण कहा जाता है। यह दृष्टिकोण पूर्व के दृष्टिकोण की अपेक्षा अधिक व्यापक, अधिक यथार्थवादी व अधिक वैज्ञानिक है। व्यवहारवादियों तथा उत्तर- व्यवहारवादियों के मतानुसार, व्यक्ति के राजनीतिक व्यवहार का अध्ययन उसकी समग्रता में किया जाना चाहिए क्योंकि उसके सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, धार्मिक, सांस्कृतिक आदि पहलुओं को पृथक्-पृथक् नहीं किया जा सकता। राजनीति विज्ञान में व्यक्ति के केवल राजनीतिक क्रिया-कलापों का ही नहीं वरन् उसके राजनीतिक व्यवहार को प्रभावित करने वाले गैर-राजनीतिक तत्वों का भी अध्ययन किया - जाना चाहिए।
व्यवहारवाद - उत्तर-व्यवहारवादियों के मतानुसार राजनीति विज्ञान का विषय है जिसमें व्यक्ति के केवल राजनीतिक पहलू ही नहीं वरन् उसके जीवन के अन्य पहलुओं-सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक, नैतिक, सांस्कृतिक आदि का भी अध्ययन किया जाता है।
व्यवहारवादी - उत्तर-व्यवहारवादी राजनीति विज्ञान को शक्ति के अध्ययन का विषय मानते हैं। अतः राजनीति विज्ञान की अनेक परिभाषाओं में व्यवहारवादियों एवं उत्तर-व्यवहारवादियों ने शक्ति की अवधारणा को केन्द्रीय महत्व का स्थान दिया है। ऐसी कुछ परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं-
  1. लॉसवैल एवं काप्लान के मतानुसार, "एक आनुभविक खोज के रूप में राजनीति विज्ञान शक्ति के निर्धारण और सहभागिता का अध्ययन है।"
  2. डेविड ईस्टन के मतानुसार, “राजनीति विज्ञान सामाजिक मूल्यों के आवण्टन का अध्ययन है जिसमें नीति, सत्ता तथा समाज प्रमुख हैं।"
  3. आमण्ड एवं पॉवल के मतानुसार, "राजनीति विज्ञान सम्पूर्ण राजनीतिक व्यवस्था का अध्ययन है।
  4. रॉबर्ट ए. डहल के मतानुसार, "राजनीति विज्ञान का शक्ति, शासन अथवा सत्ता से सम्बन्ध है।"
राजनीति विज्ञान की समकालीन तथा आधुनिक परिभाषाएँ मूल्यों की अपेक्षा तथ्यों पर, आदर्शों की अपेक्षा व्यवहार पर मानकों की अपेक्षा विज्ञान पर तथा संरचना की अपेक्षा प्रक्रियाओं पर अधिक बल देती हैं।

राजनीति की उदारवादी-मार्क्सवादी धारणाएँ
राजनीति के अर्थ पर उदारवादियों (Liberals) तथा मार्क्सवादियों (Marxist) के विचार भिन्न-भिन्न ही नहीं अपितु एक-दूसरे के विपरीत भी हैं।
उदारवादियों का मत है कि राजनीति विज्ञान वह विषय है जो राज्य तथा उसकी प्रक्रियाओं से सम्बन्धित है जिनका मुख्य लक्ष्य सामान्य हितों को प्राप्त करना है तथा लोगों के एक-दूसरे के विरुद्ध हितों में समन्वय पैदा करना है। उदारवादी राजनीति को एक साधन मानते हैं जो लोगों के हितों की प्राप्ति में पारस्परिक संघर्ष व तनावों का समायोजन करती है। उदारवादियों की मूल मान्यताएँ निम्नलिखित हैं-
  1. प्रत्येक व्यक्ति का अपना हित होना स्वाभाविक है।
  2. सभी व्यक्तियों के अपने-अपने हित होते हैं।
  3. इन सभी व्यक्तियों में हितों की प्राप्ति की प्रक्रिया में आपसी तनाव होना स्वाभाविक है।
  4. राज्य अर्थात् राजनीति सब लोगों का प्रतिनिधित्व करते हुए परस्पर विरोधी हितों में समझौता कराता है तथा उन तनावग्रस्त हितों में सामान्य हित की खोज करके उसे प्राप्त करने के साधन जुटाता है।
मार्क्सवादी राजनीति को वर्ग संघर्ष का साधन मानते हैं। उनका मत है कि राजनीति की कल्पना वर्गीय है तथा राज्य एक वर्गीय संस्था है। जैसे-जैसे समाज में परस्पर विरोधी वर्ग निजी सम्पत्ति के उद्गम से पैदा होते हैं, वैसे-वैसे समाज का वर्गहीन रूप वर्गीय रूप में बदल जाता है। ऐसी स्थिति में दो मुख्य परस्पर विरोधी वर्ग स्पष्ट हो जाते हैं-सम्पत्तिवान तथा सम्पत्तिहीन। राज्य सम्पन्न व्यक्तियों द्वारा गठित किया जाता है, राजनीति उनके द्वारा खेला गया खेल है-एक ऐसी शक्ति जो सम्पत्तिहीन व्यक्तियों का शोषण व दमन करती है, जब तक समाज में वर्ग है तथा शोषण है, तब तक राज्य भी है तथा राजनीति भी हैं।
मार्क्सवादीयों की यह धारणा है कि राज्य सम्पन्न वर्ग के हितों की पूर्ति का साधन है। प्रत्येक प्रकार के समाज में राज्य उस समाज की तथा उसकी विशेषताओं की स्थापना करता है और अपने से पहले समाज की मान्यताओं, प्रक्रियाओं, संस्थाओं, कानूनों को समाप्त करता है।
इससे स्पष्ट है कि मार्क्सवादी राज्य को उदारवादियों की भाँति निष्पक्ष संस्था नहीं मानते। वे व्यक्ति के हितों की परस्पर प्रतिस्पर्द्धा को भी स्वाभाविक नहीं मानते। उनकी धारणा है कि वर्गविहीन समाज में राज्य व राजनीति दोनों लुप्त हो जायेंगे।

व्यवहारवादी- उत्तर-व्यवहारवादी राजनीति विज्ञान की विशेषताएँ

व्यवहारवादी - उत्तर-व्यवहारवादी राजनीति विज्ञान परम्परागत राजनीति विज्ञान के विरुद्ध एक प्रतिक्रिया के रूप में उभरा है। इस दृष्टि से व्यवहारवादी - उत्तर-व्यवहारवादी राजनीति विज्ञान को एक प्रतिरोध आन्दोलन भी कहा जा सकता है। यह भी कहा जा सकता है कि परम्परागत राजनीति विज्ञान की. त्रुटियों के विरुद्ध आधुनिक व्यवहारवादी - उत्तर-व्यवहारवादी राजनीति विज्ञान का उदय हुआ है। यह कहना कठिन है कि कब तथा किस निश्चित समय पर परम्परागत राजनीति विज्ञान का समापन हुआ तथा कब और किस निश्चित समय पर आधुनिक व्यवहारवादी - उत्तर-व्यवहारवादी राजनीति विज्ञान का शुभारम्भ हुआ। फिर भी, सुविधा के लिए, हम कह सकते हैं कि दूसरे विश्वयुद्ध के पश्चात् धीरे-धीरे आधुनिक व्यवहारवादी - उत्तर-व्यवहारवादी राजनीति विज्ञान विकसित होता चला गया, विशेष रूप से जब विज्ञान में अन्तर - शास्त्रीय अध्ययन, वैज्ञानिक खोज, आँकड़ों, आधुनिक उपकरणों के प्रयोग पर बल दिया जाने लगा।
आधुनिक व्यवहारवादी - उत्तर-व्यवहारवादी राजनीति विज्ञान की प्रमुख विशेषताओं का संक्षेप में निम्नानुसार विवेचन किया जा सकता है-
  • राजनीतिक शोध हेतु किसी सैद्धान्तिक स्वरूप के विकास के लिए अनवरत प्रयास ।
  • सैद्धान्तिक प्रस्थापनाओं की यथार्थ के सन्दर्भ में परख के लिए राजनीतिक शोध को निरन्तर इस लक्ष्य की ओर बिम्बित रखना।
  • नवीन और परिष्कृत प्रविधियों और तकनीकी उपकरणों का राजनीतिक अध्ययनों में व्यापक प्रयोग करने की प्रवृत्ति ।
  • अन्तःशास्त्रीय दृष्टिकोण व बिम्ब जिसमें अर्थशास्त्र, मनोविज्ञान, प्राणिशास्त्र, मानवशास्त्र और सबसे अधिक समाजशास्त्र से सीख व समझ लेना ।
  • एक पूर्णतया नयी राजनीतिक शब्दावली का विकास जिससे राजनीतिक अध्ययन का अन्तःशास्त्रीय बिम्ब सम्भव हो सके।
परम्परागत राजनीति विज्ञान में विद्यमान सीमाओं से बाहर निकलकर व्यवहारवादी - उत्तर-व्यवहारवादी राजनीति विज्ञान न केवल पूर्व निर्धारित सीमाओं व त्रुटियों को छोड़ना चाहता है वरन् वह अपने आपको आधुनिक बनाये रखने के लिए प्रयासरत भी रहता है। अतः व्यवहारवादी - उत्तर-व्यवहारवादी राजनीति विज्ञान से अपेक्षा की जाती रही है कि वह उद्देश्यों को प्राप्त कर सफल होगा-
  • जहाँ तक सम्भव हो, राजनीतिक घटनाओं की व्याख्या हो तथा उनसे सम्बन्धित भविष्यवाणी हो।
  • सैद्धान्तिक सीमाओं के अन्तर्गत शोध उपकरण को लागू करते हुए उस सीमा को एक रूप प्रदान किया जाये तथा उसमें क्रमबद्धता स्थापित की जाये।
  • राजनीतिक तत्वों में अतिरिक्त तत्वों की पहचान करके उनका तुलनात्मक अध्ययन किया जाये।
  • वास्तविक आँकड़ों व तथ्यों को एकत्रित करके तथा उनका विश्लेषण करके सभी प्रकार के सैद्धान्तिक प्रस्थापनाओं की जाँच की जाये ।
  • सरकार की गतिविधियों के साथ-साथ लोगों के राजनीतिक व्यवहार के अध्ययन विश्लेषण पर बल दिया जाये।

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